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अन्तराय
२. आहार सम्बन्धी अन्तराय
छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सहितुकामोऽपि नीत्सहते। जिसके उदयसे देनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं कर पाता है, भोगनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, और उत्साहित होनेको इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है। (रा. वा.८/१३/२/५८०/३२) (गो. क./ जी : ३३/३०११८)
४. अन्तराय कर्मका कार्य मो मा प्र५५६ अन्तराय कर्मके उदयसे जीव चाहै सो न होय । . बहुरि तिसहोका क्षयोपशमतें किंचित मात्र चाहा भी होय ।
५. अन्तराय कर्मके बन्ध योग्य परिणाम त सू. ६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥ दानादिमें विघ्न डालना
अन्तराय कमका आस्रव है। रा.वा ६/२७/१/५३१/३० तद्विस्तरस्तु विवियते -ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात-दाननाभभोगोपभोगवोर्यस्नानानुलेपनगन्धमाक्याच्छादनविभूषणशयनासनभक्ष्यभोज्यपेयलेह्यपरिभोगविघ्नकरण - विभवसमृद्धि - विस्मय-द्रव्यापरित्याग-द्रव्यासप्रयोगसमर्थनाप्रमावर्णवाद - देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहण-निरवद्योपकरणपरित्याग-परवीर्यापहरण-धर्मव्यवच्छेदनकरण-कुशलाचरणतपस्त्रिगुरुचेत्यपूजाव्याघात - प्रवजितकृपणदोनानाथवखपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रियापरनिरोधबन्धनगुह्याङ्गछेदन - कर्ण-नासिकौष्ठकर्तन-प्राणिवधादि.। -उसका विस्तार इस प्रकार है-ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन,गन्ध, माक्य,आच्छादन, भूषण, शयन,आसन, भक्ष्प, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदिमें विघ्न करना, विभवसमृद्धिमें विस्मय करना, द्रव्यका त्याग न करना, द्रव्यके उपयोगके समर्थनमें प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवताके लिए निवेदित या अनिवेदित दव्यका ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणोंका त्याग, दूसरेको शक्ति का अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपसत्रो, गुरु तथा चत्यकी पूजामें व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दोन, अनाथको दिये जानेवाले बख, पात्र, आश्रय आदिमें विघ्न करना. पर निरोध, बन्धन, गुह्य संगच्छेद, नाक, ओठ आदिका काट देना, प्राणिवध आदि अन्तराय कर्मके आस्तबके कारण हैं। (त.सा ४/५५-५८ ) ( गो क ।जो. मू.८१०/६८५) २ आहार सम्बन्धी अन्तराय १. श्रावक सम्बन्धी पंचेन्द्रियगत अन्तराय
१ सामान्य ६ भेद ला सं./२४० दर्शनास्पर्शनाच्चैव मनसि स्मरणादपि। श्रवणादगन्धनाच्चापि रसनादन्तरायका २४० -श्रावकोके लिए भोजनके अन्तराय कई प्रकारके है। कितने ही अन्तराय देखनेसे होते हैं, कितने ही छुनेसे वा स्पर्श करनेसे होते हैं, कितने ही मनमें स्मरण कर लेने मात्रसे होते है, कितने ही सुननेसे होते है, कितने ही संघनेसे होते है और कितने ही अन्तराय चखने वा स्वाद लेनेसे अथवा खाने मात्रसे होते है।
२ स्पर्शन सम्बन्धी अन्तराय सा. ध. ४/३१ .....स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ॥३१॥रजस्वला खी, सूखा चमडा, सुखी हड्डो, कुत्ता, बिल्ली और चाण्डाल
आदिका स्पर्श हो जानेपर आहार छोड देना चाहिए। ला सं १/२४२,२४७ शुष्कचर्मास्थिलोमादिस्पर्शनान्नैव भोजयेत् । मूषकादिपशुस्पत्त्यिजेदाहारमअसा १२४२० -सूखा चमडा, सूखी हड्डी, बालादिका स्पर्श हो जानेपर भोजन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार चूहा, कुत्ता, बिल्ली आदि घातक पशुओका स्पर्श हो जानेपर
शीघ ही भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥ २४२ ॥ नोट-और भी देखो आहारके १४ मल दोष-दे आहार 1/४ |
३. रसना सम्बन्धी अन्तराय सा.घ./४/३२,३३...भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्यैऽशक्यविवेचनैः ॥३२॥
संसृष्टे सति जीवद्भिर्जीव महुभिमृतः ॥३३॥-जिस वस्तुका त्याग कर दिया है, उसके भोजन कर लेनेपर, तथा जिन्हें भोजनसे अलग नही कर सकते ऐसे जोवित दो इन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवोके संसर्ग हो जानेपर (मिल जानेपर) अथवा तीन चार आदि मरे हुए जीवोंके मिल जानेपर उस समयका भोजन छोड देना चाहिए। ला. सं.५/२४४-२४७ प्राक्परिसंख्यया त्यक्तं वस्तुजातं रसादिकम् ।
भ्रान्त्या विस्मृतमादाय त्यजेद्भोज्यमसंशयम् ॥ २४४ । आमगोरससपृक्तं द्विदलान्न परित्यजेत् । लालाया' स्पशमात्रेण त्वरित बहुमूछनात ॥२४॥ भोज्यमध्यादशेषांश्च दृष्ट्वा उसकलेवरान् । यद्वा समूलतो रोम दृष्ट्वा सद्यो न भोजयेत् ॥२४६॥ चमतोयादिसम्मिश्रासदोषमनशनादिकम् । परिज्ञायेङ्गितै. सूक्ष्मः कुर्यादाहारवर्जनम् ॥२४॥-भोगोपभोग पदार्थोंका परिमाण करते समय जिन पदार्थाका त्याग कर दिया है अथवा जिन रसोंका त्याग कर दिया है उनको भूल जानेके कारण अथवा किसी समय अन्य पदार्थका भ्रम हो जानेके कारण ग्रहण कर ले तथा फिर उसी समय स्मरण आ जाय अथवा किसी भी तरह मालूम हो जाय तो बिना किसी सन्देहके उस समय भोजन छोड देना चाहिए ॥२४४॥ कच्चे दूध, दही आदि गोरसमें मिले हुए चना, उडद मूंग, रमास (बोडा) आदि जिनके बराबर दो भाग हो जाते है (जिनकी दाल बन जाती है। ऐसे अन्नका त्याग कर देना चाहिए, क्योकि कच्चे गोरसमें मिले चना, उड़द, मूंगादि अन्नोंके खानेसे मुंहकी लारका स्पर्श होते ही उसमें उसी समय अनेक सम्मुच्र्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं । २४ । यदि बने हुए भोजनमें किसी भी प्रकारके त्रस जीवोंका कलेवर दिखाई पड़े तो उसे देखते ही भोजन छोड देना चाहिए, इसी प्रकार यदि भोजनमें जड सहित बाल दिखाई दे तो भी भोजन छोड देना चाहिए ॥२४॥ "यह भोजन चमडेके पानीसे बना है वा इसमें चमडेके बर्तन में रखे हुए घी, दूध, तेल, पानी आदि पदार्थ मिले हुए है और इसलिए यह भोजन अशुद्ध व सदोष हो गया है" ऐसा किसी भी सूक्ष्म इशारेसे व किसी भी सूक्ष्म चेष्टासे मालूम हो जाये तो उसी समय आहार छोड देना चाहिए।
४. गन्ध सम्बन्धी अन्तराय ला. स. ५/२४३ गन्धनान्मद्यगन्धेव पूतिगन्धेव तत्समे । आगते घाणमार्ग च नान्नं भुञ्जोत दोषवित ॥ २४३ ॥ भोजनके अन्तराय और दोषोंको जाननेवाले श्रावकोंको मद्यकी दुर्गन्ध आनेपर वा मद्यकी दुर्गन्धके समान गन्ध आनेपर अथवा और भी अनेकों प्रकारकी दुर्गन्ध आनेपर भोजनका त्याग कर देना चाहिए।
५. दृष्टि या दर्शन सम्बन्धी अन्तराय साध,४/३१ दृष्ट्वाई चर्मास्थिमरामांसासृपयपूर्वकम् ॥३॥- गीला
चमड़ा, गीली हड्डो, मदिरा, मांस, लोह तथा पोबादि पदार्थोंको देखकर उसी समय भोजन छोड़ देना चाहिए। या पहले दीख जानेपर उसी समय भोजन न करके कुछ काल प छ करना चाहिए (ला. सं.५/२४१)। चा, पाटी. २९/ ४३ / १५ अस्थिसुरामासरक्तपूयमलमूत्रमृताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाचा डालादिदर्शनात्तच्छन्दश्रवण च भोजनं त्यजेत् । - हड्डी, मद्य, चमड़ा, रक्त, पीम, मल, मूत्र, मृतक मनुष्य इन पदार्थोंके दीख पड़नेपर तथा त्याग किये हुए अन्नादिका सेवन हो जानेपर अथवा चाण्डाल आदिके दिखाई दे जानेपर या उसका शब्द कानमें पड़ जानेपर भोजन त्याग देना चाहिए। क्योंकि ये सम दर्शनप्रतिमाके अतिचार है।
६. श्रोत्र सम्बन्धी अन्तराय सा.ध.४/३२ युवा वर्कशाक्रन्दविड्वरप्रायनिस्स्वनं. ॥३१॥ -
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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