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अन्तरकृष्टि
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१. अन्तराय कर्म
मन्तर्मुहूर्तावलिमात्रीभ्यो प्रथस्थिती ताभ्यां संख्यातगुणितमेव भवति । बहुरि अन्तर्मुहूर्त वा आवलीमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतिनिकी प्रथम स्थिति ताते संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अतरायाम है।
४. अन्तर पूरण करण ल. सा. मू. १०३ / १३६ उवसमसम्मत्तु वरि दंसणमोहं तुरंत पूरेदि । उदयिल्लस्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ॥१०॥- उपशम सम्यक्त्वके ऊपरि ताका अन्त समयके अनन्त रि दर्शन मोहकी अन्तरायामके उपरिवर्ती जो द्वितीय स्थिति ताके निषेकनिका द्रव्य की अपकर्षण करि अंतर को पूरै है। अंतरकृष्टि-दे, 'कृष्टि' । अंतरद-एक ग्रह-दे. 'ग्रह' । अंतरात्मा–बाह्य विषयोंसे जीवकी दृष्टि हटकर जब अन्तरकी ओर झुक जाती है तब अन्तरात्मा कहलाता है। १. अन्तरात्मा सामान्यका लक्षण मो. पा. मू.५ अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हूँ अप्पसंकप्पो ।इन्द्रियनिकू' बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्वका संकल्प करे सो बहिरात्मा है । बहुरि अन्तरात्मा है सो अन्तरंग विषै आत्माका प्रगट
अनुभवगोचर संकल्प है। (द्र. सं. टी.१४/४६/८) नि. सा. मू. १४६-१५०/३०० आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतर गप्पा ॥१४॥ =जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतर गप्पा।१५०॥ आवश्यक सहित श्रमण वह अन्तरात्मा है ॥१४६॥ जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अन्तरात्मा कहलाता है ॥१५॥ र. सा. मू. १४१ सिविणे विण भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई। भुजइणियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो॥१४१॥-देहादिकसे अपनेको भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयोंको नहीं भोगता, परन्तु निजात्माको ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अन्तरात्मा है। प.प्र.मू.१४/२१/१३ देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ १४५ - जो पुरुष परमात्माको शरीरसे जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम
समाधिमें निष्ठता हुआ अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है। ध. १/१,१,२/१२०/५ अट्ठ-कम्मभंतरो त्ति अंतरप्पा। आठ कोंक
भीतर रहता है इसलिए अन्तरात्मा है । (म.पू. २४/१०३,१०७) शा. सा. ३१ धर्मध्यान ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम् । सः भण्यते अन्तरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ॥३१॥ =जो धर्मध्यानको ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञानसे परिणत रहता है, उसको अन्तरात्मा कहते हैं। का. अ. मू. १६४ जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणं ति जीवदेहाणं । णिज्जिय-दुट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥१६४॥ जो जिनबचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेदको जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदोंको जीत लिया है वे अन्तरात्मा है।
२. अन्तरात्माके भेद द्र.सं. टी. १४/४६ अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षोणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोमध्ये मध्यमः। -अविरत गुणस्थानमें उसके योग्य अशुभ लेश्यासे परिणत जघन्य अन्तरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थानमें उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानोंके बीच में जो सात गुणस्थान है सो उनमें मध्यम अन्तरात्मा है। (नि. सा, ता. वृ. १४हमें 'मार्ग प्रकाश से उधृत) स. श. भा.४ अन्तरात्माके तीन भेद हैं-उत्तम अन्तरात्मा, मध्यम
अन्तरारमा, और जघन्य अन्तरात्मा। अन्तरंग-बहिरंग-परिग्रहका
त्याग करनेवाले, विषय कषायोंको जीतनेवाले और शुद्धोपयोगमें लोन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर 'उत्तम अन्तरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रतका पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छठे गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धाके साथ व्रतोंको न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा' रूपसे निर्दिष्ट हैं।
३. अन्तरात्माके भेदोंके लक्षण का.अ.मू. १९५-१६७ पंच-महब्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्च । णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किठा अंतरा होंति ॥ सावयगुणेहि जुत्ता पमत्त-विरदाय मज्झिमा होति। जिणहवणे अणुरत्ता उबसमसीला महासत्ता ॥१६६। अविरय-सम्मादिछी होति जहण्णा जिणिदपयभत्ता। अप्पाणं णिदंता गुणगहणे सुटु अणुरत्ता ॥११॥ जो जीव पाँचों महावतोंसे युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यानमें सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादोंको जीत लेते हैं वे उस्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ॥१६॥ श्रावकके व्रतोंको पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचनमें अनुरक्त रहते हैं. उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ॥१६६। जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। वे जिन भगवान के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं
और गुणोंको ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ॥१६॥ नि. सा. टी. एह 'मैं माग प्रकाश से उधृत-जघन्यमध्यम त्कृष्ट
भेदाद विरतः सुदृक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।अन्तरात्माके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अन्तरात्मा है। क्षीणमोह अन्तिम अर्थात उत्कृष्ट अन्तरात्मा है और उन दोके मध्यमें स्थित मध्यम
अन्तरात्मा है। द्र. सं.टी. १४/४/२-दे. ऊपरवाला शीर्षक सं.२॥
* जीवको अन्तरात्मा कहनेकी विवक्षा-दे. जीव १/३ । अंतराय-अन्तराय नाम विघ्नका है। जो कर्म जीवके गुणों में माधा डालता है, उसको अन्तराय कम कहते हैं। साधुओंकी आहारचर्या में भी कदाचित् बाल या चीटी आदि पड़ जानेके कारण जो बाधा आती है उसे अन्तराय कहते हैं। दोनों ही प्रकारके अन्तरायों के भेद-प्रभेदोंका कथन इस अधिकारमें किया गया है। १. अन्तराय कर्म
१. अन्तराय कर्मका लक्षण त.सू.६/२७ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७१ -विघ्न करना अन्तराय
का कार्य है । (स. सि, ६/१०/३२७) (रा. वा. ६/१०/४/५१७/१७) (ध. १३/५४५,१३७/३६०/४) (गो. क./जी. प्र. ८००/१७६/८) स. सि.८/१३/३६४ दानादिपरिणामव्याघातहेतुस्वात्तस्यपदेशः।दानादि परिणामके व्याघातका कारण होनेसे यह अर्थात अन्तराय संज्ञा मिली है। घ.१३/५.५,१३७/३८६/१२ अन्तरमेति गच्छतीत्यन्तरायः।-जो अन्तर अर्थात मध्य में आता है वह अन्तराय कर्म है।
२. अन्तराय कर्मके भेद त.सु.८/१३ दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्। -दान, लाभ, भोग.
उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्तराय है। (मू. आ १२३४) (पं.सं.प्रा. २/४) (ष. ख.६१,६-१/.४६/७८); (ष.ख.१२/२.४,१४ २२/४८५) (ध. १३/०,१३७/३८६/९) (पं.सं. २/३३४); (गो. क./जी. प्र.३३/२७/२)
३. दानादि अन्तराय कर्मोके लक्षण स.सि.८/३६४/६ यदुदयाददातुकामोऽपि न प्रयच्छवि, वधुकामोऽपि न लमते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुलते, उपभोक्तुमभिवा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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