Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
सम्मतियाँ:
ममया माव के कारण दूसरा नाग सम्मतियों के लिये नही भेग सके, एतदर्य प्रथम माग पर प्राप्त सम्मतियां यहाँ दी जाती हैं सङ्कलन सुन्दर हुआ है, विषय को समझाने की शैली मी मनोरम है ।
- उपाध्याय श्री हस्तोमलजी म. सा. पुस्तक विशेषताओ मे अोतप्रोत है। सग्रहणीय, पठनीय एष पाठ्यक्रमानुकूल है।
-मुनि श्री फूलचन्द्रजो 'श्रमण पुस्तक की सामग्री बहुत उपयोगी है। सिद्धान्त का निर्वाह फरते हुए विषय को सरल बना दिया गया है। समाज मे पाठावलियां तो फई छपी, किन्तु यह सर्वोपरि और अत्यधिक उपयोगी है। विद्याथियो को ही नहीं, उन्हे पढाने वाले धर्माध्यापको के लिये भी समझने योग्य है।
-रतनलालजी डोसो
सम्पादक, 'सम्यग् दर्शन', सैलाना. पुस्तक मे जैन धर्म विषयक ठोस व प्रामाणिक सामग्री ऐसे सरल ढग मे दी है कि दुरुह तात्विक विषय भी बोधगम्य हो गया है। जैन धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक प्रोड लोगो के लिये यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। मुनिजी ने इस पुस्तक को लिखकर एक बडी श्रावश्यकता की पूर्ति की है।
-रिखवराज कर्णावट
एडवोकेट, सुप्रीमकोर्ट जोधपुर पुस्तक को देखकर पूर्ण सन्तोष श्रा। लेखक की श्रद्धा और समझाने की कला बहुत सुन्दर प्रतीत होती है ।
- डॉ० एन० के० गाँधी
राजकोट (मौराष्ट्र) पुस्तक देष फर अति हर्ष हा। जैन विद्यार्थियो को धार्मिक शिक्षण प्रदान करने के लिये यह सुन्दर व उपयोगी है ।
- ठाकरसो करसनजो
थानगढ, (मोरा)
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
'पडम नारण तो दया'
सुबोध जैन पाठमाला
भाग-दूसरा (पूर्वाद्ध) ( सूत्र तथा तत्व-विभाग
प्राकृत
सम्पादक लेव कमाव प० २० श्री पारस मुनिजी मा
प्रकाशक थींगडमल गिडिया
मन्त्री, भी स्था० जैन धार्मिक शिक्षण शिविर समिति, जोधपुर
प्राप्ति-स्थान • सीरेपल धीगडमल सराफा बाजार, जोधपुर.
राम नवमी, विक्रम स० २०२० वीर सं० २४९० सन् १९६४
मूल्य एक रुपया पचास न.पं.
अपमावृत्ति
१०००
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्य सहायकों के प्रति
सुबोध जैन पाठमाला भाग दूसरा पूर्वार्द्ध और उत्तराद्ध का प्रकाशन भी श्रद्धालु और धर्मप्रेमी सज्जनो की ज्ञान-तृषा की तृप्ति के लिये आपके हाथ मे है। समाज मे इस प्रकार के शिक्षणोपयोगी साहित्य प्रकाशन के लिये द्रव्य सहायक बनना समाज मे ज्ञान-प्रसार के पुण्य लाभ के साथ निर्जरा का भी कारण है। निम्न सहाय-दाता, धर्मप्रेमी, श्रद्धाशील और जालोर जैन समाज के अग्रगण्य उत्साही कार्यकर्ता हैं। इनकी त्याग-वृत्ति और धर्म-प्रेम का परिचय समाज को सदा मिलता रहा है। आप लोगो ने निम्न रूप से पुस्तको के लिये अपनी-अपनी तरफ से द्रव्य सहायता प्रदान की, आपका यह कार्य अन्य शिक्षा-प्रेमियो के लिये अनुकरणीय व आदर्श है।
शिक्षिण शिविर समिति आपके इस शुभ सहयोग के लिये अपना आभार प्रकट करती है।
जालोर ५००
नामावली १ शाह सकुनमलजी रूपचन्दजी सांखला, जालोर ५०० २. ,, प्रकाशमलजी नेनमलजी काकरिया , २०० ३. , नेनमलजी केशरीमलजी बुटा व
सुमेरमलजी बुटा ४. , साकलचन्दजी उदयचन्दजी मुथा , १००
ननमलजी का
३. , नेनमल
२००
मत्री
स्था० जैन धामिक शिक्षण शिविर समिति
नोधपुर (राज.)
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
स्था० जैन धार्मिक शिक्षण शिविर के पाठ्यक्रम के रूप में सुबोध जैन पाठमाला द्वितीय भाग के सूत्र तथा तत्व-विभाग (पूर्वार्द्ध) प्रोर कथा काव्य विभाग ( उत्तरार्द्ध) का धार्मिक शिक्षण के क्षेत्र में स्वागत करते हुए प्रति हर्ष होता है । प्रथम भाग मे जिन-जिन विषयो का समावेश हुआ है, उसके प्रागे की शृङ्खला इस पाठमाला मे देखने कोती है ।
प्रथम भाग की अपेक्षा इस भाग मे अपेक्षाकृत क्रमानुसार गंभीर विषयों का समावेश हुआ है, फिर भी मुख्य विशेषता यह रही है कि विद्वान् लेखक ने भाषा का मूल रूप सरल, सहजबोधक और भावगम्य ही रखा है । वास्तव में किसी विषय को प्रस्तुत करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसके मर्म और तथ्यों का उद्घाटन करने वाली अभिव्यक्ति का है । श्रभिव्यक्ति का यह प्रकार ही शैली है, जिससे लेखक लोक में श्रद्धा, सम्मान और कीर्ति का पात्र वनता है । परम तपस्वी लालचन्द्रजी म० सा० के प्राज्ञानुवर्ती प० रत्न पारस मुनिजी म० को ज्ञान-साधना और सयम प्राराधना सराहनीय है । २४-२५ वर्ष की इस अल्पायु मे ही कठिन श्रम- साघन से श्रागम प्राराधना कर जो सार-सिद्धि प्रापने प्राप्त की, उसका श्राशिक रूप हम शिविर साहित्य के रूप मे पाकर कृतार्थ हैं ।
स्था० जैन समाज मे विशुद्ध धार्मिक शिक्षण साहित्य की कमी खटपने वाली बात है। दुख तो उस समय अधिक होता है, जब
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
लथ्यो को विकृत कर अपनी बातों का समावेश जान-बूझ पर या विशुद्ध जानकारी के अभाव में पागम की दुहाई देकर, लेखक गुरु गोबर एक कर देते है। मेरे मन में यह बात सदा उठती रही थी कि विद्वान मुनिराज यदि भागमानुकूल शिक्षणोपयोगी साहित्य की रचना करें, तो वह अधिकहतकर होगा। शिक्षण शिविर गरगावास की प्रायोजना के अवसर पर मुनि श्री की योग्यता देखकर उनसे इस कार्य को सम्पन्न फरने का हमने निवेदन किया। मुनि श्री-नै हमारे निवेदन को स्वीकार कर निरन्तर कठिन परिश्रम द्वारा अल्पावधि ने ही सुबोध जैन पालमाला प्रथम व द्वितीय भाग का लेखन कार्य पूर्ण किया।
इस भाग के सूत्र-विमाग मे पं० मुनि श्री ने श्रावक श्रावश्यक, जो श्रावक की दैनिक क्रियात्री के नित्य चिन्तन, पालोचन और प्रत्याख्यान का विधान परता है विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। तस्व-विभाग मे २५ बोलो के शेष बोल, समिति गुप्ति का स्तोक व उत्कृष्ट पुण्य वध की प्रति (तीर्थर गोत्र) के २० बोल का सरल स्वरूप उपस्थित किया है। कथा-विभाग की सभी कथाएँ जहाँ संयमित और मर्यादित जीवन का पाठ पढाती हैं, वहाँ काव्य-विभाग के स्तवन वैराग्य की भाव लहरियां जगाते हुए प्रात्मविभोर कर
शास्त्रकारी ने "पढम नाग तमो दया" कहा है। पर समाज में स्थिति कुछ विपरीत दिखती है। वर्षों से नित्य सामायिक आदि क्रियाओं के प्राराधन करने वाले ज्ञान के नाम पर छ. काय नव तत्व प्रादि के स्वरूप से अनभिज्ञ पाये जाते हैं, इसका प्रभाव यह होता है फि धर्म करना धार्मिक क्रियाओं तक ही सीमित हो जाता है और व्यावहारिक जीवन मे उसका उपयोग नजर नहीं पाता। फलस्वरूप ज्ञान और प्राधरण मे विभेद और विफलता मिलती है। समाज में विशन धर्म व खा के प्रति रुचि जाग्रत करने का व सद् श्रावक
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयार करने का यही हद उपाय है कि समाज मे तीज गति से ज्ञान फा प्रचार किया जाय। शिक्षण शिविर-योजना के शुभारभ और पाठावलियो के प्रकाशन से उक्त ध्येय की पूति का किचित् प्राश्वासन मिलता है।
प्राशा है, मुनिश्री वर्षों से लगनपूर्वक चिन्तन व मनन किये हुए अपने ज्ञान तथा प्रादरणीय बहुश्रुत प० २० मुनि श्री समरयमलजी म०. सा० द्वारा प्राप्त गूढ धर्म रहस्य को जन-साधारण तक सुगमता से पहुंचा सकेंगे और अपने विशुद्ध निर्मल साहित्य रचना के द्वारा जैन जगत को इसी प्रकार मविष्य मे भी लाभान्वित करते रहेंगे।
सम्पतराज डोसी
- मत्री साधु-मार्गी जैन धार्मिक पाठशाला
जोधपुर (राजस्थान)
-
-
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
सुबोध जैन पाठमाला प्रथम भाग का प्रकाशन श्राप लोगो के हाथो मे पहुँच ही चुका है। यह हर्ष का विषय है कि शिक्षण प्रेमी सज्जनो ने इसकी सराहना व्यक्त की है।
अब आपकी सेवा मे द्वितीय भाग भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इस भाग का मूल्यांकन विद्वत् सज्जनो एवं जिज्ञासु व्यक्तियो का विषय है फिर भी शिक्षण संस्थाएं एवं धर्मप्रेमी पाठफगरण इससे लाभान्वित हो सकें, तो हम अपना श्रम सार्थक समझेगे।
शिक्षण शिविर काल नजदीक होने से और समयाभाव से इसकी प्रतियां हम विद्वान मुनिराजो एव सुज्ञ श्रावको की सम्मति के लिये और समाचार-पत्रो के समालोचनार्थ नहीं भेज सके।
पुस्तक का कलेवर विस्तृत हो जाने से इसको सूत्र व तत्त्व विभाग (पूर्वाa) कथा व काव्य विभाग (उत्तरार्द्ध) के रूप मे पृथकपृथक पुस्तकाकार मे प्रकाशित किया गया है ।
१००८ तपस्वी श्री लालचन्दजी म० सा० के प्राज्ञानुवर्ती बाल. ब्रह्मचारी पं० २० मुनि श्री पारसमलजी म. सा० ने अथक परिश्रम फर अल्प समय मे जो यह प्रागमनाकूल साहित्य तैयार किया है, उसके लिये हम 'प्रामार प्रदर्शित करते हैं।
प्रेसादि कार्य मे तरुण सुज्ञ श्रावफ श्री सपतराजजी डोसी की सेवाएं सराहनीय रही, उसके लिये वे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं।
त मे जालोर समाज के उन उदार हदय सज्जनों के प्रति भी हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त किये विना नहीं रह सकते, जिनके सहयोग के फारण इस पुस्तक का प्रकाशन शीघ्र सभव हो सका।
होराचन्द कटारिया, राणावास, धोंगडमल गिड़िया, जोधपुर, भध्यक्ष,
मत्री, घी स्थानकवासी जन शिक्षण शिविर समिति, जोधपुर.
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक्कथन
तपस्वी श्री लालचन्दजो. म० आदि चार सन्तो का सम्वत २०१७ में राणावास में चतुर्मास हुआ ! उस समय वहाँ छोटेलालजी अजमेरा प्रचारक अ० भा० साधुमार्गी जैन सस्कृति रक्षक संघ आये थे। उन्होने वहाँ श्रो कानमुनिजो को उत्साहपूर्वक बालकों को धार्मिक शिक्षण देते हुए देख कर निवेदन किया कि हमारे स्था० सघ० मे आप जैसे धार्मिक शिक्षण मे रूचि लेने वाले सत कम हैं। परन्तु ग्रीष्मावकाश मे यदि हम शिक्षण शिविर लगायें और आप वहाँ एकत्रित बालकों को धार्मिक शिक्षण दें, तो अधिक बालको को लाभ मिले और उन बच्चो का जो अवकाश का समय प्रमाद में जाता है, वह भी सफल बन जाय।
काल परिपक्व हुआ और राणावास में हो राणावास सघ के आग्रह और अजमेराजो आदि के प्रयास से स० २०२० में धार्मिक शिक्षण शिविर लगा। उस समय बालको के प्राथमिक तात्कालिक शिक्षण के लिए श्री कानमुनिजी ने विषय सयोजना को और उन्होंने धार्मिक दाचना दो। १२विर समाप्ति पर गठित शिविर समिति के मन्त्री श्री धीगडमलजा गिडिया, जोधपुर व सदस्य श्री सम्पतराजजी डोसो ने मुझे समिति को ओर से यह अनुरोध किया कि आप श्री कानमुनिजो द्वारा तात्कालिक विषय को कुछ समय लगा कर सम्पादित कर दे तथा उत्तरोत्तर शिक्षण के लिए अन्य भी क्रमबद्ध चार पुस्तकें लिखकर एक पाठ्यक्रम निर्मित करावे, जिससे शिविरार्थी बालको को क्रमबद्ध शिक्षण मिल सके तथा अल्पकाल मे अधिक 1२ क्षण मिल सके।
[क]
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसके अतिरिक्त शिविर मे अधिक बालक उपस्थित हों, तो हम भी उस सम्पादित पाठ्य क्रम के आधार पर अध्यापकों द्वारा बालको को शिक्षण दे सके। यदि अन्यत्र कोई ऐसा शिविर लगाना चाहे, तो वहाँ भी उसका उपयोग हो सके। हमारो स्था० जन कॉन्फ्रेन्स ने जो पाठावलियाँ प्रकाशित की हैं, वह हमारे संघ से विचार और आचार द्वारा बहिष्कृत श्री सन्तबालजो द्वारा लिखवानो पड़ी है। यद्यपि उनका हमारे विद्वान मुनिराजो द्वारा सशोधन अवश्य हुआ है, पर मूल से विकृत पुस्तको का सशोधन सम्भव नहीं है। उनके लिए तो नये लेखन को आवश्यकता है। प्रत. उनके स्थान पर यदि कोई आप द्वारा उन नवलिखित पुतको को पढाना चाहें, तो भी पढा सके ।
उनके अत्यन्त आग्रह के कारण वर्तमान मे मेरो इस सम्बन्ध मे योग्यता, रुचि और समय की कमी होते हुए सुबोध जैन पाठमाला भाग १ के पश्चात् इस सुबोध जैन पाठमाला भाग २ को लिखा । फिर भी इनसे इच्छित उद्देश्य को पूर्ति हो सके, यह भावना रखते हुए तदनुकूल जितना मुझ से शक्य हो सका, उतना पुरुषार्थ किया।
इस ग्रन्थ मे जो कुछ अच्छाइयाँ हैं वे सब देवगुरु और धर्म की कृपा का फल है, जिन्होंने क्रमश निग्रन्थ प्रवचन जैन धर्म प्रगट किया। मुझे धर्म का साहित्य और शिक्षण दिया और मेरो मति व बुद्धि कुछ निर्मल तथा विकसित को। प्रत्यक्ष मे विशेपतया श्री रतनलालजो डोसो. जिन्होंने इसका आद्योपान्त व्हिगावलोक्न कर इसमे सशोधन दिये तथा श्री सम्पतराजजी डोसो. जिन्हो ने मुख्यतः इसमे सुझाव दिये, वे इस ग्रथ को अच्छाइयो के भागो हैं-एतदर्थ में उनका कृतज्ञ हूँ।
इसको जहाँ तक हो सका, जिन वचन के अनुकूल बनाने का उपयोग रखने का प्रयास किया है, तथापि इसमे जिन वचन के
[ ख ।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
विरूद्ध यदि कोई वचन लिखने में आया हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं |
विद्वान समालोचकों से प्रार्थना है कि वे इसमें रही त्रुटि और स्खलनाओं के प्रति मेरा व प्रकाशक का ध्यान आकर्षित करें, जिससे इसमें भविष्य में परिमार्जन हो सके । इति शुभम् ॥
1
शिक्षकों से :
इस पुस्तक में प्रतिक्रमण में श्रमण सूत्र भी दिया है । जिनके माता-पिता, गुरुदेव आदि बालको को 'श्रमण-सूत्र' पढाना आवश्यक समझते हों या बालक स्वयं श्रमण सूत्र' को आवश्यक समझ कर पढना चाहते हों, उन बालको को 'श्रमण सूत्र' पढाया जाय। जिनके माता पिता गुरुदेव आदि बालको को 'श्रमण सूत्र' पढाना आवश्यक नहीं समझते हो या बालक पढ़ना नहीं चाहते हो, उनके लिए श्रमण सूत्र पढना अनिवार्य नहीं रक्खा जाय ।
छोटे बालको को यह पुस्तक दो वर्ष में पढाना चाहिए। प्रथम वर्ष में १. सूत्र विभाग में 'आवश्यक (प्रतिक्रमण) सूत्र का मूल और अर्थ समझाना व कटस्थ कराना चाहिए। २. तत्व विभाग में 'पच्चास बोल' के शेष बोल सार्थ और तीर्थंकर गोत्र उपार्जन के २० बोल समझाना व कंठस्थ कराना चाहिए । ३. कथा - विभाग में भगवान् महावीर के २७ भव र भगवान् श्ररिष्टनेमि ३ सतो राजीमती और 8 अनाथी अणगार - ये चार कथाएँ पढानी चाहिए तथा ४. काव्य विभाग में तीन मनोरथ, तीन तत्व, निर्माण मार्ग, पाक्षिक चौवोसो, क्षमापना और जैनिस्तान को झाँकी - ये छह काव्य समझाना व कठस्थ कराना चाहिए ।
•
-
-
तथा दूसरे वर्ष मे १ सूत्र विभाग मे प्रतिक्रमण के प्रश्नोत्तर और निबंध समझाना और धारण करना चाहिए ।
[ ग
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. तत्व विभाग में पाँच समिति तोन गुप्ति का स्तोक सार्थ कंठस्थ कराना व समझाना चाहिए। ३. कथा विभाग मे धर्म रुचि अनगार आदि शेष छ. कथाएँ पढानो चाहिए तथा ४. काव्य विभाग में महावीर गुण कोर्तन, सम्यग्दष्ट पाऊं. मानव भव का स्वागत फँसना मत देवाणुप्पिया ! आवश्यक कोजिए और दश श्रावको की स्तुति-ये छह काव्य समझाना व कठस्थ कराना चाहिए।
स्व० शतावधानी श्री केवल मुनिजी म० का शिष्य
पारस मुनि
[ घ]
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूचा
१. सूत्र-विभाग
.
.
.
....
श्री श्रावक आवश्यक सूत्र १ प्रवेष प्रश्नोत्तरी २ पहला आवश्यक ३. 'इच्छामि ठाएमि संक्षिप्त प्रतिक्रमण' ४ दूसरा-तीसरा प्रावश्यक ५. धर्म की आवश्यकता ६. चौथा आवश्यक ७. 'मरिहतो-महदेवो' दर्शन (सम्यक्त्व) का पाठ .. ८. 'अहिंसा प्रणवत' व्रत पाठ " ६ 'सत्य अणुव्रत' व्रत पाठ ." १० 'प्रचौर्य अणुवत' प्रत पाठ " ११. 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' व्रत पाठ १२ 'अपरिग्रह अणुव्रत' व्रत पाठ " १३. 'दिशा व्रत' व्रत पाठ १४. 'उपभोग परिमोग व्रत' व्रत पाठ १५. 'अनर्थ दण्ड व्रत' व्रत पाठ . १६ 'सामायिक व्रत व्रत पाठ " १७ 'दिशावकासिक व्रत' व्रत पाठ .." १८. 'पौषध व्रत' व्रत पाठ १६. 'अतिथि-सविभाग व्रत' व्रत पाठ २०. 'संलेखना' तप का पाठ २१. 'समुच्चय का पाठ २२. 'पट्ठारह पाप
....
....
...
१३२
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
२३. 'पच्चीस मिथ्यात्व' का पाठ "
१३३ २४ 'चौदह सम्मूच्छिम' का पाठ ।
१३६ २५. 'श्रमण सूत्र चर्चा २६ 'चत्तारी मंगल' मागलिक का पाठ
१५१ २७ 'पगामसिज्जाए' शय्या के अतिचारों का प्रतिक्रमरण पाठ १५३ २८ 'गोयरग्गचरियाएं' गौचरी के अतिचारों का प्रतिक्रमरण पाठ १५८ २६ चाउफ्फाल सज्झायस्स' स्वाध्याय और प्रतिलेखना के
अतिचारों का प्रतिक्रमण पाठ ३०. 'तैतीस बोल' विस्तृत प्रतिक्रमण ३१. 'नमोचउवीसाए' 'निर्गन्य प्रवचन' पाठ ३२ पांच पदो की वन्दनाएँ ३३ 'खामेमि सम्वे जीवा' खमाने का पाठ
१६९ ३४ पांचवां प्रावश्यक ३५. छठा आवश्यक ३६. दश प्रत्याख्यानो के पृथक्-पृथक् पाठ. .
तत्त्व-विभाग
१६४ १७५ १८३
२०६
२०८
२१७
। २२६
१ पच्चीस वोल के स्तोक (थोकड़े) के शेष बोल सार्थ • २ ५ समिति ३ गुप्ति का स्तोक (थोकडा) सार्थ "
३. 'तीर्थडर नाम गोत्र उपार्जन के २० बोल' ..."
२५१ २७८
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. सूत्र-विभाग श्रो श्रावक आवश्यक सूत्र
पाठ १ पहला
प्रदेश प्रश्नोतरी
, प्र० : आवश्यक किसे कहते है ?
उ० सभी बातो मे जो बाते चतुर्विध संघ को सबसे पहले जाननी चाहिएँ और सबसे पहले करनी चाहिए, उन्हे आवश्यक कहते है।
प्र० ऐसी आवश्यक बाते कितनी है ?
उ० जैसे लौकिक क्षेत्र मे १ लौकिक विद्या पढना, नीति से रहना, २ राष्ट्रदेवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि की पूजा करना, ३ माता-पिता गुरु आदि को प्रणाम करना, ४ नीतिरीति के अतिक्रमण पर पश्चात्ताप करना, ५ उल्लघन करने चाले को कारावास, ६. हथकड़ी बेडी आदि का दण्ड देना आदि
आवश्यक माने जाते है। वैसे ही धार्मिक क्षेत्र मे चतुर्विध संघ को १. सामायिक, २ चतुर्विशति-स्तव, ३ वन्दना,
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. "] सुवोध जैन पाठमाला--भाग २ ४ प्रतिक्रमण, ५ कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान करना-ये छह बाते आवश्यक मानी गई हैं। .
, प्र० : सामायिक किसे कहते हैं ?
उ० : १ 'सम्यग्ज्ञान (तत्वज्ञान) सीखना, २ सम्यग्दर्शन (तत्वो पर श्रद्धा) रखना, ३. सम्यक्चारित्र स्वीकार करना (जिसमे या तो साधु-धर्म स्वीकार करना या श्रावक-धर्म (व्रत) स्वीकार करना या श्रावक धर्म के नववे व्रत मे एक मुहूर्त तक दो करण तीन योग से १८ पापो का त्याग करना) तथा ४. सम्यक्तप स्वीकार करन।।।
प्र० · हमने तो 'श्रावक के नववे व्रत को सामायिक कहते हैं ----यही सुना और सीखा है। आपने सामायिक के इतने अर्थ कैसे वताये ?
उ० . नाम की दृष्टि से श्रावक के नववे व्रत का नाम 'सामायिक' होने से वही सामायिक के रूप मे अति प्रसिद्ध है। पर गुण की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान आदि सबसे समभाव की आय होती है, अत. ये सभी सामायिक ही समझने चाहिएँ।
.: सामायिक अर्थान् सम्यग्ज्ञान दर्शन, चरित्र और तप आवश्यक क्यो हैं ?
२०: जैसे वन से नगर मे पहुँचने वाले को १.- मार्ग ग्राटिका सम्यग्ज्ञान आवश्यक है, २. मार्ग आदि के ज्ञान पर पूर्ण श्रद्धा होना आवश्यक है, ३. वन मे भटकना छोडना
आवश्यक है और ४ मार्ग पर चलना प्रावश्यक है, वैसे ही हम संसार-वन मे परिभ्रमण कर रहे हैं। यदि हम मोक्ष-नगर मे पहुँचना चाहते हैं, तो हमे १. मोक्ष के मार्ग प्रादि-रूप नव तत्वो का
पूर्ण का सम्यग्ज्ञान आवष्यकार में पहुंचने वाले
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१. प्रवेश प्रश्नोत्तरी [ ३ मम्यग्ज्ञान आवश्यक है, मार्ग-श्रद्धा-रूप नव तत्वो की सम्यक श्रद्धा आवश्यक है, वन मे भटकना छोडना-रूप चारित्र-आवश्यक है तथा मार्ग मे चलना-रूप सम्यक्तप-यावश्यक है। .
प्रp · चतुर्विंशति-स्तव किसे कहते हैं ?
उ० : जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकरो का मन से नाम-स्मरण और गुण-स्मरण करना, वचन से नाम स्तुति और गुण-स्तुति करना, काया से नमस्कार करना, उनकी प्रार्थना करना आदि।
प्र० वन्दना किसे कहते है ?
उ० क्षमा आदि गुणो के धारक (महावत समिति गुप्ति आदि के धारक) साधुओ को प्रदक्षिणावर्तन देना,-पचाग वन्दना करना, उनके चरण स्पर्श करना, उनकी चारित्र,सम्बन्धी समाधि तथा शरीर, इन्द्रिय, मन-सम्बन्धी सुख-शाता -पूछना, उनकी की गई आशातना का पश्चात्ताप करना आदि।
प्र० चतुर्विशतिस्तव और वन्दना आवश्यक क्यो है ?
उ० . जैसे जो पुरुष पहले वन मे भटक रहा था, उसे आवश्यक है कि-'वह नगर का मार्ग बतलाने वाले पुरुष के उपकार को मानकर उसको स्तुति आदि करे, वन्दना आदि करे।' इसी प्रकार जब हम ससार-वन मे भटक रहे थे, हमे मोक्ष-नगर के अस्तित्व का भी ज्ञान नही था, तब देव गुरु ने हमे शब्द सुना कर मोक्ष-नगर ' का मार्ग बताया और मोक्ष-मार्ग पर चढाया। अतः हमे भी आवश्यक है हम देव गुरु की स्तुति प्रादि करे तथा उनको वन्दना.अादि करे।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ ]
सुबोध जैन पाठमाला
प्र० प्रतिक्रमण किसे कहते है
?
-भाग २
·
――――
उ० १. अब तक यदि ज्ञान - दर्शन - चारित्र को स्वीकार
न किया हो, तो उसका पश्चात्ताप करना । ज्ञान- दर्शन - चारित्र में लगे प्रतिचारो के प्रति 'मिच्छामि दुक्कड' देना
पश्चात्तापपूर्वक
३ प्रतिचारो से लौटकर आचार मे आना । प्रशुभ उदय भाव से क्षयोपशम आदि शुभ भावो मे आना ।
२. स्वीकृत हृदय से ( कहना । |
४ कर्मों के
प्र० प्रतिक्रमरण आवश्यक क्यो हैं ?
उ०
१. सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन ग्रहण करते समय श्रर्थात् सम्यक्त्व ग्रहण करते समय यदि पहले किये हुए पापो का पश्चात्ताप रूप प्रतिक्रमण नही किया जाता, तो पूर्व के पापो का ग्रनुमोदन आता रहता है और ली हुई सम्यक्त्व दृढ नही वन पाती । इसी प्रकार चारित्र ग्रहण करते समय यदि पूर्व के पापो का पश्चात्ताप - रूप प्रतिक्रमण नही किया जाता, तो पूर्व के पापो का अनुमोदन आता रहता है और लिया हुआ चारित्र दृढ नही बन पाता । श्रत प्रतिक्रमण श्रावश्यक है । २. जैसे मार्ग मे चलते हुए प्रनाभोग, प्रमाद आदि से प्राय पैर मे काँटे लग जाते है, उन्हे निकालना आवश्यक होता है । यदि उन्हे न निकाला जाय, तो वे गति मे मन्दता उत्पन्न कर देते है । कभी-कभी पैरो मे विष फैलाते हुए वे पैरो मे चलने की शक्ति सर्वथा नष्ट कर देते हैं। वैसे ही सम्यग्ज्ञानादि ग्रहण करने के पश्चात् अनाभोग, प्रमाद यादि से अतिचार रूप काँटे प्राय लग ही जाते है । उत्त अतिचारो को दूर न किया जाय, तो वे जीव को विराधक बनाकर मोक्ष पहुँचने की गति मे मन्दता उत्पन्न कर देते हैं । कभी-कभी तो वे प्रतिचार, सम्यक्त्व आदि
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१. प्रवेश प्रश्नोत्तरी ५ को पूर्ण नष्ट कर देते हैं। अतः विराधकता और सम्यक्त्वादि के विनाश से बचने के लिए भी प्रतिक्रमण आवश्यक है।
प्र० कायोत्सर्ग किसे कहते है ?
उ० १ अज्ञान, मिथ्यात्व, अव्रत आदि की सामान्य शुद्धि के लिए अथवा २. अनजान में लगे हुए अतिचारो की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप मे नियत कुछ समय तक देह की ममता छोडकर तीर्थंकरो का ध्यान लगाना।
प्र० : कायोत्सर्ग आवश्यक क्यो है ?
उ० मार्ग मे चलते हुए जो कांटे पैर मे लगकर घाव करके घाव के भीतर रहे रक्त को विषाक्त कर देते है, उन काँटो को निकालने के साथ उनके द्वारा किये हुए घाव मे रहे हुए विषाक्त रक्त को निकालने के लिए चमडो को इधर-उधर दबाने से होनेवाले दुख के प्रति ध्यान न देते हुए जैसे चमडी को इधर-उधर दबाना आवश्यक होता है, जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर घाव शुद्ध हो जाय, उसी प्रकार अविवेक असावधानी आदि से लगे अतिचारो से जो ज्ञानादि मे घाव पड़ने के साथ रक्त विषाक्त बन जाता है, उसे निकालने के लिए देह-दुख की ममता छोड़कर कायोत्सर्ग करना आवश्यक है जिससे वह विषाक्त रक्त निकल कर ज्ञानादि के घाव शुद्ध हो जायें।
प्र० प्रत्याख्यान किसे कहते है ?
उ० : १. अज्ञान, अवत, मिथ्यात्व आदि की कुछ विशेष शुद्धि के लिए अथवा २. जानते हुए लगे अतिचारो की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप मे नमस्कार सहित (नवकारसी)
आदि प्रत्याख्यान धारण करना अथवा ३. प्रायश्चित्त न लगने पर भी तप के लाभ के लिए प्रत्याख्यान करना ।
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
८ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २
प्र० . नित्य उभयकाल आवश्यक से क्या लाभ है ?
उ०. १. सामायिकादि आवश्यको का ज्ञान (स्मरण) रहता है। २. 'वे अवश्यकरणीय हैं'-यह श्रद्धा रहती है। ३. यदि व्रत ग्रहण किये हो, तो गृहित व्रतो की स्मृति रहती है, जिससे व्रतो का सम्यक्पालन होता रहता है। ४. यदि व्रत ग्रहण न किये हो, तो व्रत-ग्रहण की भावना होती है। ५. दिन-रात्रि मे कभी भी देव गुरु का स्मरण आदि न हुआ हो, तो कम-से-कम एक दिन-रात्रि में दो बार स्मरण आदि हो जाता है। ६ सम्यक्त्वादि मे लगे अतिचारो की शुद्धि होती रहती है। ७. यदि व्रत ग्रहण न भी किया हो, तो भी पाप के प्रति पश्चात्ताप होता है। ८ स्वाध्याय होता है। इत्यादि नित्य अावश्यक करने मे हमे ई लाभ हैं। हम नित्य आवश्यक करे, तो १ दूसरो को भी आवश्यक का महत्व ध्यान मे पाता है। २. वे भो आवश्यक का ज्ञान करते हैं। ३. इन्हे भी यावश्यक पर श्रद्धा होती है। ४ वे भी देव-स्तव और गुरु-वन्दना करते हैं। ५ वे भी पाप का पश्चात्ताप करते हैं और कदाचित् व्रत धारण भी करते है। इत्यादि हमारे नित्य आवश्यक से दूसरो को भी कई लाभ है।
प्र० जैसे 'दीपावली आदि को घर-दुकान आदि को विशेप साफ किया जाता है, धुलाई-पुताई की जाती है, गत वर्ष के पाय-व्यय का मिलान किया जाता है, लक्ष्मी का विशेष पूजन किया जाता है, घर-दुकान में नई-नई वस्तुएँ वसाई जाती है। वैसे नित्य उभयकाल अावश्यक की अपेक्षा भी कभी विशेष आवश्यक भी किये जाते है क्या? जिससे प्रात्मा की विशेष शुद्धि हो, धार्मिक हानि-लाभ का ज्ञान हो, देव गुरु की विशेष स्तुति-वन्दना हो। अागामी वर्ष के लिए विगेप प्रत्याख्यान हो।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१. प्रवेश प्रश्नोत्तरी [ है उ०: हॉ, कृष्ण और शुक्ल पक्ष के अन्त मे अर्थात् अमावस्या और पूर्णिमा (कभी-कभी चतुर्दशी) के दिन के अन्त मे, वर्षा, शीत और उष्णकाल के चातुर्मास के अन्त मे अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढी पूर्णिमा (कभीकभी चतुर्दशी) के दिन के अन्त मे तथा सवत्सर (वर्ष) के अन्त मे अर्थात् भाद्रपद शुक्ला पंचमी (कभी-कभी चतुर्थी) के दिन के अन्त मे, विशेष प्रावश्यक किये जाते हैं। कई इन दिनो मे देवसिक प्रतिक्रमण के अतिरिक्त पाक्षिक, चातुर्मासिक और सावत्सरिक प्रतिक्रमण स्वतन्त्र रूप से करने की भी मान्यता रखते हैं और कई लोग चातुर्मास और सम्वत्सर के अन्त मे दो प्रतिक्रमण भी करते हैं ।
भास वृद्धि होने पर चातुर्मासिक और सांवत्सरिक (प्रतिक्रमण) कब करने चाहिए?
उ० : जो अधिक मास हो, उसे गौण कर देना चाहिए (गिनना नही चाहिए) और गौरण करके वर्षा आदि किसी भी चातुर्मास मे कोई भी मास क्यो न बढा हो, कार्तिक अथवा द्वितीय कार्तिक पूर्णिमा आदि के दिन के प्रत में प्रतिक्रमण करना चाहिए। संवत्सरी के सम्बन्ध मे तीन मत हैं-१ श्रावण दो होने पर भाद्रपद में प्रतिक्रमण करना और भाद्रपद दो होने पर दूसरे भाद्रपद मे प्रतिक्रमण करना, २ श्रावण दो होने पर भाद्रपद में प्रतिक्रमण करना और भाद्रपद दो होने पर पहले भाद्रपद में प्रतिक्रमण करना, ३. श्रावण दो होने पर दूसरे
इस सम्बन्ध मे वर्षमान श्रमण संघ का नियम पालने वालों को एक प्रतिक्रमण करना चाहिए।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
६] सुवोध जैन पाठम ला--भाग २
प्र० प्रत्याख्यान आवश्यक क्यो है ?
उ० : कुछ काँटे पैर मे घाव करके भीतर के रक्त को इतना विपाक्त कर देते हैं कि उस रक्त को निकालने के साथ घाव पर कुछ लेप की पट्टी भी करना आवश्यक हो जाता है। वैसे ही जानते हए लगे अतिचारो से ज्ञानादि मे घाव पड़ने के साथ रक्त अति विषाक्त बन जाता है। अत उस विषाक्त रक्त को कायोत्सर्ग से निकालने के साथ ज्ञानादि के घावो पर लेप-पट्टो के समान प्रत्याख्यान करना आवश्यक है, जिससे __ ज्ञानादि के कायोत्सर्ग से शुद्ध हुए घाव पूर'जायँ (वन्द हो जायें)।
प्र० आवश्यको का क्रम इस प्रकार क्यो रक्खा गया है ?
उ० सामायिक अर्थात् सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप, ही मोक्ष का मार्ग है, अत वह सबसे मुख्य है-यह बतान के लिए सामायिक को सबसे प्रथम रक्खा गया है।
१ 'मोक्षप्रदायी सामायिक धर्म' को अरिहन्त देव ने प्रकट किया और हमे 'गुरुदेव ने उसे सिखाया । अतः कृतज्ञता की दृष्टि मे 'हम तीर्थकर-रतव और गुस्-वन्दना करे'—यह बताने के लिए क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर चतुर्विंशतिस्तव और वन्दना रक्खी गई है। २ 'हम अपनी सामायिक अाराधना को तीर्थकर स्तव और गुरु-वन्दना करके निर्विघ्न मगलमय वनावे।' इसलिए भी इन्हे दसरा और तीसरा स्थान दिया है। ३ 'पापो का पश्चात्ताप और अतिचारो का प्रतिक्रमण हम अरिहत-साक्षी से और गुरदेव के चरणो मे करे।' इसलिए भी इन्हे दूसरा तीसरा स्थान दिया है। अरिहन्त-साक्षो से हम में पाप-गोपन की भावना दूर होती है और गुरु के चरणो से हम अपने अतिचारो की शुद्धि का मार्ग मिलता है।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१. प्रवेश प्रश्नोत्तरी
[
७
१. 'जिमने सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन पाया, वही सम्यक्तया पाप और धर्म को समझकर अपने पापो का सच्चा पश्चात्ताप-रूप प्रतिक्रमग कर सकेगा'-यह बताने के लिए प्रतिक्रमण का चौथा स्थान रक्खा है। २ 'सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन पाने के बाद या चारो को पाने के वाद प्रायः उनमें अनाभोगादि से अतिचार लगते रहते है।' अत. उन अतिचारो के प्रतिक्रमण के लिए भी प्रतिक्रमण का स्थान चौथा रक्खा है।
__ अनाभोग प्रादि से लगने वाले अतिचारो की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगे बडे अतिचारो की कायोत्सर्ग शुद्धि करता है। इसीलिए कायोत्सर्ग को पाँचवाँ स्थान दिया है तथा अविवेकादि से लगने वाले अतिचारो की अपेक्षा जानते हुए दप आदि से लगे बडे अतिचारो की प्रत्याख्यान शुद्धि करता है। अत प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया है। अथवा प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा अतिचार की शुद्धि हो जाने पर प्रत्याख्यान द्वारा तप-रूप नया लाभ होता है। अत प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया है।
प्र० . ये आवश्यक कब किये जाते है ?
उ० जब भी अनुकूल अवसर (समय) मिले, तभी किये - जा सकते हैं। पर - १. दिन के अन्त मे अर्थात् सूर्यास्त के
पश्चात् और मन्द तारे.दिखने लग जायँ, लाली और प्रकाश मिट जायं-इसके. बीच लगभग एक मुहूर्त मे, २ रात्रि के अन्त मे अर्थात् मन्द तारे दिखने बन्द हो जायें, लाली और प्रकाश प्रारम्भ हो जायें, तब से लेकर सूर्योदय के पहले तक लगभग एक मुहूर्त मे, ये छहो आवश्यक अवश्य करने चाहिएँ ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
८ ] सुवोध जन पाठमाला भाग २
प्र० नित्य उभयकाल आवश्यक से क्या लाभ है ?
उ० · १ सामायिकादि आवश्यको का ज्ञान (स्मरण) रहता है। २ 'वे अवश्यकरणीय हैं'-यह श्रद्धा रहती है। ३. यदि व्रत ग्रहण किये हो, तो गृहित व्रतो की स्मृति रहती है, जिससे व्रतो का सम्यक्पालन होता रहता है। ४. यदि व्रत ग्रहण न किये हो, तो व्रत-ग्रहण की भावना होती है। ५. दिन-रात्रि मे कभी भी देव गुरु का स्मरण आदि न हुआ हो, तो कम-से-कम एक दिन-रात्रि में दो बार स्मरण आदि हो जाता है। ६ सम्यक्त्वादि मे लगे अतिचारो की शुद्धि होती रहती है। ७ यदि व्रत ग्रहण न भी किया हो, तो भी पाप के प्रति पश्चात्ताप होता है। ८ स्वाध्याय होता है। इत्यादि नित्य आवश्यक करने मे हमे कई लाभ हैं। हम नित्य आवश्यक करे, तो १. दूसरो को भी आवश्यक का महत्व ध्यान मे पाता है। २ वे भो आवश्यक का ज्ञान करते हैं। ३ इन्हें भी यावश्यक पर श्रद्धा होती है। ४ वे भी देव-स्तव और गुरु-वन्दना करते है। ५. वे भी पाप का पश्चात्ताप करते हैं और कदाचित् व्रत धारण भी करते है। इत्यादि हमारे नित्य पावश्यक से दूसरो को भी कई लाभ है।
प्र० जैसे 'दीपावली आदि को घर-दुकान आदि को विशेष साफ किया जाता है, धुलाई-पुताई की जाती है, गत वर्ष के पाय-व्यय का मिलान किया जाता है, लक्ष्मी का विशेष पूजन किया जाता है, घर-दुकान मे नई-नई वस्तुएँ नसाई जाती है। वैसे नित्य उभयकाल आवश्यक की अपेक्षा भी कभी विशेष प्रावश्यक भी किये जाते हैं क्या? जिससे प्रात्मा की विशेष शुद्धि हो, धार्मिक हानि-लाभ का ज्ञान हो, देव गुरु की विशेप स्तुति-वन्दना हो। अागामी वर्ष के लिए विशेप प्रत्याख्यान हो ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - १. प्रवेश प्रश्नोत्तरी
[ S उ० : हॉ, कृष्ण और शुक्ल पक्ष के अन्त मे अर्थात् अमावस्या और पूर्णिमा ( कभी - कभी चतुर्दशी) के दिन के अन्त मे, वर्षा, शीत और उष्णकाल के चातुर्मास के अन्त मे अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और श्राषाढी पूर्णिमा ( कभीकभी चतुर्दशी) के दिन के अन्त मे तथा सवत्सर (वर्ष) के अन्त मे अर्थात् भाद्रपद शुक्ला पंचमी ( कभी-कभी चतुर्थी) के दिन के अन्त में, विशेष यावश्यक किये जाते हैं। कई इन दिनो मे देवसिक प्रतिक्रमण के अतिरिक्त पाक्षिक, चातुर्मासिक और सावत्सरिक प्रतिक्रमण स्वतन्त्र रूप से करने की भी मान्यता रखते हैं और कई लोग चातुर्मास और सम्वत्सर के अन्त मे दो प्रतिक्रमण भी करते हैं t
प्र० मास वृद्धि होने पर चातुर्मासिक और सांवत्सरिक ( प्रतिक्रमण ) कब करने चाहिएँ ?
उ० : जो अधिक मास हो, उसे गौण कर देना चाहिए ( गिनना नही चाहिए) और गौरण करके वर्षा आदि किसी भी चातुर्मास मे कोई भी मास क्यो न बढा हो, कार्तिक अथवा द्वितीय कार्तिक पूर्णिमा आदि के दिन के अंत में प्रतिक्रमण करना चाहिए । सवत्सरी के सम्वन्ध मे तीन मत हैं-१ श्रावरण दो होने पर भाद्रपद मे प्रतिक्रमण करना और भाद्रपद दो होने पर दूसरे भाद्रपद मे प्रतिक्रमण करना, २ श्रावरण दो होने पर भाद्रपद मे प्रतिक्रमरग करना और भाद्रपद दो होने पर पहले भाद्रपद में प्रतिक्रमण करना, ३. श्रावण दो होने पर दूसरे
इस सम्बन्ध मे वर्धमान श्रमण संघ का नियम पालने वालों को एक प्रतिक्रमरण करना चाहिए ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
१० ] सुर्वाध जन पाठमाला-भाग २ श्रावण मे प्रतिक्रमण करना और दो भाद्रपद होने पर पहले भाद्रपद मे प्रतिक्रमण करना।
इनमे से पहला मत 'चातुर्मासिक प्रतिक्रमण मे जैसे अधिक मास गौरण किया जाता है', वैसे ही दूसरा मत 'सवत्सरी प्रतिक्रमण मे भी अधिक मास गौरण करना, इस मान्यता को लेकर चलने वालो का है। और तीसरा मत 'वर्षावास प्रारम्भ होने के पश्चात् ४६-५०वे दिन संवत्सरी करना' इस मान्यता वालो का है।
प्र० दूसरो की संध्याआदि में (संध्यापाठ आदि मे) और हमारे आवश्यक मे क्या अन्तर है ? .. उ० दूसरे लोगो की सध्या आदि में केवल ईश्वर-स्मरण
और प्रार्थना आदि की मुख्यता रहती है, अपने ज्ञानादि धर्मों की स्मृति तथा अपने, पापो के प्रतिक्रमण की मुख्यता नहीं रहती, पर हमारे आवश्यक मे अपने ज्ञानादि धर्मों की स्मृति तथा अपने पापो की प्रतिक्रमण की मुख्यता है, जो अन्तरग दृष्टि से (उपादान दृष्टि से) अधिक आवश्यक है। इसलिए हमारा आवश्यक उपयुक्त और बढ़कर है।
प्र० : सूत्र किसे कहते हैं ? '
उ० लोक मे सूत को सूत्र कहते हैं, जिसमें माली बाग के फूल पिरोता है या मणियार मरिण-मोती पिरोता है। 'पर यहाँ धार्मिक क्षेत्र मे गणधरो की शब्द-रचना को 'सूत्र' कहते
इस सम्बन्ध मे वर्धमान श्रमण संघ का नियम पालने वालों को.- पहले मत के अनुसार प्रतिक्रमण करना चाहिए।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग- प्रवेश प्रामोतारी ...itaine: हैं, जिसमे गणधर, भगवान् की आज्ञा, उपदेश, मत रूप-रत्नो को गूंथते है।
जयपुर प्र०: श्रावक अावश्यक सूत्र किसे कहते ही
उ० जिसमे श्रावक-श्राविकाओ को सर्वप्रथम अवश्य जानने योग्य और नित्य दोनो सध्यायो, को अवश्य करने योग्य, तीर्थकरो द्वारा बताए हुए सामायिकादि छह आवश्यक गणधरो ने गुंथे हो, उसे 'आवश्यक सूच' कहते हैं।
प्र० : आवश्यक सूत्र का प्रसिद्ध दूसरा नाम क्या है ? उ० प्रतिक्रमण सूत्र । प्र० आवश्यक सूत्र को प्रतिक्रमण सूत्र क्यो कहते हैं ?
उ० . क्योकि आवश्यक सूत्र के छह आवश्यको में प्रतिक्रमण सूत्र अक्षर प्रमाण मे सबसे बड़ा है ।
प्र० : वर्तमान मे आवश्यक सूत्र से कितने प्रावश्यक लिए जाते हैं ? '
उ० वर्तमान में सामायिक सूत्र और प्रतिक्रमण सूत्रयों प्राय आवश्यक दो भागो मे बाँटा जाता है। सामायिक सूत्र मे १. सामायिक और २. चतुर्विशतिस्तव-ये दो आवश्यक दिये जाते हैं। शेष ३. बदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग और ६. प्रत्याख्यान-ये चार आवश्यक प्रतिक्रमण सूत्र मे दिये जाते है।
पहली पाठमाला के सूत्र-विभाग मे दो आवश्यक दिये जा चुके है, इसमे शेष चार आवश्यक दिये जायेंगे।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
पाठ २ दूसरा
पहला आवश्यक
विधि : मुनि-स्थान, पौषधशाला आदि निरवद्य स्थान मे पहले सामायिक करे। यात्रा आदि का आगार। फिर क्षेत्र विशुद्धि (चउवीसत्थव) करे, इसकी विधि-'तिक्खुत्तो से तीन बार वन्दना करे, फिर इच्छाकारेण तस्सउत्तरी बोलकर दो लोगस्स का ध्यान करे। नमस्कार मत्र से कायोत्सर्ग पार कर ध्यान पारने का पाठ कहे, फिर प्रकट एक लोगस्स कहकर दो 'नमोत्थुण दे।' यो क्षेत्र-विशुद्धि करके तिक्खुत्तो से तीन बार गुरुदेव को या पूर्व-उत्तर दिशा मे भगवान् को वदना करके 'प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने (ठाने) की आज्ञा है।' कहकर प्रतिक्रमण प्रारभ की आज्ञा ले। 'सुनने वाले, सुनानेवाले के प्रति आपकी निश्रा है।' कहकर निश्रा ग्रहण करे। सुनाने वाला सुननेवालो के प्रति 'कीजिए।' कहकर निश्रा की स्वीकृति दे। फिर खडे रहकर हो यह पाठ कहे
१. 'इच्छामि रणं भन्ते' प्राज्ञा का पाठ इच्छामि रणं : मै चाहता हूँ (रण वाक्य अलकार मे) भते !
: हे भगवन् ! (हे पूज्य ) तुन्भेहि
: आपके द्वारा अन्भणुण्णाए समारणे : आज्ञा मिलने पर देवसियां
: दिन सबधी
जिहां-जहाँ 'वेवसिय' शब्द प्रावे, वहाँ वहाँ रात्रिक (प्रात ) प्रतिक्रमण में 'राइय', पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'देवसिपंपक्खियं'. चातुर्मासिक
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्किमरग ठाएमि ।
सूत्र-विभाग- २. 'इच्छा मिरणं भते' प्रश्नोत्तरी
: प्रतिक्रमण (आवश्यक) को
: करता हूँ ।
कायोत्सर्ग प्रतिज्ञा
देवसिय । १- २. गाण - दंसण ३. चरित्ताचरित
४ तव
अइयार चिन्तवत्थं
करेमि काउसग्ग ।
[ १३
: दिन सबधो ज्ञान दर्शन | सम्यक्त्व )
चारित्राचारित्र ( श्रावक का देश
चारित्र )
: और तप के ( सब ह ह )
: अतिचारो का
: चिन्तन करने के लिए
: करता हूँ, कायोत्सर्ग को
प्रश्नोत्तर
प्र० क्षेत्र - विशुद्धि किसे कहते है ?
उ० किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले उसके लिए भूमिका का शुद्धि करना । जैसे धोबी वस्त्र धोने से पहले
प्रतिक्रमण मे 'देवसिय चाउम्मासियं' तथा सावत्सरिक प्रतिक्रमण मे 'देवसिय सवच्छारिय' बोलें। दो प्रतिक्रमरण करने वाले चातुर्मासान्त के दिन पहले प्रतिक्रमण मे 'देवसिय तथा दूसरे प्रतिक्रमरण मे 'चाउम्मासियं' बोलें । इसी प्रकार सवत्सरान्त मे पहले मे 'देवसियं' तथा दूसरे मे 'संवत्सरिय' बोलें । इसी प्रकार 'देवसिय', देवसिप्रो और 'देवसियाए' के स्थान पर 'राइय' 'राइनो' और 'राइयाए' श्रावि बोलें 1
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४ ]
सुवोध जन पाठमाला-भाग.२ शिला की शुद्धि करता है, वैसे हो प्रतिक्रमण करने से पहले चउवीसत्थव करके 'क्षेत्र-विशुद्धि' की जाती है।
प्र. निश्रा किसे कहते हैं ?
उ० · जिन्हे प्रतिक्रमण कठस्थ न हो, जो उसके भाव व विधि आदि को न जानते हो, वे, (जानते भी हो, तो भी) 'हमारे पाप निष्फल हो'-इस भावना को लेकर प्रतिक्रमण करने वाला 'जो कुछ शब्दोच्चारण करे, वह हमारे लिए भी हो।' इस आशय से प्रतिक्रमण करने वाले का आश्रय ग्रहण करे, उसे निश्रा कहते हैं ।
प्र० श्रावक के देश-चारित्र को चारित्राचारित्र क्यो कहते हैं ?
उ० वह कुछ चारित्र ग्रहण करता है, और कुछ नही-- इसलिए।
प्र० . पालोचना किसे कहते है ?
उ० 'मेरे धर्म मे कोई अतिचार लगा या नहीं? यदि लगा हो, तो उसे दूर करूँ।' इस विचार से १. अपने अतिचारो को, २. शुद्ध भाव से, ३ सम्यक्तया (धीरे-धीरे गहराई पूर्वक) देखने को यहाँ 'पालोचना' कहा है
प्र० : अतिचार किसे कहते है ?
उ० : धर्म मे कुछ दोष लगाने को। १. दर्प (विना कारण जान-बूझकर व्रत तोडने की बुद्धि) से, २. प्रमाद (जत के प्रति अनादर, अविवेक, विषय-भोग मे रुचि आदि) से तथा ३. प्रद्वेष (कपाय की तीव्रता) से धर्म मे कुछ दोष लगाना तीव्र पतिचार है और पूरा दोष लगा देना अनाचार है।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३. 'इच्छामि ठाएमि' [ १५ १. अनाभोग (प्रत्याख्यान की स्मृति न रहना, 'ऐसा करने से व्रत मे दोष लगता है'- इसका ज्ञान न होना, मैने जो प्रत्याख्यान लिया है, 'उसमें इसका भी त्याग सम्मिलित है'इसका भान न होना आदि) से तथा २ सहसाकार (प्रत्याख्यान की रक्षा करने की भावना और प्रवृत्ति होते हुए भी अकस्मात् 'बलात्कार हो जाना आदि) से व्रत मे केवल मन्द अतिचार लगता है। इन दोनो से अनाचार नहीं होता।
शेष आतुरता (भूख-प्यास आदि से अत्यन्त पीडित हो जाने) से, २ आपत्ति (रोग आदि) से, ३. शंका (ऐसा करने से मेरे प्रत्याख्यान मे अतिचार लगेगा या नही-ऐसे सदेह) से, ४ भय (देवादि के भय) से तथा ५. विमर्श (किसी की परीक्षा के लिए अपने प्रत्याख्यान के प्रति गौरणता आ जाने से) प्रत्याख्यान मे कुछ दोष लगाना मध्यम अतिचार है और पूरा दोष लगा देना कभी तीन अतिचार होता है, तो कभी अनाचार भी हो जाता है।
- प्र० . अतिचारो का प्रायश्चित्त बताइये।
उ० मन्द अतिचार का प्रायश्चित्त 'हार्दिक पश्चात्ताप' 'मिच्छा मि दुक्कड' है। मध्यम और 'तीव्र अतिचारो का ‘प्रायश्चित्त नवकारसी (नमस्कार सहित) आदि है। "अनाचार के पश्चात् पुनः व्रत लेना पडता है ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
पाठ ३ तोसरा 'इनहामि ठाएमि संक्षिप्त प्रतिक्रमण'
विधि : 'इच्छामि र भो' के पश्चात् वदना करके-'पहले सामायिक आवश्यक की आज्ञा है'-कहकर पहले आवश्यक की आज्ञा ले। फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप सबंधी सभी प्रत्याख्यानो की स्मृति के रूप मे 'करेमि भते' पढे। यहाँ पहला आवश्यक समाप्त हो जाता है, पर आगामी चौथे अावश्यक की भूमिका के लिए इसी अावश्यक मे निम्न 'इच्छामि ठामि' का पाठ पढ़ें। फिर 'तस्स उत्तरो' कहकर कायोत्सर्ग करे। जैसे धोबी वस्त्र धोने से पहले 'वस्त्र मे कहाँ-कहाँ मैल लगा है' यह ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वस्त्र-शुद्धि उत्तम होती है, वैसे ही आगामी प्रतिक्रमण के लिए 'दिन आदि मे क्या-क्या अतिचार लगे हैं'- यह जानने के लिए कायोत्सर्ग मे ६६ अतिचार और समुच्चय १८ पाप का चिन्तन करे। अतिचारचिन्तन के लिए चौथे आवश्यक के 'पागमे तिविहे' से लेकर 'सलेखना' तक के १५ पाठो मे अतिचार अश वाले पाठ कहे। मिश्रित प्रतिक्रमण करने वाले कायोत्सर्ग मे अर्थ-प्रधान अतिचार मे पाठ पढते हैं और चौथे आवश्यक मे अन्तिम बार मूल-प्रधान अतिचार पाठ पढ़ते है। मूल-प्रधान प्रतिक्रमण वाले सर्वत्र मूल-प्रधान अतिचार पाठ पढते हैं और अर्थप्रधान प्रतिक्रमण वाले सर्वत्र अर्थ-प्रधान अतिचार पाठ पढते हैं। (१८ पाप के पश्चात् कई 'इच्छामि ठामि' भी ज विराहिय' तक पढने है) जिन्हे पाठ कठस्थ न हो, वे ८ लोगस्म या प्रति लोगस्म ४ नमस्कार मत्र के गणित से ३२ नमस्कार
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३. 'इच्छामि ठाएमि' [ १७ मंत्र पढ़ें, उसके पश्चात् नमस्कार मत्र पढकर कायोत्सर्ग पारें और प्रकट एक नमस्कार मत्र और ध्यान पारने का.पाठ कहे।
इति पहला प्रावश्यक समाप्त ।
कायोत्सर्ग प्रतिज्ञा
इच्छामि ठाएमि (ठाइड) काउस्सग्गं।
: मैं चाहता हूँ : करना : कायोत्सर्ग।
अतिचार आलोचना
जो मे
: (निम्न अतिचारों में से) मुझे जो
कोई
देवसिप्रो अइयारो को १ काइयो २ वाइनो ३. माररासिनो २ उस्सुत्तो उम्मग्गो १ प्रकप्पो प्रकररिणज्जो
: दिन संबधी : अतिचार लगा हो (तो आलोउ) : काया सबंधी अतिचार लगा हो : वचन सबधी अतिचार लगा हो : मन सबंधी अतिचार लगा हो : वचन से उत्सूत्र (सूत्र-विरुद्ध) कहा हो : उन्मार्ग (जैन-मार्ग-विरुद्ध) कहा हो : (काया से) अकल्पनीय कार्य किया हो : अकरणीय ( नहीं करने योग्य )
किया हो : (मन से सतत) आर्त रौद्र ध्यान
ध्याया हो : कभी-कभी दुष्ट चिन्तन किया हो, (यों : वचन काया से) अनाचार किया हो
३. दुज्झायो
दुन्विचितिम्रो प्रणायारो
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ परिणच्छियव्वो : (मन से) अंनिच्छनीय इच्छा की हो असावग-पाउंग्गो : (यो) श्रावक' 'धर्म विरुद्ध' काम
किया हो १. गाणे तह २. दसरणे : (करके) ज्ञान तथा दर्शन मे ३. चरित्ताचरिते चारित्राचारित्र (श्रावक व्रत) मे १. सुए
: (दूसरे शब्दो मे) श्रुत (ज्ञान) मे - २. ३. सामाइए : सामायिक (दर्शन तथा श्रावक व्रत) में
अतिचार लगाया हो। तिण्हं गुत्तीणं : तीन गुप्तियाँ न की हो चउण्हं कसायारणं : चार कपायें की हो। पंचण्हमगुब्वयारणं : पाँच अणुव्रतो का तिण्हं गुररावधारणं : तीन गुणवतो का चउर्जा
: चार शक्षांवतो का सिक्खावयारणं (इस प्रकार ५+३+४=१२) बारस-विहस्म : वारह प्रकार के सावग-धम्मस्स श्रावक धर्म की ज खंडिय ': जो (कुंछ) खडना की हो जं विराहियं : जो (अधिक) विराधना की हो
अतिचार प्रतिक्रमण तस्स मिच्छामि दुक्कडं उसका मेरा पाप निष्फल हो।
प्रश्नोत्तर प्र०': अणुव्रत किसे कहते हैं ? उ० : जो महाव्रतो की अपेक्षा अणु अर्थात् छोटे हों। प्र०: गुरणवत किसे कहते हैं ?
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-४ दूसरा- तीसरा श्रावश्यक
[ १६
उ०. जो प्रमुव्रतो को गुरण अर्थात् लाभ पहुँचाते हो ।
प्र० : शिक्षाव्रत, किसे कहते है ?
उ० योग्य हो ।
जो बारबार शिक्षा अर्थात् अभ्यास करने
पाठ ४ चौथा... दूसरा-ज़ीसरा आवश्यक
- विधि : पहले आवश्यक की समाप्ति पर वंदना करके ' पहला सामायिक आवश्यक पूरा हुआ। दूसरे 'चतुर्विंशतिस्तव' आवश्यक की आज्ञा है' कहकर दूसरे प्रावश्यक की आज्ञा ले । आज्ञा लेकर १ बार चतुर्विंशतिस्तव का पाठ 'लोगस्स' कहे । इति दूस 1 प्रावश्यक, समाप्त ।
T
I
समाप्ति पर वदना करके पहला सामायिक तथा दूसरा चतुर्विंशतिस्तव ये दो आवश्यक पूरे हुए। तीसरे वदना आवश्यक की श्राज्ञा है' -- कहकर तीसरे आवश्यक की आज्ञा लें । आज्ञा लेकर दो बार निम्नं पाठ पढ़ें 1
इति तीसरा - प्रावश्वक समाप्त ।
J
'इच्छामि खमासमरणो' पढ़ने की विधि
गुरु के समक्ष या पूर्व, उत्तर या ईशान कोण मे अपने आसन को छोड़कर खड़े रहकर, हाथ जोड़कर और शीश
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
२० ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ भुकाकर 'निसीहि तक पाठ पढे तथा यदि गुरुदेव हो, तो निसीहि उच्चारण के साथ उनकी चारो ओर की देहप्रमाण ३॥ हाथ भूमि मे प्रवेश करे। फिर दोनो घुटनो के बल बैठकर दोनो घुटनो के बीच दोनो हाथो को जोडे। यो-गर्भस्थ शिशु के समान विनीत वज्रासन से बैठकर 'अ' का उच्चारण मन्द स्वर से करते हुए दोनो हाथो को लम्बा करके-गुरु-चरण को क्लामना न पहुँचे-इस प्रकार विवेक से गुरु के चरण का स्पर्श करे। यदि गुरुदेव न हो, तो चरण-स्पर्श की भावना करते हुए भूमिस्पर्श करे। फिर 'हो' का उच्च स्वर से उच्चारण करते हुए दोनो हाथो से अपने शिर का स्पर्श करें। इसी प्रकार 'का-य' तथा 'का-य' मे उच्चारण और चरण-शिर स्पर्श करे। 'सफास' कहते हुए गुरु के चरणो मे मस्तक का भी स्पर्श करें। इस प्रकार तोन आवर्तन और एक शिर का झुकाव हुग्रा।
उसके पश्चात् 'खमरिणज्जो' से 'दिवसो वइक्कतो' तक सामान्यतया पाठ पढ़ें। फिर १. ज-त्ता-भे, २ ज-व-णि, ३. ज्ज-च-भे, मे इन तीन अक्षर-समूह मे से पहले-पहले अक्षर का पहले के समान मन्द स्वर से उच्चारण करते हुए गुरु-चरण स्पर्श करे। दूसरे-दूसरे अक्षर का मध्यम स्वर से उच्चारण करते हुए हाथो को भूमि और शिर के बहुमध्य मे पल भर रोके । फिर तीसरे-तीसरे अक्षर का उच्चस्वर से उच्चारण करते हुए स्वय का शिर स्पर्श करे। पश्चात् गुरु के चरणो मे मस्तक मुकावे। यो दूसरे तीन श्रावर्तन और दूसरा शिर का भुकाव हुआ।
उसके पश्चात् 'खामेमि' से 'पडिकमामि' पाठ.सामान्यतया पड़े। यास्त्रियाए परिकमामि' कहते हुए खड़े हो जायें
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-४ "इच्छामि खमासमणो' का पाठ [ २१
और गुरु की भूमि मे प्रवेश किये हुए हो, तो बाहर निकल जाये।
दूसरी बार भी इसी प्रकार पढे । मात्र अन्तर यही है कि दूसरी बार मे 'पावस्सियाए पडिकमामि' न कहे, खडे न हो, बाहर भी न निकले।
दोनो खमासमरणो मे सब आवर्तन बारह, शिर झुकाव चार, प्रवेश दो और निकलना एक बार होता है।
३ 'इच्छामि खमासमणों' उत्कृष्ट वन्दन का पाठ
वन्दन अनुमति इच्छामि
: मै चाहता हूँ। खमासमरणो!
: हे, क्षमा ( आदि १० धर्म युक्त )
श्रमण । वंदिउं
: . उत्कृष्ट) वन्दना करना। • जावरिणज्जाए : (घुटने आदि की) शक्ति के अनुसार। निसीहियाए। : अपने योगो को पाप-क्रिया से हटा कर
(आपकी परिमित भूमि मे प्रवेश
करके।) अणुजारणह मे मुझे आज्ञा (स्वीकृति) दीजिए। मिउग्गह। : आपकी परिमित भूमि मे प्रवेश की।
चरण-स्पर्श, क्षमा-याचना व शाता-समाधि प्रश्न निसीहि
: पाप-क्रिया से हट कर (तथा परिमित
भूमि मे प्रवेश करके वज्रासन से)।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२ ]
सुबोध जैन पाउमाला- भाग २ अहो-कायं
: आपके (दोनो)चरणों का मैं अपने काय-सफासं : मस्तक और हाथो से स्पर्श करता हूँ। खमरिगज्जो, भे : क्षमा करे, जो आपको किलामो
: (मेरे स्पर्श से) क्लामना हुई। अप्पाकलंतारणं : बिना देहग्लानि रहे। १ बहु सुभेणं : बहुत शुभ (सयमी क्रियाओ) से भे दिवसो वइक्कन्तो . आपका दिन बीता ? २ जत्ता भे? : आपकी (सयम) यात्रा (निधि) है? ३ जवरिगज्जं च भे? : और आपका शरीर व इन्द्रियाँ
स्वस्थ हैं ? खामेमि
: खमाता हूँ (क्षमा-याचना करता हूँ) खमासमरणो ! . हे क्षमा-श्रमण । देवसिन वइक्कम : दिन सम्बन्धी अपराध को ।। प्रावस्सियाए : अापकी परिमित भूमि से बाहर पडिक्कमामि
निकलता हूँ (और खडे होकर)
अाशातना की क्षमा-याचना व प्रतिक्रमण
खमासमगारणं देवसियाए प्रासायरगाए
: पाप क्षमा-श्रमण की : दिन सम्बन्धी : पाशातना द्वारा
रामि प्रतिक्रमरा मे 'राइवइपकता' पाक्षिक 'प्रतिक्रमण' मे दिवसो परलो यदक्कतो', चातुमासिक प्रतिक्रमण मे एकबाले 'दिवसो वडवकतो चासम्मास यइरकत' दो वाले दूसरे में मात्र 'चाउम्मास बहरकत' सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मे एक वाले दिवसो समच्छरो वरुन्तो' तथा दो वाले वृसरे से मात्र 'संवञ्चरो वइक्कतो' कहें।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
सूत्र-विभाग-४: 'इच्छामि खमासमरणों को-पाठ
२३ .
• तित्तीसन्नयराए : तैतीस में से किसी भी ज किचि
:: जो 'जिस किसी मिच्छाए
: मिथ्या-भाव से की हुई मरण-दुक्कडाए : मन से दुष्ट विचार से की हुई वय-दुक्कडाए - : वचन से दुष्ट कथन से की हुई कार्य-दुकडाए “काया से दुष्ट आसन से की हुई कोहाए मारणाए : क्रोध से की हुई, मान से को- हुई मायाए लोहाए : माया से की हुई, लोभ से की हुई सव्वकालियाए : (इसी प्रकार) सब काल मे की हुई सव्व मिच्छोवयराए · : सब मिथ्या' पाचरणो से पूर्ण । सव्वधम्मा - : सभी' ( क्षमादि धर्म वाले की विनय इक्कमगाए
: मर्यादा) का अतिक्रमण करने वाली प्रासायरगाए ': पाशातना से जो मे देवसियो - : मुझे जो कोई दिन सम्बन्धी श्रेइयारो को ? अतिचार लगा हो तो तस्सं खमासमरणो! : उमका, हे क्षमा-श्रमण । प्रडिक्कमामि : प्रतिक्रमण करता हूँ निदामि
: निन्दा करता हूँ गरिहामि
: विशेष निन्दा करता हूँ अप्पारणं वोसिरामि। : (अपनी आशातना करनेवाली पापी)
आत्मा को वोसिराता (त्यागता) हूँ।
शिक्षाएं
१ वन्दन करते समय कोई पाप-क्रिया न करते हुए पाँच अभिगमन संहित वदन करना चाहिए। २. शरीर मे शक्ति व धुटनो में बल आदि रहते हुए विधिवत् अंग झुकाते हुए
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुबोध जैन पाठमाला-भाग २
नकट जाकर वदन करने की
ता रहते हुए गुरदेवो
से स्पर्श अवश्य करना चाहिए।
स प्रकार करना चाहिए,
। कष्ट पहुँच जाता है, अतः
। चाहिए। ६ थोड़
क्षमा-याचना करनी चाहिए।
जसे उन्हे गोचरी-पानी सुलभ
मदन करना चाहिए। ३ यदि निकट जाकर वदन प्रयगर न हो, नो साढे तीन हाथ शरीर-प्रमाण दूर करना चाहिए। ४. वदना के साथ अनकलता रहत हुए
दरगा का हाथ और मस्तक से स्पर्श अवश्य कर , वदन या चरण स्पर्श ग्रादि इस प्रकार करना जियग गुमंद्रव का कष्ट न पहुँचे। भ
व का कष्ट न पहँचे। भीड के समय धक्का-मुक्का करता था बदन करने से गुरुदेव को कष्ट पहुँच जा एम ममय बहन शाति और धैर्य रखना चाहिए। भी कर पचत ही तत्काल क्षमा-याचना कर ७. बदना करने के पश्चात् उनके संयम और १
के पश्चात् उनके संयम और शरीरादि सुख दुख का जानकारी करनी चाहिए-जैसे उन्हे गचिरा द या नहीं? ग्राहार-पानी पारणा आदि कि प्रवामादि तपश्चर्या मानि मे हो रही है या
पानी पारणा आदि किया या नहीं' गेर स्वम्य है या नही? ग्रोपधि आदि का सयोग । नहीं ? त्यादि बारें भी पूछनी चाहिए तथा सके, वह म्बय को करना भी चाहिए। याद कार्य न बन सके, तो जो उसके लिए समर्थ हो, उस गुदेव की सेवा की दलाली का लाभ उठाना चाहि ८ दिवम में या किसी भी समय किसी भी प्रकार से गुरुदेव भायातना दुई हो, तो उसकी क्षमायाचना करनी चाहिए। ६ गुरुदेव के मामने मिय्या-टपना
मिय्या-उपचार प्रादि नही करना चाहिए। प्र० तीन वदना बतायो।
उ० 'मन्यएगा वदामि'-यह लघु वन्दना है। क्याकि बाद थोडे है तथा यह केवल हाय जोड़कर तथा मस्तक मकाकर की जाती है। यह वन्दना प्रार
'दना प्राय गुत-दर्शन होते समय की जाती है। तिवावुत्ता मध्यम वाहै, क्योकि
7 में हो रही है या नही ? उनका
वि अादि का सयोग मिला या मा पूछनी चाहिएँ तथा जो स्वय से वन भी चाहिए। यदि स्वय से कोई
' समर्थ हो, उसे सूचित कर
कार से गुरुदेव की
सबसे पहले की जाती है। तिकार
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-५. धर्म की आवश्यकता [ २५ इसमे शब्द मध्यम तथा यह पचांग मुकाकर की जाती है। . 'इच्छामि खमासमणो' दोनो से शब्द और क्रिया दोनो मे बढकर है। इसलिए उसे उत्कृष्ट वन्दना कहते है।
पाठ ५ पांचा
धर्म की आवश्यकता
अज्ञान से मिथ्यात्व उत्पन्न होता है। मिथ्यात्व से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष से आत्मा के साथ कर्म बन्ध होता है। कर्म से आत्मा के साथ देह-संयोग होता है और देह के जन्म-मरण से प्रात्मा को दुःख होता है। उस दुख को नाश करना धर्म का उद्देश्य है और उस दुख का नाश होकर आत्मा को अनंत और एकांत सुखमयं मोक्ष की प्राप्ति होना धर्म का फल है।
दुःख-विनाश के लिए आत्मा के साथ संयुक्त देह का आत्मा से वियोग होना आवश्यक है। देह-वियोग के लिए कर्म-बन्धन का छूटना आवश्यक है। कर्म-बन्धन छूटने के लिए राग-द्वेष का नष्ट होना आवश्यक है। राग-द्वेष के नाश के लिए मिथ्यात्व का दूर होना आवश्यक है और मिथ्यात्व को दूर करने के लिए अज्ञान को हटाना आवश्यक है।
इस कार्य को धर्म अपने चार भेद-१. सम्यग्ज्ञात, २. सम्यग्दर्शन, ३. सम्यक्चारित्र और ४ मम्यक्तप द्वारा पूर्ण करता है। सम्यग्ज्ञान अजान को हटाता है और सम्यग्दर्शन
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ ]
सुबोध जैन पाठमाला--भार्ग २.
मिथ्यात्व को दूर करता है। सम्यक्चारित्र राग-द्वेष को नष्ट करता है और सम्यक्तप कर्म-बन्धन को तोडता है। कर्म-बन्धन के सर्वथा क्षय से तत्काल आत्मा देह से पृयक हो जाती है और उस दु ख मूल देह से पृथक् होकर अनत और एकांत सुखमय मोक्ष को प्राप्त कर लेती है।
इसीलिए जो भी प्राणी दुख का नाश करके अनत सुख और एकांत सुख चाहते हैं, उनके लिए धर्म आवश्यक है। उसी धर्म का ही आगामी चौथे आवश्यक मे वर्णन किया जायेगा।
मोक्ष अनंत सुखमय कैसे है और एकात सुखमय कैसे है ? - यह बता देना अधिकत. वाणो से परे की बात है। फिर भी जिनेश्वरों ने उपमा आदि के द्वारा उसके सम्बन्ध मे पर्याप्त प्रकाश दिया है। इतना होते हुए भी यदि किन्हीं को मोक्ष-सुख समझ मे न आवे और वें. भौतिक सुख मे ही सुखानुभव करे, तो उनके लिए भी धर्म क्रिया लाभदायी ही है। क्योकि वह ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म को दूर करके ज्ञान-शक्ति देती है। अमाता वेदनीय को दूर करके विषय-सुख और मन-वचन-काया के सुख देती है। मोहनीय को मन्द करके पुरुषत्व देती है। अशुभ आयुष्य दूर करके शुभ और दीर्घ आयुष्य (जीवन) देती है। अशुभ नाम दूर करके श्रेष्ठ गरीर देती है। अशुभ गोत्र दूर करके धनादि-ऐश्वर्य प्रदान करती है और अन्तराय दूर करके ऐश्वर्यादि की प्राप्ति मे आने वाली बाधायो को दूर करती है। धर्मक्रिया के प्रताप से प्रात्मा भावी 'जन्म मे इन्द्र और चक्रवर्ती आदि के सुख प्राप्त करती है। इस प्रकार जो प्राणी भौतिक सुख चाहते हैं, उनके लिए भी धर्म की क्रिया आवश्यक है।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग-५ धर्म की आवश्यकता
[ २७
__ यद्यपि हमारे सामने प्रत्यक्ष ही एक दूसरा तिर्यञ्च लोक और कर्मो के फल-रूप जीवो की विभिन्नता तो विद्यमान है ही, फिर भी यदि किन्ही को परलोक के अस्तित्व पर और कर्मवाद पर विश्वास न हो, तो उनके लिए भी स्थूल अहिसा, स्थूल सत्य, स्थूल अचौर्य, स्थूल ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण आदि लाभदायी हैं ही। जिस लोकनीति या राज्यनीति मे इनका समावेश नही होता, वे लोकनीतियाँ तथा राजनीतियाँ इस लोक का सुख नहीं दे पाती।' युद्ध, अविश्वास, चोरी, बलात्कार और विषम सामाजिक स्थिति आदि के दुख और भय को दूर करने के लिए लोकनीति और राज्यनीति मे भो स्थूल अहिंसा आदि की आवश्यकता है ही। अत जो प्राणो इहलोकिक सुख चाहते है, उनके लिए भी धर्म क्रिया आवश्यक है।
भगवान महावीर ने अपना धर्म मुख्यत मोक्ष-प्राति के लिए ही प्रकट किया और मोक्ष-प्राप्ति के लिए धर्म करने वालो को ही धार्मिक माना है, परन्तु भगवान् ने, जो लोग पारलौकिक या इहलौकिक भौतिक सुख चाहते हैं, उनको भी आह्वान किया है कि प्राणियो । जिस हिंसा आदि अधर्म से आप सुख पाना चाहते हो, वह आपको सुख नही दे सकता । अत आप धर्म को शरण आओ | वह आपको इच्छित सुख देगा ।
मेरा पाठकों से आग्रह है कि-'वे अागामी चौथा आवश्यक का अध्ययन तो करे ही, साथ ही धर्म के वास्तविक उद्देश्य को समझकर धर्म को स्वीकार भी करे।'
यदि आप धर्म के वास्तविक उद्देश्य को न समझ सकें, तो भी आप चाहे पारलौकिक या इहलौकिक सुख के लिए सही,
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ ।
सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ मिथ्यात्व को दूर करता है। सम्यक चारित्र राग-द्वेष को नष्ट करता है और सम्यक्तप कर्म-बन्धन को तोडता है। कर्म-वन्धन के सर्वथा क्षय से तत्काल प्रात्मा देह से पृयक हो जाती है और उस दु ख मूल देह से पृयक् होकर अनत और एकांत सुखमय मोक्ष को प्राप्त कर लेती है ।
इसीलिए जो भी प्राणी दुख का नाश करके अनंत सुख और एकात सुख चाहते है, उनके लिए धर्म आवश्यक है। उसी धर्म का ही आगामी चौथे आवश्यक मे वर्णन किया जायेगा।
मोक्ष अनंत सुखमय कैसे है और एकात सुखमय कैसे है ?यह बता देना अधिकत. वारणो से परे की बात है। फिर भी जिनेश्वरों ने उपमा आदि के द्वारा उसके, सम्बन्ध मे पर्याप्त प्रकाश दिया है। इतना होते हुए भी यदि किन्हीं को मोक्ष-सुख समझ मे न आवे और वे. भौतिक सुख में ही सुखानुभव करे, तो उनके लिए भी धर्म क्रिया लाभदायी ही है। क्योकि वह ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म को दूर करके ज्ञान-शक्ति देती है। अमातो वेदनीय को दूर करके विषय-सुख और मन-वचन-काया के सुख देती है। मोहनीय को मन्द करके पुरुषत्व देती है। अशुभ आयुष्य दूर करके शुभ और दीर्घ आयुष्य (जीवन) देती है। अशुभ नाम दूर करके श्रेष्ठ शरीर देती है। अशुभ गोत्र दूर करके धनादि-ऐश्वयं प्रदान करती है और अन्तराय दूर करके ऐश्वर्यादि की प्राप्ति मे आने वाली बाधामो को दूर करती है। धर्मक्रिया के प्रताप से आत्मा भावी जन्म मे इन्द्र और चक्रवर्ती आदि के सुख प्राप्त करती है। इस प्रकार जो प्राणी भौतिक सुख चाहते हैं, उनके लिए भी धर्म की क्रिया आवश्यक है।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-५. धर्म की आवश्यकता [ २७ ___ यद्यपि हमारे सामने प्रत्यक्ष ही एक दूसरा तिर्यञ्च लोक और कर्मों के फल-रूप जीवो की विभिन्नता तो विद्यमान है ही, फिर भी यदि किन्ही को परलोक के अस्तित्व पर और कर्मवाद पर विश्वास न हो, तो उनके लिए भी स्थूल अहिसा, स्थूल सत्य, स्थूल अचौर्य, स्थूल ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमारण आदि लाभदायी है ही। जिस लोकनीति या राज्यनीति मे इनका समावेश नही होता, वे लोकनीतियाँ तथा राजनीतियाँ इस लोक का सुख नहीं दे पाती। युद्ध, अविश्वास, चोरी, बलात्कार और विषम सामाजिक स्थिति आदि के दुख और भय को दूर करने के लिए लोकनीति और राज्यनीति मे भी स्थूल अहिंसा आदि की आवश्यकता है ही। अत जो प्राणो इहलोकिक सुख चाहते हैं, उनके लिए भी धर्मक्रिया आवश्यक है।
भगवान महावीर ने अपना धर्म मुख्यत मोक्ष-प्राप्ति के लिए ही प्रकट किया और मोक्ष-प्राप्ति के लिए धर्म करने वालो को ही धार्मिक माना है, परन्तु भगवान् ने, जो लोग पारलौकिक या इहलौकिक भौतिक सुख चाहते हैं, उनको भी आह्वान किया है कि प्राणियो । जिस हिंसा आदि अधर्म से आप सुख पाना चाहते हो, वह आपको सुख नही दे सकता । अत आप धर्म को शरण आयो । वह आपको इच्छित सुख देगा ।
मेरा पाठको से आग्रह है कि-'वे अागामी चौथा आवश्यक का अध्ययन तो करे ही, साथ ही धर्म के वास्तविक उद्देश्य को समझकर धर्म को स्वीकार भी करे।'
यदि आप धर्म के वास्तविक उद्देश्य को न समझ सकें, तो भी आप चाहे पारलौकिक या इहलौकिक सुख के लिए सही,
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० ]
२. प्रत्यागमे
३ तदुभयागमे
ऐसे तीन प्रकार श्रागम रूप ज्ञान के विषय मे जो कोई प्रतिचार लगा हो, तो श्रानोउं
अतिचार पाठ
: यदि व्याविद्ध पढा हो,
: व्यत्वयाम्रेडित पढा हो,
सुवोन जैन पाठमाला - भाग २
: श्रर्थ (रूप ) ग्रागम
: ( सूत्र अर्थ ) उभय (रूप) ग्रागम
१. जं वाइद्ध
२. बच्चा-मेलियं
३ होणक्खरं
४. श्रच्चदखरं
५. पयहोणं
६. विश्णय होणं
७ जोग- होण
८. घोस- होणं
६. सुटठु ( s) दिनां
१०. दुट्छु पडिच्छियं
११. अकाले की सज्झायो
१२. काले न को सज्भाश्रो
१३. श्रसज्झाए सज्झाइयं
१४. सम्भाए न सज्झाइयं
: होनाक्षर पढा हो,
: प्रति ग्रक्षर पढा हो,
: पदहीन पढा हो,
: विनयहीन पढा हो,
: योगहीन पढा हो,
: घोषहीन पढा हो,
: सुष्ठु ? ( नं) दिया हो,
: दुष्ठु लिया हो,
काल मे स्वाध्याय की हो,
: काल मे स्वाध्याय न की हो,
: अस्वाध्याय मे स्वाध्याय की हो,
: स्वाध्याय मे स्वाध्याय न की हो,
•
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-~-६ 'प्रागमे तिविहे' प्रश्नोत्तरी [३१ ।
: वाचना, पूछना और धर्म कथा करते
भणता
गुरगता विचारतां : परिवर्तना करते (फेरते) हुए तथा
अनुप्रेक्षा (चिंतन) करते हुए, ___-ज्ञान और ज्ञानवंत पुरुषो की अविनय पाशातना की हो, तो
प्रतिक्रमण पाठ
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
'प्रागमे तिविहे' प्रश्नोत्तरी प्र० . प्रागम किसे कहते हैं ? - उ० . जिससे जीवादि नव तत्वो का सम्यग्ज्ञान हो। प्र० सूत्रागम किसे कहते है ?
उ० तीर्थंकरो ने अपने श्रीमुख से जो भाव कहे, उन्हे अपने कानों से सुनकर गणधरो ने जिन आचाराग आदि आगमो की रचना की, उस शब्दरूप आगम को। .
प्र. अर्थागम किसे कहते है ?
उ० तीर्थंकरो ने अपने श्रीमुख से जो भाव प्रकट किये, उस भावरूप आगम को। .
प्र० : व्याविद्ध पढना किसे कहते है ? उ० सूत को तोडकर मणियो के बिखरने के समान,
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८ ] सुवोध जैन पाठमाला--भाग २ आपकी जितनी रुचि हो, जैसी योग्यता हो और जैसी परिस्थिति हो, उतना ही सही, परन्तु धर्म अवश्य स्वीकार करें।
इसके साथ ही कुछ बाते और लिख द-१. जो धमक वास्तविक उद्देश्य को लेकर चलते हैं, वे भी मोक्षप्राप्ति क मध्यकाल में पारलौकिक सूख भी अवश्य ही प्राप्त करते है तथा इहलोक मे भी प्राय उन्हे शान्ति उपलब्ध होती है। २ घन प्रारम्भ करते ही अज्ञान और राग-द्वेषजन्य दु ख मे तो तत्काल कमी आ जाती है, पर भौतिक सुख तत्काल उपलब्ध हाना नियमित नहीं है, क्योकि जितने भी भौतिक सुख हैं, उनका प्रति के पुरुषार्थ मे प्राय, पहले अपनी भौतिक सूख की पूंजी लगाना पडती है और कालान्तर मे कही अधिक भौतिक-सुख मिलता है । अत भौतिक सखदृष्टा को धर्म को धैर्य के साथ पालना श्रावश्यक है। ३. यह गाँठ वाँध रख लेना चाहिए किया इस मानव-भव मे धर्माराधन नही किया, तो अन्य भवो मे धम प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। सम्पूर्ण चारित्र तो मानवभव से अन्य किसी योनि मे नही मिल सकता। देश चारित्र भा माग (और कुछ पश, जो प्राय पहले धर्म पाल चूके है, उन्हें छोडकर
का नही मिलता। सम्यग्ज्ञान व दर्शन भी सज्ञी पञ्चेन्द्रिय छोडकर अन्य को उपलब्ध नही होता। अतः धर्म में थाडा ना प्रमाद करना श्रेयस्कर नही है।
सूक्त-१. अहिंसा संयम और तप रूप धर्म हो श्रष्ठ मंगल है। जिसका मन भी धर्म मे सदा हा अनुरक्त रहता है, उसे (मनुष्य तो क्या) देव भी नमस्कार रत हैं। २. शुद्ध हृदय वाले प्राणी में ही धर्म स्थिर रहता
३. देह छोड़ दो, पर धर्म शासन को मत छोडो।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग~६ 'भागमे तिविहे' का पाठ
[२६
४. विषयभोग मे सतत मूढ बने हए प्राणी धर्म को नही जान सकते।
पाठ ६ छठा
चौथा आवश्यक
विधि : तीसरे आवश्यक की समाप्ति पर वदना करके पहला सामायिक, दूसरा चविंशतिस्तव तथा तीसरी वदनाय तीन आवश्यक पूरे हुए, चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक की आज्ञा है। कहकर चौथे आवश्यक की आज्ञा ले। प्राज्ञा लेकर 'श्रावक सूत्र' पढने वाले खडे-खडे निम्न 'पागमे तिविहे' से लेकर
लखना तक के १५ पाठ व्रत अश वाले पाठ छोडकर अतिचार और प्रतिक्रमण अश वाले पाठ पढे। 'श्रमणसूत्र पढने वाले
म तिविहे से १२ वे अणुव्रत तक १४ पाठ सपूण खड-खड कह और सलेखना का पाठ बैठकर सम्पूर्ण कहे।
४. 'पागमे तिविहे' 'ज्ञान का पाठ'
मागमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा १. सुत्तागमे
: आगम : तीन प्रकार का कहा है। , : वह इस प्रकार : सूत्र (रूप) आगम
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ २. प्रत्थागमे : अर्थ (रूप) आगम ३ तदुभयागमे : (सूत्र अर्थ) उभय (रूप) आगम
ऐसे तीन प्रकार आगम रूप ज्ञान के विषय मे जो कोई अतिचार लगा हो, तो पानोउं
अतिचार पाठ १. जं वाइद्ध : यदि व्याविद्ध पढा हो, २. वच्चा-मेलियं . व्यत्ययामेडित पढा हो, ३ होणक्खरं : होनाक्षर पढा हो, ४. अच्चवखर : अति अक्षर पढा हो, ५. पयहीरणं : पदहीन पढा हो, ६. विणयहीण : विनयहीन पढा हो, ७ जोग-हीरणं : योगहीन पढा हो, ८. घोस-हीणं : घोषहीन पढ' हो, ६. सुटठु(5)दिरण : सुप्छु ? (न) दिया हो, १०. दुछु पडिच्छियं : दुष्ठु लिया हो, ११. प्रकाले कमो : अकाल मे स्वाध्याय
: अकाल मे स्वाध्याय की हो, सज्झायो १२. काले न करो : काल मे स्वाध्याय न की हो,
सज्झायो १३. असज्झाए : अस्वाध्याय मे स्वाध्याय की हो,
सज्झाइयं १४. सज्माए न : स्वाध्याय मे स्वाध्याय न की हो,
सज्झाइयं
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-६ 'पागमे तिविहे' प्रश्नोत्तरी [३१
: वाचना, पूछना और धर्म कथा करते
भणतां
गुगतां विचारतां : परिवर्तना करते (फेरते) हुए तथा
अनुप्रेक्षा (चिंतन) करते हुए, ज्ञान और ज्ञानवंत पुरुषों को प्रविनय पाशातना की हो, तो
प्रतिक्रमण पाठ
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
'पागमे तिधिहे' प्रश्नोत्तरी प्र० . आगम किसे कहते हैं ? - उ० : जिससे जीवादि नव तत्वो का सम्यग्ज्ञान हो । प्र० · सूत्रागम किसे कहते हैं ?
उ० तीर्थंकरो ने अपने श्रीमुख से जो भाव कहे, उन्हे अपने कानों से सुनकर गणधरो ने जिन आचाराग आदि आगमो को रचना की, उस शब्दरूप आगम को। ,
प्र. अर्थागम किसे कहते है ? . .
उ० तीर्थकरो ने अपने श्रीमुख से जो भाव प्रकट किये, उस भावरूप आगम को। . . .
प्र० : व्याविद्ध पढना किसे कहते है ? उ० . सूत को तोडकर मणियो के बिखरने के समान,
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२ ] सुवोध जन पाठमाला-माग २ सूत्र के अक्षर, मात्रा, व्यञ्जन, अनुस्वार, पद, पालापक आदि उलट-पलटकर पढने को।
प्र० : व्यत्यय करके पढना किसे कहते है ?
उ० . सूत्रो मे भिन्न-भिन्न स्थानो पर आये हुए पाठो को एक स्थान पर लाकर पढने को, विरामादि लिये बिना पढ़ने को, अथवा अपनी बुद्धि से सूत्र के समान सूत्र बनाकर आचारांगादि सूत्र में डालकर पढने को।
प्र० : हीनाक्षर पढना किसे कहते है ?
उ०: जैसे 'नमो आयरियाण' के स्थान पर 'य' अक्षर कम करके 'नमो पारियाण' पढने को।
प्र० : अति अक्षर पढना किसे कहते हैं ?
उ० : जैसे 'नमो उवज्झायारा' मे 'रि' मिलाकर 'नमो उज्झारियाण' पढा हो।
प्र० : पंदहीन (या अति करके) पढना किसे कहते हैं ?
उ० : जैसे 'नमो लोए सव साहरणं' में 'लोए पद कम करके 'नमो सव्व साहूणं' पढ़ने को।
प्र० • ये पांचो किसके अतिचार हैं ? उ०: उच्चारण सबधी अतिचार हैं ।
प्र० : उच्चारण की अशुद्धि से क्या हानि हैं ?
उ० : कई वार १. अर्थ सर्वथा नष्ट हो जाता है। कई बार २ विपरीत अथ हो जाता है। कई बार ३. आवश्यक
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-६. 'प्रागमे तिविहे' प्रश्नोत्तरी [३३ अर्थ मे कमी रह जाती है। ४. कई बार अधिकता हो जाती है। ५ कई बार सत्य- किन्तु अप्रासगिक अर्थ हो जाता है। इस प्रकार कई हानियाँ हैं। जैसे 'ससार' मे से एक बिन्दु कम बोलने पर ससार' 'स-सार' (सार सहित) हो जाता है या 'शास्त्र' मे से एक मात्रा कम कर देने से- 'शास्त्र' 'शस्त्र' हो जाता है। अत उच्चारण अत्यन्त शुद्ध करना चाहिए।'
प्र० उच्चारण शुद्धि के लिए क्या करना चाहिए? । उ० उच्चारण शुद्धि के लिए" १ सूत्र के एक-एक अक्षर; मात्रादि को ध्यान से पढना चाहिए, २ ध्यान से कठस्थ करना चाहिए और ३ ध्यान से फेरना चाहिए। ऐसा करने से उच्चारण प्राय. शुद्ध होता है।
प्र. विनयहीन पढना किसे कहते हैं ?
उ० ज्ञान और ज्ञान-दाता के प्रति १. ज्ञान लेने से पहले, २ ज्ञान लेते समय 'तथा ३. ज्ञान लेने के पीछे विनय (वदनादि) न करके या सम्यग विनय न करके पढने को।
प्र० योगहीन पढना किसे कहते हैं ?
उ० १. मन लगाकर न पढने को, कायोत्सर्ग, २ अतिरात्रि आदि कारणो को छोडकर मन-मन मे पढने को, अनादरपूर्ण स्वर में पढने को व ३: काया को स्थिर न रखकर पढ़ने को।
प्र० घोषहीन पंढना किसे कहते हैं ? । उ० ज्ञानदाता जैसा मन्द स्वर, मध्यम स्वर, उच्च स्वर से उच्चारण करावें या जिस छन्द-पद्धति से उच्चारण करावें, वैसा उच्चारण करके नही पढने को।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवोध जैन पाठमाला--भाग २
प्र० ये तीनों किसके अतिचार हैं ? उ० . पढने की विधि संवधी अतिचार हैं।
प्र० . इनसे क्या हानि होती है ?
उ० विनयहीनता से प्राप्त ज्ञान यथासमय काम नहीं आता-सफल नही होता, स्तुति-वदनादि क्रियाएँ सफल नहीं होती। योग-हीनता से जान की प्राप्ति शीघ्र नही होती। शुद्ध आवर्तन नहीं होता, पालोचना-प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ सफल नहीं होती। घोष-हीनता से सूत्र का आत्मा पर पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता। अतः इन तीनो अतिचारो को दूर करना चाहिए और विनय के साथ योगो को एकाग्र करके यथाघोप अध्ययन करना चाहिए ।
प्र० : सुप्ठु ! (न) देना किसे कहते हैं ?
उ० · शिष्य की ग्रहण-स्मरण आदि की जितनी शक्ति हो, उससे उसे न्यूनाधिक ज्ञान देने को, शुद्ध भाव से न देने को, अपात्र को ज्ञान देने को, पात्र को द्वेष आदि से न देने को।
प्र. दुष्ठ ग्रहण करना किसे कहते हैं ?
उ० . अपनी ग्रहण-स्मरण आदि की जितनी शक्ति हो, उससे न्यूनाधिक जान लेने को, शुद्ध भाव से न लेने को, कुगुरु से लेने को, सुगुरु से द्वेपादि से न लेने को।
प्र० इनसे क्या हानि होती है ?
उ० : शक्ति से कम जान लेने से प्राप्त ज्ञान-शक्ति व्यर्य जाती है। अधिक लेने से उस ज्ञान का पाचन नहीं होता। अपात्र को ज्ञान देने से सर्प को दूध पिलाने के समान
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-६ 'पागमे तिविहे' प्रश्नोत्तरी
३५
ज्ञान का दुरुपयोग होता है। कुगुरु से ज्ञान लेने मे स्वच्छ जल अशुद्ध पात्र से भर कर पीने के समान हानि होती है तथा द्वेप बुद्धि से ज्ञान न देने-लेने से सुगुरु और सुपात्र की प्राशातना होतो है। अत ये दोनो अतिचार त्याज्य हैं। इन अतिचारो को त्याग कर यथा शक्ति सुगुरु से शुद्ध भाव से ज्ञान लेना चाहिए तथा सुपात्र को यथा शक्ति शुद्ध भाव से ज्ञान देना चाहिए।
प्र० : अकाल स्वाध्याय किसे कहते हैं ?
उ० जिस काल में (चार सध्यारो मे) सूत्र स्वाध्याय नही करनी चाहिए या जो सूत्र जिस काल (दिन-रात्रि के दूसरे. तोसरे प्रहर में) नही पढ़ना चाहिए, उस काल मे स्वाध्याय करने को।
प्र० . अकाल स्वाध्याय और काल अस्वाध्याय से क्या हानि है ?
उ जैसे जो राग या रागिनी जिस काल में गाना चाहिए, उससे भिन्न काल मे गाने से अहित होता है, वैसे ही अकाल स्वाध्याय से अहित होता है तथा यथाकाल स्वाध्याय न करने से ज्ञान मे हानि तथा अव्यवस्थितता का दोष उत्पन्न होता है। इसलिए ये अतिचार भी वर्ण्य हैं। इन अतिचारो का वर्जन करके यथा समय व्यवस्थित रीति से स्वाध्याय करना चाहिए।
प्र० : अस्वाध्याय स्वाध्याय किसे कहते है ?
उ० मृतदेहादिक अशुचि के क्षेत्र मे तथा चन्द्रग्रहणादिक विषम समय मे स्वाध्याय करने को ।
प्र० . अस्वाध्याय मे स्वाध्याय और स्वाध्याय में अस्वाध्याय से क्या हानि है ?
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोध जैन पाठमाला भाग २ उ० : अशुद्धि आदि मे स्वाध्याय करने से - ज्ञान के प्रति अनादर होता है, लोकनिन्दा होती है। विषम समय मे स्वाध्याय से देवकोपादि हानि होती है। अत ये अतिचार भी हेय हैं।
प्र० : 'स्वाध्याय करूँगा' इत्यादि व्रत-प्रत्याख्यान लिए बिना 'काल मे स्वाध्याय न किया हो' आदि अतिचार लगते ही नही, तब उनका प्रतिक्रमण क्यों किया जाय ?
उ० : प्रतिक्रमण केवल अतिचार-शुद्धि के लिए ही नहीं, वरन् अतिचारो के ज्ञान, उनके सम्बन्ध मे शुद्ध श्रद्धा, उन्हे टालने की भावना आदि के लिए भी किया जाता है-यह प्रवेश प्रश्नोत्तरी मे विस्तार से बताया जा चुका है। मुख्य रूप से यह पुन दुहराया जाता है कि जैसे 'मैं चोरी नहीं करूंगा' -इस व्रत को लेने पर, जैसे चोरी करने से पाप लगता है, वैसे ही चोरी का व्रत न लेने वाले को भी.चोरी करने पर पाप लगता ही है-भले ही वह व्रत के अतिचार रूप से न लगे। वह पाप से मुक्त नहीं रहता। अतः जैसे व्रत-धारी और अव्रती दोनो को चोरी के पाप का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, वैसे ही स्वाध्याय आदि का नियम न लेने वाले को भी कालस्वाध्याय आदि न करने का प्रतिक्रमण करना ही चाहिये। क्योकि उसे भी काल-स्वाध्याय न करने आदि का पाप लगता ही है। यह उत्तर उन सभी अंतिचारो के लिए समझना चाहिए, जिनके सम्बन्ध मे उपर्युक्त प्रश्न उठता हो ।
प्रत्याख्यान
मैं नित्य ......... सूत्र......" अर्थ ...." स्तोक (थोकडा) कंठस्थ करूँगा तथा..... "सूत्र ......, अर्थ .... " स्तोक
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-६ 'प्रागमे तिविहे' निबध [ ३७ थोकड़ा की स्वाध्याय करूँगा। ....... .." समय ज्ञानियो की उपासना सेवा करूँगा।
___ सम्यग्ज्ञान निबंध १. सूक्त : १. पढ़म नाण-तम्रो दया' पहले सम्यग्ज्ञान होने पर ही पीछे सम्यक्चारित्र आ सकता है, पहले सम्यग्ज्ञान आने पर पीछे · सम्यक्चारित्र अवश्य आयेगा । -दशव० । २. जैसे सूत सहित -सूई गिर जाने पर भी नही गुमती है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान आकर चले जाने पर भी जीव ससार मे भटकता नही है (एक दिन पुन. सम्यग्ज्ञान दर्शन व चारित्र प्राप्त कर मोक्ष मे चला जाता है)। -उत्तरा०। ३. ज्ञान अंधे के लिए आँख के समान और नेत्रवाले के लिए सूर्य-प्रकाश के समान है। -उतरा।
२. उद्देश्य : अज्ञान (ज्ञानाभाव और मिथ्याज्ञान) को नष्ट करके सम्यग्ज्ञान का उदय करना ।
३. स्थान : सभी दुखो का आदि मूल कारण अज्ञान है, अत: उसको नष्ट करना सबसे पहले आवश्यक है। इसलिए उसके नाशक सम्यग्ज्ञान को प्रथम स्थान दिया है। सूक्त मे दी गई ज्ञान की उपयोगिताओ के कारण भी ज्ञान को प्रथम स्थान दिया है।
४ फल : सम्यग्ज्ञान से नव तत्वो का ज्ञान होता है । १. जीव और २. अजीव तत्व के ज्ञान से आत्मा को अमर, देह को नश्वर, देह-प्रात्मा को पृथक् और देहात्म सयोग को दुःख का कारण समझ कर पुरुष जन्म, जरा, व्यांधि और मरणादि के दु.ख मे शान्त रहता है। ३. पुण्य तत्व के ज्ञान से पुण्य को
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८ ।
सुबोव जैन पाठमाला-भाग २
क्षणम्थायी, भौतिक तथा खजाल के समान अवास्तविक सुख रूप जानक र पुस्प पुण्य-फल मे गग नही करता। ४ पाप तत्व के जान से पाप को क्षणस्थायी तथा स्वकृत समझकर पुरुप वेद और दुख देनेवाले निमित्तो पर द्वेष नही करता। ५ अजान, मिथ्यात्व और रागद्वेप (अवत, प्रमाद, कषाय) को दुख का कारण समझ कर पुरुप इन से हटता है। ६ अाश्रव के ज्ञान से सबर के ज्ञान से सम्यक्त्वज्ञान और वैराग्य (व्रत अप्रमाद, अकपाय) को मोक्ष का कारण समझकर पुरुष ज्ञान, श्रद्धा व वैराग्य को अपनाता है। ७ निर्जरा के ज्ञान से आत्मा के साथ कर्म के सयोग को नष्ट करने के उपायो को जानकर पुरुष अनगन, पूर्व के पापो का पश्चात्ताप और स्वाध्यायादि कार्यों को अपनाता है। ८६ वध-मोक्ष के ज्ञान से अपनी वर्तमान वध दगा को जानकर पुरुप मोक्ष-प्राप्ति की ओर सन्मुख होता है। भवान्तर मे उस फल के साथ तीक्ष्ण बुद्धि, चिरस्मरण शक्ति, शीघ्र ग्रहगशीलता आदि प्राप्त होती है।
५. कत्तव्य . विनय, योगो की एकाग्रता, गुरु-चरण से ज्ञान-प्राप्ति, जान-प्राप्ति मे अनालस्य व अप्रमाद, जान-दान मे उदारता, काल और स्वाध्याय में नियमित स्वाध्याय, शुद्ध उच्चारण, ज्ञान का पुन पुन. यावर्तन, अनुप्रेक्षा आदि ।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना। 'मुझे कव केवल ज्ञान होगा ?' यह मनोरथ करना, ज्ञान की अपूर्णता का खेद करना, अज्ञान से अब तक चतुर्गति मे पाये हुए दु ख का विचार करना, ज्ञान के लिए सतत जागृत रहने वाले श्री गौतम गणधर आदि के चरित्र पर ध्यान देना।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-७ 'अरिहतो-महदेवो' का पाठ
३६
पाठ ७ सातवाँ ५ 'अरिहंतो-महदेवो' दर्शन (सम्यक्त्व)
का पाठ
(१. अरिहतो महदेवो : (अरिहन्त मेरे देव है। जावज्जीवाए : (और) जब तक जीवन है २. सुसाहुणो गुरुगो : सच्चे साधु गुरु है। जिग पण्णत्त :: अरिहत द्वारा कहा हुआ तत्त
: तत्व (उपदेश, धर्म) है। इन सम्मत्त
: इस प्रकार सम्यक्त्व मए गहिय) ॥१॥ :: मैने ग्रहण की है।) १ परमत्थ
परमार्थ का (नव तत्वो का) सथवो वा
: सस्तव (ज्ञान) करना २. सुदिट्ठ-परमत्थ : परमार्थ (नव तत्व) के अच्छे
जानकारो की सेवरणा वावि : सेवा (प्रशसा-परिचय) करना ३ वावरण
: व्यापन्न (सम्यक्त्व भृष्ट) और ४ कुदसरण : कुदर्शन (अन्यमति) की वज्जरणाय
: सगति (प्रशसा-परिचय) वर्जना सम्मत्त
: ये चार कार्य सम्यक्त्व के सद्दहरणा ॥२॥ : श्रद्धान (दर्शक, उत्पादक व रक्षक) है।
अतिचार पाठ इन सम्मत्तस्स • इस प्रकार श्री समकित रत्न पदार्थ
के विषय मे
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
४० ।
सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
पंच अइयारा पेयाला : (पाँच प्रधान अतिचार जारिणयव्या
: जो जानने योग्य हैं, किन्तु न समायरियव्वा' : पाचरण करने योग्य नहीं है। तंजहा
: वे इस प्रकार हैं-उनमे से) ते पालो
: जो कोई अतिचार लगा हो तो
__ आलोउ१. संका
: श्री जिन-वचन मे शंका की हो, २. कंखा
: पर-दर्शन की आकाक्षा की हो, ३. वितिगिच्छा . धर्म के फल में संदेह किया हो, (या
त्याग-वृत्ति के कारण शरीर-वलपात्र आदि मलिन देख कर संत
सतियो की घृणा की हो) ४, परपासंड-पसंसा : पर-पाखण्डी (अन्य मती) की प्रशंसा
की हो, ५. परपासंड-संयवो पर-पाखण्डी का परिचय किया हो,
प्रतिक्रमगा पाठ जो मे देवसिमो : मेरे' सम्यक्त्व-रूप रत्न पर (दिन । प्रइयारो को : सम्बन्धी) मिथ्यात्व-रूपी रज मैल
__ लगा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कई । 'अरिहन्तो महदेवो' प्रश्नोत्तरी प्र० . तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानियो की सेवा क्यों करनी चाहिए? . उ० : इसलिए कि ये दोनो बोल १. नूतन ज्ञान-प्राप्ति, २प्राचीन सदेह-निवारण, ३ सत्यासत्य निर्णय, ४,अतिचार-शुद्धि
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-७. 'अरिहतो महदेवो' प्रश्नोत्तरी । ४१ और ५ नव प्रेरणा आदि करके हमारे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को दृढ, शुद्ध और घन बनाते है।
प्र० . सम्यक्त्व-भ्रष्ट की और प्रत्यमती की संगति आदि क्यों छोड़नी चाहिए?
उ. इसलिए कि-'ये दोनों बोल सम्यग्ज्ञानादि की हानि को रोकते है, क्योकि जो स्वय सम्यक्त्वादि से भ्रष्ट होता है, उसकी सगति करने पर वह दूसरों को भी सम्यक्त्वादि से गिराता है और जिसकी मिथ्याष्टि होती है, उसकी सगति करने पर वह दूसरो को भी मिय्यादृष्टि बनाता है।
प्र० ' क्या इनका परिचय सबको छोडना चाहिए?
उ० • नही, जो ज्ञानादि में परिपक्व हो, वह सम्यकत्वादि मे लाने के लिए भ्रष्ट और मिथ्यात्वी को अपने परिचय मे लावे, तो कोई बाधा नहीं है।
प्र० : जिन-वचन में शंका क्या होती है और उसे कैसे दूर करनी चाहिये।
उ० • श्री जिन-वचन में कई स्थानो पर सूक्ष्म तत्वों का विवेचन हुआ है, कई स्थानो पर नय और निक्षेप के आधार पर चर्णन हुआ है। वह स्थूल बुद्धि से समझ में न आने के कारण शका हो जाती है कि-'ये वचन सत्य कैसे हो सकते हैं।' तब अरिहतो के केवल ज्ञान और वीतरागता का विचार करके तथा अपनो बुद्धि को सन्दता कर विचार करके ऐमी शका दूर करनी चाहिये।
'प्र० ' क्या जिज्ञासा-रूप शका अतिचार है ? उ० : नही। पर हों, उसका भी ज्ञानियो से शीघ्र
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२ ] - सुबोध जन पाठमाला--म २ समाधान कर लेना आवश्यक है, अन्यथा वह जिज्ञासा-रूप शंका भी अतिचार-रूप शंका बन सकती है।
प्र० : परमत ग्रहण की इच्छा क्यों होती है ?
उ० : अन्यमतियो के तप-त्याग, आडंबर-चमत्कार, पूजा आदि देखकर तथा उनकी कथा-विवेचना आदि सुनकर परमत ग्रहण करने की आकांक्षा होती है।
प्र · तप-त्याग को देखकर तप-त्याग की इच्छा होना अतिचार क्यो ?
उ: उनके तप-त्यागादि को देखकर यह इच्छा होना कि-'जिन्हें अपूर्ण, अशुद्धिमिश्रित धर्म मिला है, वे भी इहलौकिक भौतिक सुख छोडकर आत्मा के लिए, पारलौकिक सुख के लिए (या राष्ट्र आदि के लिए इतना तप-त्याग करते हैं, तो हमे पूर्ण और शुद्ध धर्म मिला, 'हम में तप-त्यागादि कितना होना चाहिए ?' ऐसे विचार अतिचार नहीं हैं। पर उन्हें देखकर, मिले हुए पूर्ण और शुद्ध धर्म को छोडकर अपूर्ण व अशुद्ध धर्म ग्रहण करने की इच्छा करना, अतिचार है।
प्र० : जब अन्यमत में भी तप-त्यागादि कुछ गुण हैं, तक उसकी प्रशसा करना अतिचार क्यो ?
उ० : अन्यमत में रही अपूर्णता और अशुद्धता को बतलाने के साथ यदि अन्यमनो के गुणो को भी कहा जाय, तो __ अतिचार नही है, पर अन्यमत की ऐसी प्रशसा करना, जिससे सुननेवाला पूर्ण और शुद्ध धर्म से हटकर हानि प्राप्त करे, वह अतिचार है।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-७ सम्यग्दर्शन निवध [ ४३ प्रत्याख्यान :
मैं नित्य ......... नमस्कार मत्र "." • माला ......." आनुपूर्वी ....... मागलिक " वार गिनंगा । नित्य उठते ही भावपूर्वक देव को गुरु को ... वार वंदना करूंगा।
जानकारी, शरीर मे सुखशाता तथा अन्य अनुकूलता के रहते हुए, जहाँ भी रहूँ, उस ग्राम, नगर मे विराजित साधु साध्वीजी के प्रतिदिन या मास मे ... • चार दर्शन करूँगा।
सर्वथा/ . ... व्यसन सेवन नहीं करूंगा। सर्वथा/ ...... रात्रि-भोजन नही करूँगा। सर्वथा/ . ... .. उपरांत अनन्तकाय नही खाऊँगा।
देवाभियोगादि छह आगारों को छोड कर अन्यमती देव, गुरु तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्यमती बने हुए जैनी की संगति नही करूंगा।
सम्यग्दर्शन निबंध
१. सूक्तः १. सद्धा परम दुल्लहा, (कदाचित् सम्यग्ज्ञान सुनने को मिल सकता है, पर उस पर) श्रद्धा होना परम दुर्लभ है-उत्तरा० । २ जिसे सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) नही है, उसका ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' नही है-नन्दी० । ३ सम्यग्दर्शन, चारित्र धर्म का मूल है, द्वार है, नीव है, पृथ्वी है, भाजन और पेटी है। - ४. सम्यग्दर्शन से ससार परित्त (सीमित) हो जाता है-प्रज्ञा० ।
२ उद्देश्य : मिथ्यात्व (श्रद्धा का अभाव और . मिथ्याश्रद्धा) को नष्ट करके सम्यक्त्व का उदय करना।
३. स्थान : अज्ञान के पश्चात् मिथ्यात्व को नष्ट करना आवश्यक है। इसलिए उसके नाशक सम्यग्दर्शन को मोक्ष के
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४ ]
सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ उपायो मे दूसरा स्थान दिया गया है। उक्त सूक्तो के अनुसार यद्यपि सम्यग्दर्शन ही पहला है, पर व्यावहारिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और रक्षा सम्यग्ज्ञान से होती है, अत सम्यग्ज्ञान को पहला स्थान देकर सम्यग्दर्शन को दूसरा स्थान दिया है।
४. फल . देव, गुरु, धर्म सबधी दृष्टि की शुद्धि होती है । सम सवेगादि सद्गुणो की प्राप्ति होती है। श्रुत धर्म व देव गुरु के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। तत्वज्ञान मे नि शकता और धर्म-क्रिया मे धैर्य उत्पन्न होता है। स्याद्वादपूर्ण अनेकात दृष्टि उपलब्ध होती है। धार्मिक मिथ्या अभिनिवेश दूर होता है। भवान्तर मे उक्त फल अधिक पुष्ट और दृढ होता है।
५. कर्त्तव्य : सम्यक्त्व की पुष्टि के लिए परमार्थ सस्तवादि ४ वोल करना। सम्यक्त्व शुद्धि के लिए शकादि ५ बोल वर्जना। सम्यक्त्व रक्षा के लिए वदनादि छह यतना पालना। सम्यक्त्व टिकाव के लिए 'जीव है' प्रादि छह बोल पर चिन्तन करना। सम्यक्त्वियो की वृद्धि के लिए धर्म-कथादि पाठ प्रभावना करना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । 'मुझे क्षायिक सम्यक्त्व कव प्राप्त होगी?" यह मनोरथ करना, श्रद्धा की कमी का खेद करना। मिथ्यात्व के दुख और मिथ्यात्व सहित क्रिया की विफलता का विचार करना। सम्यक्त्व भ्रष्ट 'नद मणिकार' आदि के तथा सम्यक्त्वपालक 'श्रेणिक', 'सुलसा' आदि के चरित्र पर ध्यान देना।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४५
मूत्र-विभाग-८. 'अहिंसा अणुव्रत' का पाठ
पाठ ८ आठवाँ
६. 'अहिसा अणुव्रत' व्रत पाठ
पहला अणुव्रत 'थूलाओ पारगाइवायाओं वेरमा • त्रस जीव
. पहला अणुव्रत : स्थूल (बडी) : प्राणातिपात (जीव-हिसा से) : विरमण (विरति करना, हटना) : दुख से बचने के लिए चलने फिरने
वाले
बेइन्दिय
: द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रिय वाले), तेइन्दिय
: त्रीन्द्रिय (तीन इन्द्रिय वाले), चउरिन्दिय
: चतुरिन्द्रिय (चार इन्द्रिय वाले), पचिन्दिय
: पञ्चेन्द्रिय (पाँच इन्द्रिय वाले इन्हे) १ जान के पहिचान के, २. संकल्प करके उसमे १ सगे सम्बन्धी तथा स्व शरीर के भीतर मे पीड़ाकारी तथा ३. सापराधी को छोड़ निरपराधी को, ४. प्राकुट्टो से हनने का पञ्चवखारण (करता हूँ)। जावजीवाए : जब तक जीवन है दुविह तिविहेणं : दो करण और तीन योग से १. न करेमि : हिंसा न करूँ २. न कारवेमि
: तथा न कराऊँ (इन दो करणो से) १. मरणसा २. वयसा : मन से, वचन से (तथा)
थूिनंग मन्ते । पाणावा पारखामि' इतमा पौर।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६ ]
1. कायसा+
१. बधे
२. बहे ३. छविच्छेए
सुवोध जैन पाठमाला
जो मे देवसिप्रो श्रइयारो को
1
ऐसे पहले स्थूल प्राणातिपात पहला स्थूल प्राणातिपात विरमरण व्रत के पच अइयारा विरमरण व्रत के विषय याला जारिणयव्वा न समायरिव्वा मे जो कोई प्रतिचार लगा न जहा ---ते श्रालोडहो, तो आलोउ
४. अइभारे ५. भत्तपारण- विच्छेए
-भाग २
: काया से ( इन तीन योगो से )
प्रतिचार पाठ
: रोपवश गाढ बन्धन बाँधा हो,
: गाढ घाव घाला हो,
अवयव ( चाम यादि का ) छेद किया हो,
: अधिक भार भरा हो,
: भात पानी का विच्छेद किया हो, ( खाने-पीने मे स्वावट डाली हो )
प्रतिक्रमण पाठ
इन प्रतिचारो मे से मुझे जो कोई दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो तस्स मिच्छामि दुबकडं ।
'अहिंसा प्रणुव्रत' प्रश्नोत्तरी
प्र० : सूक्ष्म प्रारणातिपात किसे कहते हैं ?
तिस्स भन्ते ! पडिक्कमामि निद्रामि गरिहामि मप्पा वोसिरामि ' इतना और
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-८. 'अहिंसा अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी [ ४७ उ० स्थावर जीवो की हिसा को। प्र० प्राणातिपात किसे कहते है ? उ० : जीव को मिले हुए प्राणों के वियोग करने को।
प्र० : जीव-हिसा के लिए प्राणातिपात' शब्द का प्रयोग क्यों किया?
उ० : 'जीव नित्य है। वह न जन्मता, न मरता है । इस सिद्धान्त को बताने के लिए।
प्र. जीव का जन्म मरण किस अपेक्षा से माना गया है ?
उ. प्राणों के सयोग से नये प्रारभ होने वाले भव की अपेक्षा जन्म माना जाता है और प्राणों के वियोग से होने वाले पुराने भव की समाप्ति की अपेक्षा मरण माना जाता है ।
प्र० जीव अपने कर्मानुसार मरते और दुख पाते हैं, फिर मारने वाले को पाप क्यों लगता है ?
उ० . १. मारने की दुष्ट भावना और २ मारने की दुष्ट प्रवृत्ति से।
प्र० : श्रावक सजीव की हिंसा का त्याग क्यों करता है ?
उ० ' उस हिंसा से पाप अधिक होता है, इसलिए । प्र०: त्रसहिसा से पाप अधिक क्यो होता है।
उ०. १. सजीवो का जीवत्व प्रत्यक्ष है तथा वे मरते हुए बचने का प्रयास करते है। ऐसी दशा में जीवत्व प्रत्यक्ष
होते हुए बलात् मारने से क्रूरता अधिक आती है, इसलिए तथा '२. असख्य-अनत स्थावर जीवो को जितने पुण्य से असख्य
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ अनत प्राण मिलते है, उससे भी कहीं अधिक पुण्य कमाने पर एक सजीव को एक जिह्वा वचन आदि प्राण मिलता है। उस अनत पुण्य से प्राप्त प्रारण का वियोग होता है, इसलिए।
प्र० : जान के पहचान के हिंसा करना किसे कहते है ?
उ. . 'जहाँ पर या जिस पर मैं प्रहार कर रहा है, वहीं या वह बस जीव है।' यह जानते हुए हिंसा करना।
प्र० सकल्प करके हिंसा करना किसे कहते हैं ?
उ. जैसे 'मैं इस अन्य धनी राज्य को जीतूं, इस सवल मनुप्य को मारूं, इन सिंह, हरिण आदि का शिकार करू, सर्प, चूहे, मच्छर आदि का नाश करूँ, मछली, अडे आदि खाऊँ ।' ऐसा विचार करके हिंसा करना ।
प्र० : गरीर के भीतर मे पीडाकारी का उदाहरण दीजिए।
उ० · जैसे कृमि नेहरू आदि। प्र० : श्रावक संकल्पी हिंसा का ही त्याग क्यों करता है ?
उ० . क्योकि अन्य प्रारम्भ करते हुए श्रावक की मारने की बुद्धि न रहते हुए उसमे त्रस जीवो की हिंमा हो जाती है। जैसे पृथ्वीकाय खोदते हुए भूमिगत त्रस जीवों की हिंमा हो जाती है, वाहन पर चलते हुए वाहन से कीडी आदि मर जाती है। ऐसी प्रारम्भी बस-हिंसा का श्रावक त्याग करने में समर्थ नही होता ।
प्र० - सापराधी किसे कहते हैं ? उ० : जैसे आक्रमणकारी शत्रु, सिंह, सर्प आदि को
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-5. 'अहिंसा अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी [ ४६ धनापहारी चोर, डाकू आदि को, शील को लूटने वाले, जार आदि को या उचित और आवश्यक राष्ट्रनीति, राजनीति, समाजनीति आदि का भग करने वाले राष्ट्रद्रोही आदि को।
प्र० : श्रावक सापराधी की हिंसा क्यों नहीं छोड़ देता?
, उ० : १. जिसमे निरपराध त्रस जीवो की हिंसा हो, इस प्रकार नयी अविद्यमान स्त्रो, सपत्ति, भोगोपभोग सामग्री आदि का त्याग-भाव श्रावक मे आ जाता है। परन्तु पुरानी विद्यमान वस्तुओ का त्याग-भाव उसमे नही आ पाता, अतः उसे सापराधियो पर मारने का द्वेष आ जाता है तथा २ लोक मे रहने के कारण उस पर आश्रितो की रक्षा का भार आदि भी रहता है, इसलिए वह सापराधी हिंसा नहीं छोड़ पाता।
प्र. निरपराध किसे कहते हैं ?
उ० . जैसे आक्रमण न करने वाले, गांति-प्रेमी मनुष्य, राज्य आदि को, धन शीलादि को न लूटने वाले साहूकार, सुशील आदि को, अपने मार्ग से जाते हुए सिंह, सर्प आदि को, किसी को कष्ट न पहुँचाने वाले गाय, हरिण, तीतर, मछली अण्डे आदि को।
प्र० 'आकुट्टी' से मारना किसे कहते है ?
उ० . 'यह जीवित भी रहेगा या नही।' इसका ध्यान न रखते हुए कषायवश निर्दयतापूर्वक मारने को।
प्र० : अहिंसा अणुव्रत क्या यावज्जीवन के लिए ही लिया जा सकता है, न्यूनाधिक समय के लिए नहीं लिया जा
सकता ?
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०] सुबीघ अन पाठमाला भाग २
उ० : अधिक समय के लिए तो लिया नही जा सकता, क्योकि आगामी जन्म कहाँ किस रूप मे होगा और वहाँ व्रतपालन होगा या नहीं ? यह जान लेना असम्भव है। इसके अतिरिक्त कही भी जन्म से ही व्रत-पालन सम्भव भी नही है । हाँ, जो यावज्जीवन व्रतः लेने में कठिनाई अनुभव करते है (यद्यपि लेना कठिन नही है) या जो पहले कुछ समय व्रत निभा कर फिर यावज्जीवन के लिए व्रत लेना चाहते हैं, वे दस वर्ष, पाँच वर्ष, वर्ष आदि कम समय के लिए व्रत अवश्य ले सकते हैं। यह उत्तर प्रारम्भ के पाठो व्रतो के लिए समझना चाहिए।
प्र० : अहिंसा अणुव्रत का पालन कितने करण योग' से होता है ?
उ० : यद्यपि अहिसा का अणुव्रत दो करण तीन योग से लिया जाता है, पर इसका तीन करण तीन योग से पालन का विवेक रखना चाहिए, अर्थात् कोई निरपराध त्रस जीव को सकल्पपूर्वक मारे, तो. उसका. मन-वचन-काय से अनुमोदन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी दो करण तीन योग के व्रतो को तीन करण तीन योग से पालने का ध्यान रखना चाहिए।
प्र० • 'गाढ़ बन्धन' किसे कहते है ?
उ० : जो गले आदि का बन्धन पशु, मनुष्यादि के लिए फाँसी-रूप वन जाय या अग्नि, बाढ आदि का भय उपस्थित होने पर अन्य पुरुष उसे खोल न सके, ऐसे बन्धन को।
प्र० 'बई' के अन्य प्रकार बताइए।
उ.: बूंसा, लात, चावुक, आर आदि से मर्म स्थान अादि पर प्रहार करना।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - ८. 'अहिंसा प्रसुव्रत' प्रश्नोत्तरी [ ५.१
प्र० 'छविच्छेद ' प्रतिचार कब लगता है ? उ० . रोगादि कारणो के न होते हुए सजीव चमडी छेदने पर, डाम देने पर तथा अवयवादि काटने पर ।
प्र० अतिभार किसे कहते है ?
उ० ' जो पशु जितने समय तक जितना भार ढो सकता हो, उससे भी अधिक समय तक उस पर भार लादना या जो मनुष्य जितने समय तक जितना कार्य कर सकता, हो, उससे भी अधिक समय तक उससे कार्य कराना ।
1
DO
भत्त-पारण- विच्छेए प्रतिचार कब लगता है ?
रोगादि कारणो के न होते हुए यथा समय पूरा भोजन-पान न देने पर
उ०
प्र० . ' कषायवा गाढ बन्धन बाँधना' आदि प्रतिचार है या अनाचार ?
1
उ० : कुछ तीव्र (प्रत्याख्यानावरणीय की सीमा तक ) कषायवश गाढ बन्धन बाँधना प्रादि प्रतिचार है तथा अति तीव्र (प्रत्याख्यान की सीमा मे जाने वाली ) कषायवश - गाढ़ बन्धन आदि, अनाचार है । अतः श्रावक को तीव्र कषाय से बचना चाहिए। पर जब तक उसके तीव्र कषाय का व्यवहार से निर्णय न हो, तब तक उसे प्रतिचार हो कहा जाता है, अनाचार - नही ।
यह उत्तर सहसाभ्याख्यान आदि उन सभी प्रतिचारों के लिए समझना चाहिए, जो अतिचार कषायवश होकर लगाये जाते हो ।
-
1
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोध जन पाठमाला-भाग २
निबंध
१. सूक्त : १. एयं खु नागिरगो सारं, 'जं न हिंसइ कं च णं।' ज्ञान का सार यही है कि किसी की हिंसा न करे।'--सूत्र० । २ सब जीव जोना चाहते हैं, कोई मरना नही चाहता, इसलिए प्राणि-वध घोर पाप है। दशवं०। ३. सब जीवो को अपने समान समझो।
२. उद्देश्य : प्राणि-हिंसा को रोकना और प्रारिण-रक्षा करना।
३. स्थान : मोक्ष प्राप्ति के लिए अज्ञान और मिथ्यात्व नष्ट होने के पश्चात् राग-द्वेष (अव्रत, प्रमाद, कषाय) नष्ट होना आवश्यक है। राग-द्वेष का विनाश करना ही सम्यक्चारित्र का उद्देश्य है, इसलिए सम्यक्चारित्र को तीसरा स्थान दिया है।
जब प्राणी को प्रारण, स्त्री, और परिग्रह के प्रति तीव्र राग उत्पन्न होता है, तब वह उनकी प्राप्ति और रक्षा-रूप अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए दूसरे के मूल्यवान प्राण तक लूट लेता है तथा उनकी प्राप्ति व रक्षा मे बाधा और हानि पहुँचाने वालो के प्रति तीव्र द्वेष करके उनके भी प्राण लूट लेता है। यह प्राणो की लूट जहाँ प्राणी के तीव्र राग-द्वेष का पोषण करती है, वहाँ वह दूसरो के लिए भी पूर्ण रूप से महान् दुख उत्पन्न कर देती है। अतः चारित्र मे दोनो के लिए हानिप्रद प्रारिण-हिंसा को रोकना मुख्य है। इसलिए चारित्र मे अहिंसा को सबसे पहला स्थान दिया है। 'हिंसा छोडने योग्य है।' यह शीघ्र ध्यान मे आ जाता है, इसलिए भी हिंसा-विरति को प्रथम स्थान दिया है।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - ६ 'सत्य असुव्रत' व्रत पाठ
[ ५३
४. फल : स्थूल हिसा सम्बन्धी सकल्प-विकल्प से मुक्ति, परस्पर वैर का त्याग, युद्ध - शाति, सह-अस्तित्व, निर्भयता, मित्रता, सहयोग, भवान्तर मे अहिंसक स्वभाव, शुभ दीर्घायुष्य, सर्वत्र जीवन-रक्षा, विष शस्त्र, मत्र आदि का प्रभाव । अन्त मे सदा के लिए अमरत्व, मोक्ष प्राप्ति ।
५. कर्त्तव्य : द्रव्य क्षेत्र, काल-भाव के अनुसार मरते हुए प्राणी की रक्षा करना, सापराधी अपराध-वृत्ति त्यागे, शत्रु मित्र बने - इसका पुरुषार्थ करना, अनाक्रामक सर्प, सिंहादि को न मारना, आक्रामक को मारे बिना काम चले - ऐसा विवेक रखना, आश्रितो के अपराध पर तीव्र कषाय न करना, गुरुदण्ड न देना, निर्भय रहना इत्यादि ।
६. भावना : अहिंसा की पुष्टि के लिए सूक्तादि पर विचार करना । एकेन्द्रिय की हिंसा भी कब छूटेगी ? यह मनोरथ करना । श्रहिंसा की अपूर्णता पर खेद करना । हिंसा के कारण, दु ख राने पाले मृगालोढादि का तथा अहिंसा के पालक नेमिनाथ, महावीर, मेघमुनि, धर्मरुचि आदि के चरित्र पर ध्यान देना ।
܀
पाठ & नववाँ
७. 'सत्य अणुव्रत' व्रत पाठ
दूसरा प्रणुव्रत 'थूलाओ मुसावाचामो
दूसरा अणुव्रत
: स्थूल (अति दुष्ट विचारपूर्वक ) : मृषावाद (झूठ बोलने) से
1
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ .
वेरमरण १. कन्नालीए
: विरमग, (हटना)। : कन्या (वर आदि मनुष्य) सम्बन्धी
झूठ
२. गोवालीए ३. भोमालीए
: गाय (भैस अादि पशु) सम्बन्धी झूठ : भूमि (धन आदि शेप द्रव्य)सम्वन्धी
४: पासावहारो : धरोहर दबाने के लिए झूठ (थापरणमोसो) : धरोहर सम्बन्धी सूट ५. कूड-सविखज्ने : कूडी साख (झूठी साक्षी) इत्यादिक मोटा भूठ बोलने का पच्चक्खारण (करता हूँ)। जावज्जीवाए। दुविहं तिविहेग-१. न करेमि, २. न कारवेमि, १. मरणसा २. वयसा ३. कायसाई
अतिचार पाठ
ऐसे दूसरे मृषावाद विरमरण दूजा-स्थूल मृषावाद विरमण व्रत के पंच अइयारा' व्रत के विषय मे जो कोई जारिणयव्वा न समायरियन्वा अतिचार लगा हो, तो तं जहा-ते पालोउं
आलोउ१ सहसभक्खाणे : सहसा कार से किसी के प्रति कूडा
आल (झूठा दोष) दिया हो, २. रहस्सब्भक्खारणे : एकान्त मे गुप्त बातचीत (आदि)
करते हुए व्यक्तियो पर 'झूठा आरोप लगाया हो,
शा
"पूलगं, भंते मुसावायं पच्चक्खामि ।' इतना और । 'तस्स भते ! पंजियमामि (४) 1', इतना और 1
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग--8: 'सत्य'अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी [ ५५ ३. सदार-मत-भेए : अपनी स्त्री (आदि) के मर्म प्रकाशित
किये हो, (गुप्त बात प्रकाशित की हो), ४. मोसोवएसे : मृषा (झूठा) उपदेश दिया हो, ५ कूड-लेह-करणे : कूडा (झूठा) लेख (आदि) लिखा हो,
प्रतिक्रमरण पाठ जो मे देवसियो : इन अतिचारो मे मे मुझे जो कोई प्रइयारो करो दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
'सत्य अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी प्र० झूठ के प्रकार-बताइए।
उ० झूठ के दो प्रकार है-१. द्रव्य और २. भाव । १ झूठ की भावना से, जैसे गुणहीन कन्या को गुणवती कहना, द्रव्य और भाव दोनों से झूठ है तथा २. झूठ की ही भावना से, जैसे गुणहीन कन्या के सबध मे कहना कि 'मैं उसके गुण क्या ब...ऊं ?-, उसके गुण अवर्णनीय हैं।' यह द्रव्य सेतो झूठ नहीं है, पर भावे से झूठ है। ये दोनों प्रकार के झूठत्याज्य है।
प्र० . इत्यादि शब्द से कौनसे झूठ समझना चाहिये?
उ० : जैसे झूठा आरोप लगाना, विश्वासघात करना, भगवान आदि की झूठी गपथ करना, मृपा उपदेश करना, राजकीय-सामाजिक-व्यापारिक-सेवाकीय-साहित्यिक वीं झूठ बोलना आदि।
प्र यदि किसी से राजकीय आदि झूठ न छूटे तो क्या वह व्रत ग्रहण नहीं कर सकता?
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६ ]
सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
उ० • यथा सभव प्रात्मबल बढाकर सभी बडी झूठ त्याग कर यह व्रत लेना चाहिए। यदि किसी से विशेष प्रात्मबल के अभाव मे ऐसा न हो सके, तो जितनी झूठ त्याग सके, उनका ही सही, व्रत अवश्य ले। आगे भी यही समझना।
प्र० रक्षा के लिए झूठी साक्षी देना या नहीं?
उ० रक्षा की भावना उत्तम है, पर रक्षा के लिए भी सापराधी की झूठी साक्षी देना नही चाहिए। कदाचित् इससे अन्य निरपराध की मृत्यु भी हो सकती है। निरपराध को बचाने के लिए भी कूट साक्षी देना अतिचार है। इससे भविष्य के लिए साक्षीत्व का विश्वास उठ जाता है। उसे सत्य से बचा लेने में समर्थ न होने से यदि कूट साक्षी दी हो, तो उस मन्द अतिचार का भी तत्काल प्रायश्चित्त करना चाहिए।
प्र० 'सहसान्भक्खाणे' के अन्य प्रकार बताइए।
उ० जैसे १ क्रोधादि कषाय के आवेश मे आकर बिना विचारे किसी पर हत्या, झूठ, चोरी, जारी आदि अारोप लगाना । -सन्देह होने पर भी कुछ भी प्रमाण मिले विना, सुनी सुनाई बात पर या शुत्ता निकालने के लिए या अपने पर आये आरोप को टालने के लिए आरोप लगाना आदि भी 'सहसाब्भक्खाणे' हैं।
प्र० : 'रहस्साव्भक्खाणे' की व्याख्या कीजिए।
उ० रहस्य-मन्त्रणा आदि किसी भी अधूरे प्रमाण पर एक या अनेक पुरुपो पर आरोप लगाना ।
प्र० : सदारमतभेए की व्याख्या कीजिए।
उ. - स्त्री, मित्र, जाति, राष्ट्र ग्रादि किसी की भी कोई , -भी लज्जनीय या गोपनीय बात अन्य के समक्ष प्रकट करना।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूधर्मविभाग-. "सत्य अगुवत' निबन्ध || श्र: सच्ची बात प्रकट करता अतिचार कैसे?
उ० इसलिए 'कि, ऐसा करने से स्त्री आदि का विश्वासघात होता है, वह लज्जित होकर सर सकती है या राष्ट्र पर अन्य राष्ट्र का पानमण आदि हो सकता है, अत्त विश्वासमास और हिंसा की अपेक्षा सत्य बातम्भकार करता मी विचार है।
प्र : झूठा उपदेश किसे कहते हैं २
उ: बिना पूछे ग्या पूछने पार भी ऐसा असत्य परामर्श देमा, जिससे श्रोता हिंसादि बड़े मामलो से या यससो मे नमा जाम।।
प्र कोष्ट लेख से और ज्या-समझना चाहिए?
उ० जनाक्शी हस्ताक्षर मा सिमक्के मा मोहरे का विधात बनाता आदि।
निबंध
१. सूक्त" २. सादेव्यारिणय्यदेवयानो कति सच्चययाणे रसारणं, सत्यवचन मे रत पुरुषो की देवतासहाय करते हैं। ---प्रश्न० ॥२ लोक मे जितने भी ग्मत्र,योग, जप, विद्या,अस्त्र, शस्त्र, कला अागम आदि हैं, वे सब सत्य पर प्रतिष्ठित हैं।।
प्रश्न०॥ ३. "सभी साधुओ ने स्मृषावाद की नगीं की है,यह 'प्राणियो 'मे अविश्वास कर कास्या है। दशमं । इसलिए स्मृषावाद त्यामोश
२. उद्देश्य : भूठ को न्योकना और मौन-वृति तथा सला मा स्थापन कस्ता
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८] सुबोध जन पाठमाला--भाग २
३. स्थान : 'हिंसा तीव्र राग-द्वेप से होती है। प्रत्यक्ष दुःख देती है, तत्काल दु ख देती है और प्रारणो का नाश करके बहुत दुख देती है। परन्तु झूठ अपेक्षाकृत मन्द राग-द्वेष से होता है, उसका दु.ख प्रायः पीछे झूठ का ज्ञान होने पर, परोक्ष में होता है और प्रायः प्राण-नाश न होने से हिंसा की अपेक्षा कम दुख होता है । इसलिए हिंसा के 'त्याग से झूठ का त्याग गौरण है। अत प्राणातिपात विरमण के पश्चात् मृषावाद विरमण को तीसरा स्थान दिया है।
४. फल : स्थूल झूठ सवधी सकल्प-विकल्प से मुक्ति, सव लोगों मे विश्वास, विरोधी भी वचन को प्रमाण माने । न्यायाधीश आदि पद की प्राप्ति। व्यापार आदि मे सफलता। झूठजन्य वैर नही बँधता आदि। जन्मान्तर मे उक्त फल के साथ सत्यवादिता, मधुर कठ, प्रभावशाली वाणी, वचन-सिद्धि आदि की प्राप्ति।
५. कर्त्तव्य : 'मेरे इस वचन का क्या फल होगा?' इसका विचार। गोपनीय बातो को पचाना। आरोपादि आने पर धैर्य रख कर नीति से निवारण करना। बिना प्रमाण कोई कथन न करना। हित-मित वाणो कहना। वचन का पालन करना। समय पर सत्य वचन कहना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना। पूर्ण सत्य कव प्राप्त हो ? यह मनोरथ करना। सत्य की अपूर्णता का खेद करना। सत्य-त्याग का अशुभ फल पाने वाले महाबल (मल्लीनाथ) आदि की और सत्य के लिए शरीर अर्पण करने वाले सत्यवादी हरिश्चन्द्र आदि की कथानो पर ध्यान लगाना।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१०. 'प्रचौर्य अशुव्रत' प्रत पाठ
५९
पाठ १० दशवां 4. 'अचौर्य अणुव्रत' व्रत पाठ
तीसरा अणुव्रत 'थूलाओं' प्रदिपणा दारणाओ : अदत्तादान (चोरी से) वेरमरणं १. खात खकर, २. गांठ खोलकर, ३. ताले पर कुँची लगा कर, ४. मार्ग मे चलते ,को लूट कर, ५ पड़ी हुई धरिणयाती (किसी के अधिकार की) मोटी वस्तु जानकर लेना, इत्यादि मोटा अदत्तादान का पञ्चक्खारण, (करता हूं)। १. सगे सबंधी, २. व्यापार सबंधो तथा ३. पड़ी निभ्रमी (शंकारहित) वस्तु के उपरांत अदत्तादान का पञ्चवखारण (करता हूँ)। जीवजीवाए दुविहेणं तिविहेरणं, न करेमि न कारवेमि, मरगसा, वयसा, कायसा ।
अतिचार पाठ ऐसे तीसरे स्थूल अदत्तादान तीसरे स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत के पच अइयारा विरमण व्रत के विषय मे जारिणयव्वा न सामायरियव्वा जो कोई अतिचार लगा तंजहा-ते आलोउ- हो, तो आलोउ, १. तेनाहडे .. : चोर को चुराई वस्तु ली हो, २. तक्करप्पभोगे : चोर को सहायता (आदि).दी हो, ३. विरुद्ध-रज्जाइक्कमे : राज्य-विरुद्ध काम किया हो, ४. कूड-तुल्ल-कूडमाणे : कूडा (खोटा) तोल, कूड़ा माप
किया हो,
'थूलग भेते ! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि ।' इतना मौर। तस्स भते ! पडिकमामि ४... .. "। इतना प्रौर ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
६० ]]
सुबोध जैन पाठमाला ---भाना स
५. तप्पडिरुवमववहारें : वस्तु मे भेल सभेल (यादि) की हो, जो मै देवासियो कारो मे से मुझे जो कोई श्रइयासे को दिना साबधी प्रतिचार दोष लगा हो, तो
: इन
तस्सा मिच्छामि दुक्कडं
श्रदत्तादान प्रश्नोत्तरी
प्र० श्रसादान किसे कहते है ?
ॐ० : स्वामिकयों क आज आदि न होतो हुए दुष्ट विचारपूर्वक उसको वस्तु लेना ॥
प्र. : यहाँ चोरी के पाँच प्रकारों से क्या बताया है ?
-
ॐ० : लोकप्रसिद्ध चोरी के कुछ प्रकार वायो हैं ॥
{
प्र० : ' इत्यादि' भन्द सो कॉल्स कोरियों सममानी चाहिएँ ?
उ० : राज्य, समाज, स्वामी आदि की उचित नीति के विरुद्ध काम करना, जैसे अधिक कर लगाना, उचित कर न देना, न्यूनाधिक तौलना-माना, घूस लेना-देना, वेतन न देना, श्रम ना करना, अन्या का साहित्य चुराना, नाम चुराना, धरोहर दवाना, भूमि दाना आदि
फ्र० :- इस व्रत में 'सगे-सम्बन्धी आदि का आगार क्यों रक्कमा
숯
a
ऊ
उ० : मिलजुल कर रहने वाले सम-सम्बन्धी यदि परस्पार घर की ताला खोलना आदि करते हैं या व्यापार में २१ माल दिखाकर १६ माल दिया जाता हैं या 'इस वस्तु का यह स्वामी हैं इसकी, सामान्यतः जानकारी यह खोज होना कठिन होने
; דט
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाम-१०. प्राचार्य अशुद्रत प्रश्नोत्तरी [६१ पर किसी वस्तु को ली जाती है, तो ये चोरियाँ हैं, पर बड़ी चोरियां नहीं। अतः इनका प्रागार समझने की दृष्टि से रक्ता गया है।
प्र० : 'तेनाहडे' की व्याख्या कीजिए।
उ० : चोर की चुराई वस्तु, पूरी या उसके कुछ भाग को बिना मूल्य, पूरा मूल्य या कुछ मूल्य देकर लेना।
प्र० : 'तक्करप्पनोगे' मे और वया सम्मिलित हैं ?
उ० : चोर को चोरी की प्रेरणा देना, संकट में बचाना या बचाने का आश्वासन देना आदि।
प्र० : राज्य-विरुद्ध काम किसे कहते हैं ?
उ० : सुराज्य-नीति के अनुकूल शासकों ने जो भो । आवश्यक और उचित नियम लमाएँ हो, उनका भङ्ग करना। जैसे निषिद्ध वस्तुएँ बेचना-खरीदना, निषिद्ध राज्यो मे बेचनाखरीदना, कर न देना आदि।
प्र० : कूट तौल-माप किसे कहते है ?
उ० : देने के हल्के और लेने के भारो, पृथक-पृथक तौल-माप रखना या देते समय कम तौलकर देना, कम माफ कर देना, इसी प्रकार कम गिनकर देना या खोटी कसौटी लगाकर कम देना। लेते समय अधिक तौलकर, अधिक मापकर, अधिक गिनकर तथा स्वर्णादि को कम बताकर लेना आदि।
प्र०': 'तप्पडिस्वग-ववहारे की व्याख्या बताइए।
उ० : अधिक मूल्य की वस्तु मे कम मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना । उत्तम वस्तु को दिखलाकर निकृष्ट वस्तु
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ देना। इसी प्रकार अल्प मूल्य वाली या वनावटी वस्तु को वहुमूल्य जैसी और वास्तविक जैसी बनाकर बेचना या ऊपर लेवल अच्छा लगाकर भीतर खोटी वस्तु रखकर वेचना ग्रादि ।
निबंध १ सूक्त : १. लोभाविले पाययइ प्रदत्तं, लोभी चोरी करता है। उत्तरा०। २. साधु-मुनि दॉत-शोधन के लिए तृण भी विना अाज्ञा नहीं उठाते।- दशव० । ३ पराया धन मिट्टी के समान समझो।
२. उद्देश्य : चोरी को हटाकर साहूकारी स्थापन करना।
३. स्थान : सामान्यतया झूठ बोलना अपेक्षाकृत विशेष राग-द्वेष से होता है। झूठ सव ही द्रव्यो के विषय मे अधिक स्थान मे जव कभी बोला जा सकता है और उसका परिणाम भी अधिक लोगो के लिए दुःखदायी होता है तथा सामान्यतया झूठ की अपेक्षा चोरी मन्द राग-द्वेष से होती है, झूठ के योग्य द्रव्य, क्षेत्र और काल बहुत कम होते हैं और चोरी अपेक्षाकृत कम लोगो के लिए दु.खप्रद बनती है। अतः झूठ के त्याग से चोरी का त्याग गौण है। इसलिए अदत्तादान विरमण को तीसरा स्थान दिया है।
४. फल : स्थूल अदत्तादान सम्बन्धी सकल्प-विकल्प से मुक्ति। लोग चोरी की आशको न करे, चोरी का आरोप न लगावें। व्यापार मे प्रतिष्ठा, नौकरी की सुलभता। भडार आदि मे प्रवेश, भण्डारी आदि पद की प्राप्ति ।
भवान्तर मे उक्त फल के साथ अचौर्यवृत्ति हो, असुरक्षित स्थान मे भी निजी सम्पत्ति की सुरक्षा हो, राजा की सम्पत्ति
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-११ 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' व्रत पाठ [ ६३ पर कुदृष्टि न हो, चोर का हाथ न लगे, अग्नि जलादि का सकट न आवे।
५. कर्त्तव्य · लोभ पर अकुश रखना,, अभाव को जीतना, आय के अनुसार जीवनयापन करना, हाथ का सच्चा रहना।
६. भायना : सुक्तादि पर विचार करना। 'पूर्ण अचौर्य कब आवेगा'-यह मनोग्य करना। अचौर्य की अपूर्णता का खेद करना। चोरी करने वाले विजय चोर, सुलसा आदि की तथा चोरो न करने वाले 'श्रीपति' आदि की कथा पर ध्यान लगाना।
पाठ ११ ग्यारहवाँ
६. 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' व्रत पाठ
__ चौथा अणुव्रत 'थूलामो मेहरगानो वेरमणी : मैथुन (अब्रह्मचर्य) से हटना. सदार
: अपनी विवाहिता स्त्री में (स्त्री के लिये सभत्तार): (अपने विवाहित पति मे) सतोसिए
: सतोष करता (करती) हूँ।
मूलग भन्ते ! मेहुणं पच्चपणामि ।'
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
૬૪ ]
वसेस ( सम्व)
मेहस्य - विहि पच्चरखामि
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
एगविहं एमविहेप न करेमि
कायar
जावज्जोवाए ।
देव देवी सम्बन्धी दुविहं तिमिहेयं,
न करेमि न कारचेनि, सरपला वयसा कायसा । तथा मनुष्य
तिर्यञ्च सम्बन्धी
२. इत्तरिय परियहिया नामरखे २. परिहिया
गमरपे
1
: अन्य स्त्रियों (पुरुषों) सें
: ( सभी से, सव्व शब्द ब्रह्मचारी "सदार सतोसिए ग्रवसेस' के स्थान पर कहें )
.
: मैथुन - सेचन का
: प्रत्याख्यान करता ( करती ) हैं
ऐसे चौथे स्थूल मैथुन विरमण व्रत के पच अइयास जाखियन्वा न समायरियध्वा तंजहा -ते थालोड
: एक करण एक योग से (मैथुन - सेवन) : नही करूँगा
: काया से (सूई डोरे के न्याय से )
श्रतिचार पाठ
चौथा स्थूल स्वदार (पति) संतोष परदार (शेप स्त्री-पुरुष ) विवर्जन रूप मैथुन विरमरण व्रत के विषय मे जो कोई अतिचार लगा हो, सो ग्रालोड़ें,
: इत्वर परिगृहीता ( ग्रत्प वय वाली स्वस्त्री या वेळा) से गमन किया हो,
* अपरिगृहीता ( सगाई की हुई स्वस्त्री या अनाथ कन्यादि) से गमन किया हो,
चैतस्स भन्ते ! ये दोनो पाठ मिलाकर इस पाठ से ब्रह्मचर्य जत सेना चाहिए ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-११ 'ब्रह्मचर्य प्रणुव्रत' प्रश्नोत्तरी [ ६५ ३ अनंगकीडा : अनग क्रीडा की हो, ४. पर-विवाह करणे : पराये का विवाह नाता कराया हो, ५. कामभोगतिव्वा : काम भोग की तीव्र अभिलाषा की भिलासे
हो, जो मे देवसियो : इन अतिचारों में से मुझे जो कोई अइयारो को दिन सबधी अतिचार लगा हो, तो
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी । प्र० : स्व-स्त्री सतोष कितने प्रकार से हो सकता है ?
उ० नाना प्रकार से हो सकता है। जैसे-एक विवाह उपरान्त या वर्तमान विवाहित स्त्री से अन्य विवाह नहीं करूँगा। वर्तमान स्त्री स्वर्गवास हो जाने पर या इतने वर्ष के उपरान्त स्वर्गवास हो जाने पर अन्य विवाह नही करूँगा। वर्ष मे ......" या मास में ........ दिन से अधिक अब्रह्मचर्य सेवन नही करूंगा। इतने वर्ष के हो जाने पर सर्वथा ब्रह्मचारी रहूँगा। दिवा ब्रह्मचारी रहूँगा । .......... पक्ष मे ब्रह्मचारी रहूँगा । ... ..'' तिथियो को ......... पर्यों को तथा श्रावरण-भाद्रपद मास -मे ब्रह्मचारी रहूँगा। आदि ।
प्र. वेश्यागमन प्रतिचार है या अनाचार है ?
उ० किसी अन्य षड्यन्त्रकारी के प्रलोभन से वेश्या स्वस्त्री के समान बन जाय और ऐसे समय कोई भुलावे मे आकर वेश्या का आभोग न होने से उससे गमन कर ले, तो उसे अतिचार लगता है, अनाचार नही या वेश्यागमन की भावना से वेश्या से पालाप-सलाप-रूप व्रत का देश-भग करना, 'वेगमनय'
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
की दृष्टि से वेश्यागमन है। वह भी अतिचार है, अनाचार नहीं। व्यवहार से वेश्यागमन करना तो अनाचार ही है।
अन्यत्र भी जहाँ कोई ऐसे अतिचार, जो अनाचार दिखाई द, वहाँ उन्हें अनाभोग, देश-भङ्ग आदि की अपेक्षा अतिचार समझना चाहिए।
प्र० : अल्प-वय-वाली किसे कहते हैं ?
उ० : जिसे अभी ऋतुधर्म प्रारभ नही हया हो। (स्त्री के लिए, 'जिसका वीर्य पका नहीं'-ऐसा पति अल्प वय वाला है। उसे वीर्योत्तेजक औषधियों खिलाकर गमन करने से स्त्री को यह अतिचार लगता है।)
प्र० : अनंग-क्रीड़ा किसे कहते हैं ?
उ० · काम-सेवन के जो प्राकृतिक अंग हैं, उनसे अन्य अंगो के द्वारा स्वस्त्री से या पुरुष से या अन्य स्त्रियो से या पुतली आदि से गमन करना। इसी प्रकार पराई स्त्रियो से या पुरुषो से आलिङ्गन चुम्बनादि करना। वीर्य स्खलन के पश्चात्, भी स्वस्त्री से गमन करना, हस्तकम करना। . प्र० : 'पर-विवाह-करणे' की व्याख्या कीजिये ।
उ० : अपना और अपनी सतान और इसी प्रकार जिनका विवाह करने का कार्यभार स्वय पर आ पडा हो, उनके अतिरिक्त दूसरो का विवाह करना, इसी प्रकार विधवा-विवाह कराना, वर्तमान पत्नी उपरात अन्य विवाह का त्याग होने पर अन्य स्त्री से विवाह करना। अपने पुत्रादि का एक वार विवाह करके फिर विवाह करने का त्याग ले लेने के पश्चात् उनका विवाह करना । जिस कन्या का पर-पुरुष के साथ
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग–११ 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' निबन्ध [.६७ विवाह हो रहा हो, उसके साथ स्वय विवाह कर लेना आदि ।
प्र० : कामभोग की तीव्र प्रभिलाषा मे और क्या .सम्मिलित हैं ?
उ० : विशेष कामभोग की भावना से बाजीकरण, वीर्यवर्धन करना आदि।
निबंध १. सूक्त: १ तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं, सब प्रकार के तपो मे ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। -सूत्र । २. एक. ब्रह्मचर्य का आराधन करने से सभी गुणो का पाराधन हो जाता है।-प्रश्न । ३ अब्रह्मचर्य को जीता हुआ समुद्र पार कर चुका, केवल नदी शेष है- उत्तरा०। ४. इन्द्र, चक्रवर्ती, 'वासुदेव, राजा, युगलिक आदि सभी काम-भोग से अतृप्त ही मरते है।-प्रश्नः ।
२. उद्देश्य : अब्रह्मचर्य के खुजली के समान विकृत और तुच्छ सुख से हटाकर आत्मा को ब्रह्मचर्य के नीरोगता के समान श्रेष्ठ अविकार सुख की प्राप्ति कराना।
३. स्थान :१ हिंसा, २ झूठ और ३. चोरी-ये तीनो ही पाप १ प्राणो के प्रति राग, २. स्त्री के प्रति राग और ३. धन आदि के प्रति राग के कारण होते हैं और जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है और रागद्वेष ही त्याज्य है। , उनमे भी राग का त्याग मुख्य है, पर राग पाप है-यह समझ मे आना कठिन होता है, अत. शास्त्रकारो ने राग के त्याग-रूप व्रत को तीनो के पश्चात् स्थान दिया है। दूसरी बात: यह भी है कि हिंसा, झूठ और चोरी के त्याग के पश्चात् इन तीनो का- राग वहुतारा मे प्रायः मन्द पड़, जाता है। इसलिए भी इनका त्याग
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८ ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
किसी अपेक्षा गौण हो जाता है । अतएव भी इनके त्याग को पीछे स्थान दिया है. !
इन तीनो मे प्राणो पर राग सबसे अधिक, उससे कम स्त्री पर और उससे कम धनादि पर होता है । प्रत प्राणो के राग का त्याग सबसे ही मुख्य है । पर प्रारण मोक्ष-आराधना भी उपयोगी हैं, अत. व्यावहारिक दृष्टि से उनका त्याग सम्भव नही । अत उसके पश्चात् शेष दोनो रागो मे स्त्री- राग का त्याग मुख्य होने से धनादि के राग के त्याग से पहले 'मैथुन विरमरण' को चौथा स्थान दिया गया है ।
४. फल : स्थूल मैथुन सम्बन्धी सकल्प-विकल्प से मुक्ति । स्वदार मे अधिक प्रासक्ति की मन्दता । शरीर नोरोग, हृदय बलवान, इन्द्रियाँ सतेज, बुद्धि तीक्ष्ण और चित्त स्वस्थ | अल्पायु न हो, दुराचार की आशका व ग्रारोप न हो । भवान्तर मे उक्त फल के साथ नपुसक या स्त्री न बने, नपुसक न बनाया जाये, स्त्री-प्राप्ति में कठिनता, स्त्री- वियोग या स्त्री- मृत्यु न हो, स्वत ब्रह्मचर्य पालन की भावना हो ।
५. कर्त्तव्य : अन्य स्त्री की आवश्यक कथा न करना, शब्द न सुनना, रूप न देखना, परिचय न करना, साथ मे गमन, भोजन, गान आदि न करना । अश्लील साहित्य, चित्र, नाटकादि से परे रहना । रात्रि भोजन, गरिष्ट भोजन आदि से बचना ।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । पूर्ण 'ब्रह्मचारी कब बनूंगा ?" यह मनोरथ करना । ब्रह्मचर्य की अपूर्णता पर खेद करना । भोग्य स्त्री- देह की अशुचिता का, अनित्यता का और स्त्री की स्वार्थपरता का चिन्तन करना । ब्रह्मचयं के
5
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ
सूत्र-विभाग-१२ 'अपरिग्रह अणुव्रत' व्रत पाठ [ ६६ अपालक रावण, जिनरक्ष, सूरिकान्ता आदि का तथा ब्रह्मचर्य के पालक जम्बूकुमार, मल्लीनाथ, राजीमति आदि के जीवन-चरित पर ध्यान देना ।
पाठ १२ बारहवां १०. "अपरिग्रह अणुव्रत' व्रत पाठ
पांचवा अणुव्रत 'थूलामो परिग्गहाम्रो 'वेरमरण।" : परिग्रह (सग्रह तथा मूर्छा) सेहटना १ खेत्त
: खुली भूमि (खेत आदि) २ वत्यु
: ढकी भूमि (घर आदि) का यथा परिमारण ४ ५ हिरण्ण-सुवण : चाँदी-सोना (मणि, मोती आदि) का यथा परिमारण (जैसे आभूषण, पाट, गिन्नी आदि) ५. दुपय
: दो पर वाले (मनुष्य, पक्षी आदि) ६. चउप्पय : चार पैर वाले (गाय, भैस आदि का यथा परिमारण दुधारू या बैलादि वाहन योग्य) ७. धन
: रोकड पूंजी (मुद्रा, हुडी आदि) ८. धान्य
: गहूँ (ईख, नारियल, बादाम) आदि का यथा परिमारण
'थूलगं भते । परिगह पच्चक्खामि ।'
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
___७२ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
पक्षी नही रक्खूगा। ६. इतने से अधिक दुधारू पशु, "....." इतने से अधिक वाहन के पशु नही रक्खंगा। ७... ..." इतने से अधिक मुद्रावाला रोकड धन नही रक्खूगा। ८.........." इतने से अधिक धान्य, · इतनी से अधिक वनस्पति नही रक्खंगा । ६. . इतने से अधिक कडाई आदि,.......... इतने से अधिक मोटर ग्रादि, · .... — इतने से अधिक पलग ग्रादि,....... " इतने से अधिक वस्त्रादि नही रखूगा। इनका परिमारण घर और व्यापार की दृष्टि से बाँट कर भी रक्खा जा सकता है।
प्र० : किये हुए क्षेत्रादि के परिमारण का उल्लंघन कैसे होता है ?
उ० : जैसे १० खेत रक्खे हो, उनके स्थान पर २० खेत कर लेना आदि प्रकार तो स्पष्ट है ही, अन्य कुछ प्रकार यो - हैं--१. अपने खेत के पास अन्य खेत मिलने पर दोनो खेतो
की एक वाड बना कर एक खेत गिनना। २. दस ही खेत और दस ही घर रक्खे हो, पर घर की अधिक आवश्यकता दिखने पर दो-चार खेत घटा कर दो-चार घर बढा लेना। ३ दस खेत से अधिक मिलने पर उसे केवल दूसरो के नाम करना, पर अधिकार मन मे अपना रखना। ४. जितनी अवधि का व्रत लिया, है, उससे पहले अधिक धन की प्राप्ति होने पर धनदाता के पास जमा के रूप मे वह धन रखना मादि।
'अपरिग्रह' निबंध
१. सूत्र : १. 'इच्छा हु आगास समा अरगतिया' इच्छा (परिग्रह की भावना) आकाश के समान अनंत है, उसका प्रत नही पा सकता।-उत्तरा०। २. ज्यो लाभ होता है, त्यो संतोष
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१२. 'अपरिग्रह अणुव्रत' निबन्ध
महीं होता, वरन् लोभ बढता है। - उत्तरा। ३. सम्पूर्ण लोक • मे सभी जीवो के लिए परिग्रह (प्राण, स्त्री और शेष) से बढकर
और कोई पाश (बन्धन) नहीं हैं। प्रश्न०। ४. मरते समय यहाँ से कोई साथ नहीं चलताउत्तरा० ॥
२. उद्देश्य : धनादि को मूर्छा के दुःख को मिटाना और इच्छा-रहितता के सुख को प्रकट करना।
३. स्थान : स्त्री-राग (मोह) की अपेक्षा धनादि का राग (मोह) मन्द होने से स्त्री-त्याग की अपेक्षा धनादि का त्याग गौण है, अत मैथुन विरमण के पश्चात् परिग्रह विरमरण को पांचवां स्थान दिया है।
४. फल : असीम तृष्णाजन्य सकल्प-विकल्प से मुक्ति । विद्यमान धन मे प्रासक्ति की मन्दता। अभाव में सन्तोष । निद्रा सुख से आवे, यात्रा का कष्ट न हो, नीच की सेवा करनी व पड़े। जन्मान्तर में उक्त फल के साथ निर्धनता और आवश्यक पदार्थों की कमी न हो । स्वतः धन-त्याग की भावना हो।
५. कर्तव्य : अपने से अधिक धनवानों की वेश-भूषा, अलंकार, भोजन पान, धन, भवन, उत्सवादि की ओर ध्यान न देना। राज्यादि का अनुग्रह, व्यापार वृद्धि, गुप्त धन प्राप्ति आदि से धन वृद्धि होने पर उसे मिट्टी के समान समझ कर त्याग देना या धर्म ग्रादि' के निमित्त लगा देना। यदि मर्यादा उपरान्त धन सबधियो को दे, तो उस पर अपनर अधिकार न रखना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । सम्पूर्ण अपरिग्रही कब बनूंगा? यह मनोरथ करना । अपरिग्रह की
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
७० ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ ६. कुविय
: मोना, चाँदी से भिन्न धातु आदि का,यथा परिमारण (घर का सारा विस्तार)
इस प्रकार जो परिमारण किया है, उसके उपरांत अपना करके परिग्रह रखने का पच्चक्खारण (करता हूँ) जावज्जीवाए। एगविहं तिविहेण, न करेमि, मरणसा वयसा कायसा ।
। अतिचार पाठ ऐसे पाँचवे स्थूल परिग्रह : पाँचवाँ स्थूल परिग्रह परिमारणवत के पच,अइयारा परिमाण व्रत के विषय मे जारिणयव्वा न ममायरियन्वा जो कोई अतिचार लगा तजहा ते पालोउं- हो, तो आलोउ१ खेत्त-वत्त्युप्पमारणाइदकमे : क्षेम वस्तु के परिमाण का
अतिक्रमण किया हो, २. हिरण-सुवगप्पमारणा : हिरण्य-सुवर्ण के परिमाण का इक्कमे
अतिक्रमण किया हो, ३. धरण-घरगप्पमारणाइक्कमे : धन-धान्य के परिमारण का
अतिक्रमण किया हो, ४. दुपय-चउप्पयप्पमारणा- : दो पद, चौपद के परिमाण का
अतिक्रमण किया हो, ५. कुवियप्पनागाइक्कमे : कुविय धातु के परिमारण का
अतिक्रमण किया हो, जो मे देवसिमो अइयारो कयो : इन अतिचारो मे मुझे जो कोई
दिन सवधी अतिचार लगा हो,
तो तस्स मिच्छामि दुवकडं ।
इक्कमे
तिस्स मते ! .mmm
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१२- "अपरिग्रह अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी ७१
'अपरिग्रह अणुव्रत' प्रश्नोत्तरी प्र० । स्थूल अपरिग्रह विरमण कितने प्रकार का है ?
उ. तीन प्रकार का है। १. 'जितना परिग्रह वर्तमान मे स्वयं के पास है, उससे डेढे-दूने आदि से अधिक परिग्रह नहीं रक्खंगा। यदि उससे अधिक प्राप्त भी हुआ, तो मैं ग्रहण नहीं करूंगा या धर्म आदि मे व्यय कर दूंगा।' आदि रूप में विरमण करना जघन्य (निम्न प्रकार) का स्थूल परिग्रह विरमण है। २ जितना पास मे है, उतने से अधिक का विरमण करना मध्यम प्रकार का विरमण है। ३ जितना पास मे है, उसमे भी घटा कर अधिक का विरमण करना, उत्तम प्रकार का विरमरण है। शीघ्र मोक्षार्थी को उत्तम प्रकार का विरमरण अपनाना चाहिए। जिसकी प्राप्ति असम्भव है, उसका त्याग करना तो मात्र बाहरी त्याग है। ऐसा त्याग फलदायी नहीं है।
प्र० : क्षेत्र आदि का परिमाण कैसे किया जाता है ?
उ० . जैसे १. मैं धान्यादि आदि के • .."इतने से अधिक खेत, इतनी से अधिक गोचर भूमि, .." इतने से अधिक क्रीडांगरण आदि खुली भूमि नही रक्तूंगा। २...... .." इतने से अधिक तलघर, " ." इतने से अधिक माल खड, ... • इतने से अधिक पर्वतीय घर आदि ढकी भूमि नहीं रक्खंगा। ३-४......... ... ... .. इतने तोले से अधिक चांदी-सोना के घडे हुए आभूषण,....... इतने तोले से अधिक पाट, गिन्नी आदि के रूप में बिना घडी चाँदी, सोना नही रक्खूगा। इसी प्रकार ..... • इतने से अधिक मणि-रत्नादि नहीं रक्खेगा। ५.. ......." इतने से अधिक नौकर,..... ... इतने से अधिक
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२ ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
पक्षी नही रक्खूँगा । ६. इतने से अधिक दुधारू पशु इतने से अधिक वाहन के पशु नही रखूँगा । ७ ............इतने से अधिक मुद्रावाला रोकड धन नही रखूँगा । ८....... इतने से अधिक धान्य, • इतनी से अधिक वनस्पति नही रक्खूंगा । इतने से अधिक कडाई आदि, इतने से अधिक ....... इतने से अधिक पलग आदि, इतने
ε. मोटर आदि, से अधिक वस्त्रादि नही रक्खूँगा । इनका परिमारण घर और व्यापार की दृष्टि से बाँट कर भी रक्खा जा सकता है ।
•
****** •
R
*** 24000
प्र० : किये हुए क्षेत्रादि के परिमारण का उल्लंघन कैसे होता है ?
उ० : जैसे १० खेत रक्खे हो, उनके स्थान पर २० खेत कर लेना आदि प्रकार तो स्पष्ट है ही, अन्य कुछ प्रकार यों हैं - १. अपने खेत के पास ग्रन्य खेत मिलने पर दोनो खेतों की एक वाड वना कर एक खेत गिनना । २. दस ही खेत श्रौर दस ही घर रक्खे हो, पर घर की अधिक ग्रावश्यकता दिखने पर दो-चार खेत घटा कर दो-चार घर बढा लेना । ३ दस खेत से अधिक मिलने पर उसे केवल दूसरो के नाम करना, पर अधिकार मन मे अपना रखना । ४ जितनी अवधि का व्रत लिया, है, उससे पहले अधिक धन की प्राप्ति होने पर धनदाता के पास जमा के रूप मे वह धन रखना आदि ।
'परिग्रह' निबंध
१. सूत्र : १ 'इच्छा हु आागास समा श्ररपंतिया' इच्छा ( परिग्रह की भावना) आकाश के समान अनंत है, उसका प्रत नही या सकता । - उत्तरा० । २. ज्यो लाभ होता है, त्यो संतोष
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१२ 'अपरिग्रह अणुव्रत निबन्ध
महीं होता, वरन् लोभ बढता है। - उत्तरा। ३. सम्पूर्ण लोक • मे सभी जीवो के लिए परिग्रह (प्राण, स्त्री और शेष) से बढकर
और कोई पाश (बन्धन) नहीं हैं। प्रश्न०। ४. मरते समय यहाँ से कोई साथ नहीं चलता!--उत्तरा।
२. उद्देश्य : धनादि को मूच्र्छा के दुःख को मिटाना और इच्छा-रहितता के सुख को प्रकट करना।
। ३. स्थान : स्त्री-राग (मोह) की अपेक्षा धनादि का राग (मोह) मन्द होने से स्त्री-त्याग की अपेक्षा धनादि का त्याग गौण है, अत मैथुन विरमण के पश्चात् परिग्रह विरमरण को पाँचवाँ स्थान दिया है ।।
४. फल : असीम तृष्णाजन्य सकल्प-विकल्प से मुक्ति । विद्यमान धन मे आसक्ति की मन्दता। अभाव में सन्तोष । निद्रा सुख से आवे, यात्रा का कष्ट न हो, नीच की सेवा करनी न पड़े। जन्मान्तर में उक्त फल के साथ निर्धनता और अावश्यक पदार्थों की कमी न हो। स्वत: धन-स्याग की भावना हो
५. कर्तव्य : अपने से अधिक धनवानों की वेश-भूषा, अलंकार, भोजन पान, धन, भवन, उत्सवादि की ओर ध्यान न देना। राज्यादि का अनुग्रह, व्यापार वृद्धि, गुप्त धन प्राप्ति प्रादि से धन वृद्धि होने पर उसे मिट्टी के समान समझ कर त्याग देना या धर्म आदि के निमित्त लगा देना। यदि मर्यादा उपरान्त धन सबधियो को दे, तो उस पर अपना अधिकार न रखना।
६ भावना : सूक्तादि पर विचार करना । सम्पूर्ण अपरिग्रही कब वनूंगा? यह मनोरथ करना । अपरिग्रह की
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४ ।
सुवोध जैन पाठमाला-माग २
अपूर्णता का खेद करना। 'परिग्रह की प्राप्ति में व्यापारादि का कष्ट, रक्षा मे चोरादि की चिन्ता का कष्ट और व्यय में वियोग का कष्ट है।' यो उसके सदा दुःख का चिन्तन करना, परिग्रह मे गृद्ध, दुर्योधन, कोणिक आदि का तथा परिग्रह त्यागी भरत चक्रवर्ती, धन्ना मुनि, अहनक आदि के जीवन चरित पर ध्यान देना।
.
.
पाठ १३ तेरहवाँ ११. 'दिशा व्रत' व्रत पाठ
छठा दिशिवत १. उद दिशि का स्था परिमारण, २. अहोदिशि का यथा परिमारण, ३ तिरियदिशि का यथा परिमारण। इस प्रकार जो परिणाम किया है, उसके उपरान्त स्वेच्छा काया से प्रागे जाकर पाँच पाश्रव सेक्न का पञ्चक्खाएं (करता हूँ): जावज्जीवाए। एगविह तिविहेणं, न करेमि, मरपसा वयसा कायसा।
अतिचार पाठ ऐसे छठे दिशि व्रत के पंच छठे दिशिवत के विषय में अइयारा जारिणयव्वा न समाय जो कोई अतिचार लगा हो, रियव्वा तंजहा ते पालो-तो पोलोउ~
कोई 'दुविहं तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मसा वयसा कायसा" बोलते हैं।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. उड्डदिसि - मारणाइकमे २. प्र होदिसि - मारणाइक्कमे ३. तिरियदिसि मारणाइक्कमे
४. खित्त - वुड्डी
५. सइ अन्तरद्धा
जो मे देवसिश्रो अइयारो को
से
चढूँगा,
सूत्र - विभाग - १३ 'दिशा व्रत' प्रश्नोत्तरी
...
[ ७५
: उड्ड ( ऊँची ) दिशा का परिमाण अतिक्रमण किया हो,
प्रश्नोत्तरी
प्र० : दिशा परिमाण कितने प्रकार का है ?
उ० जिस दिशा में जितना जाना पडे, उससे १.
अधिक, २. उतना र ३ उससे कम को परिमारण करना - यो जघन्य, मध्यम, उत्तम तीन प्रकार का है ।
उ०
: नीची दिशा का परिमार प्रतिक्रमण
किया हो,
दिशा का
परिमाण
: तिरछी अतिक्रमण किया हो,
: (एक दिशा का क्षेत्र घटाकर अन्य दिशा का ) क्षेत्र बढाया हो,
....
: क्षेत्र परिमाण के भूल जाने से पथ का सन्देह पडने पर आगे चला हो, : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई दिन सबधी अतिचार लगा हो, तो
प्र० : ऊर्ध्वं यदि दिशाओ का परिमाण कैसे किया जाता है ?
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
1
१. जैसे मैं निवास स्थान या इतने हाथ से अधिक ऊपर बने
984 ......
इतने हाथ से अधिक ऊँचे
स्थान की भूमि स्तभादि पर नही पर्वत पर नही
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६] सुवोध जने पाठमाला--भाग २ जाऊँगा | ..... इतने हाथ से अधिक वायुयान आदि से आकाश मे ऊपर नही उडूंगा। २. ... · इतने हाथ से अधिक गहरे कुएँ, खान आदि मे नही जाऊंगा। पूर्व मे... "इतने कोस या मीटर से आगे, पश्चिम मे " ... इतने से आगे, उत्तर मे ..." इतने से आगे और दक्षिण मे · · · इतने से आगे नही जाऊँगा। भूमि की स्वत ऊँचाई-नीचाई का प्रागार ।
प्र० . क्षेत्रं-वृद्धि क्यो की जाती है ?
उ० : 'पूर्वादि दिशा की मर्यादित भूमि से आधी भूमि मे भी मुझे जाना नही पड़ता और पश्चिमादि भूमि मे मर्यादित भूमि से अधिक भूमि मे जाना मुझे धनादि की दृष्टि से लाभप्रद हैं' इत्यादि सोचकर ।
प्र० दिशावत से मर्यादित क्षेत्र के बाहर कौनसे पाँच प्राश्रव रुकते हैं ?
उ० जो पहले के पाँच अणुवेत धारण करके पश्चात् छठा व्रत धारण करता है, उसके १ हिंसा, २ झूठ, ३ चोरी, ४ मैथुन और ५ परिग्रह-ये पाँच आश्रव, जो सूक्ष्म रूप से शेप रहे हैं, वे रुकते है तथा जिसने पहले अणुव्रत धारण किये विना छठा 'अणुव्रत धारण किया है, उसे ये पाँचो पाधव स्थूल और सूक्ष्म व सर्व प्रकार से रुकेंते हैं।
दिशावत' निबन्ध
१. सूक्त : इस सम्पूर्ण लोक की एक भी प्रदेश (कोना) ऐसा शेप नहीं, जहाँ जीव पहुँचा न हो या रहा न हो। सर्वत्र जीव ने अनन्त काल व्यतीत किया है, पर कभी भ्रमण से तृप्ति
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१३. 'दिशा व्रत' निबन्ध [७७ नही हुई, न ही भविष्य मे वैराग्य के बिना तृप्ति हो सकती है। -मंग।
२. उद्देश्य : दिशा की मर्यादा करके स्थावर हिंसा आदि को भी घटाना।
३. स्थान : श्रावक अपनी शक्ति की कमी के कारण पाँच अणुव्रतो मे बडी हिंसा आदि बडे पॉच पाश्रवो का ही त्याग करता है। स्थावर हिंसा, सापराध तथा प्रारम्भी त्रस हिंसा, सूक्ष्म झूठ, सूक्ष्म चोरी, स्वस्त्रोगमन, विवाह, मर्यादित-परिग्रह पर ममता आदि छोटे आश्रवो का त्याग नही कर पाता, पर जितना सम्भव हो उतना उनका भी त्याग आवश्यक है। दिग्व्रत दिशा की मर्यादा करके उनका अधिकाश क्षेत्र मे त्याग करा देता है, अतः सूक्ष्म पञ्चाश्रव का त्याग कराने वाले तीन गुणवतो मे मुख्य होने के कारण दिग्व्रत को गुणवतो मे पहला स्थान दिया है तथा स्थूल पञ्चाश्रव त्याग की अपेक्षा सूक्ष्म पञ्चाश्रव. का त्याग गौरण होने से इसे पाँच अणुव्रतो के पश्चात् छठा स्थान दिया है।
४. फल : मर्यादित क्षेत्र से बाहर के पाँचो आश्रवो के सकल्प-विकल्प से मुक्ति। स्वजन, स्वदेश, स्वधर्म का वियोग न हो, यात्रा-दुर्घटना आदि न हो। परराष्ट्र को आक्रमण, हस्तक्षेप आदि का दु ख न हो। जन्मान्तर मे वह ऐसे स्थान और स्थिति में उत्पन्न हो कि उसे अन्यत्र कही भटकना न पडे । ' प्राप्त स्थान और स्थिति मे भी 'विरक्त रहे। अन्त में मोक्ष प्राप्त करके अचल उच्च स्थिति प्राप्त कर ले।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
५ कर्त्तव्य : पर्यटन की वृत्ति आदि कम करना, राज्यवृद्धि, व्यापार-वृद्धि आदि की भावना मन्द करना, विदेश-स्त्रीकथा आदि न सुनना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । दिशा परिमारण न करने वाले सुभूम पद्मनाभ आदि के चरित्र का चिन्तन करना।
पाठ १४ चौदहवाँ । १३. 'उपभोग परिभोग व्रत' व्रत पाठ ।
सातवां व्रत उपभोग
: उपभोग (एक बार ही भोगा जा सके,
___ जैसे अन्न) परिभोग
: परिभोग (अनेक बार भोगा जा सके,
जैसे वस्त्र) विहि
: विधि का (ऐसे पदार्थों की जाति का) पच्चक्खायमारणे : प्रत्याख्यान करते हुए (सख्या, भार,
वार, आदि से) १. उल्लरिगया-विहि : (पोछने के) अगोछे की विधि
(जाति) २. दंतरण-विहि : दतौन की विधि ३. फल-विहि : (केशादि के उपयोगी) फल की विधि ४ अभंगरण-विहि : अभ्यगन (योग्य तैलादि) की विधि
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१४ उपभोग परिभोग' व्रत पाठ ७६ ५. उन्वट्टरण-विहि : उबटन (योग्य पीठी आदि) की विधि ६. मज्जरण-विहि
: स्नान (योग्य जल) की विधि ७. वत्थ-विहि : (पहनने योग्य) वस्त्र की विधि ८. विलेवरण-विहि
: विलेपन (योग्य चन्दन आदि) की : विलपन (याग्य चन्द
विधि,
६. पुप्फ-विहि
: फूल (तथा फूलमाला आदि) की
विधि १०. प्राभरण-विहि: (अगूठी आदि) प्राभरण की विधि ११. धूव-विहि : (अगर तगरादि) धूप की विधि
... भोजन में काम आने वाले
१२. पेज्ज-विहि : (ध आदि) पेय की विधि १३. भक्खरण-विहि : (घेवर आदि) मिठाई की विधि १४. प्रोदरण-विहि : (राँधे हुए) ओदन (चावल आदि)
की विधि १५. सूप-विहि
: (मग, चना आदि) सूप (दाल) की
विधि
(दूध-दही आदि) विकृति की विधि १७, साग-विहि : (भिण्डी आदि सूखे या हरे) शाक
की विधि १८. महुर-विहि : (सूखे हरे) मधुर (फल) की विधि १६. जीमण-विहि : (रोटी, पूरी आदि) जीमने के द्रव्यों
की विधि २०. पारणीय-विहि : (पीने योग्य) पानी की विधि २१ः मुखवास-विहि : (लोंग, सुपारी आदि) मुखवास विधि २२. वाहण-विहि : (घोडा, मोटर आदि) वाहन की विधि
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
50 ]
२३. उवाहरण-विहि २४. सयरण - विहि
२५. सचित्त - विहि २६. दव्व विहि
इत्यादि का यथा परिमाण
किया है
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
: जूते, मोजे आदि की विधि : ( सोने वंठने योग्य) वस्त्र पलगादि की विधि
ऐसा सातवाँ उपभोग परिभोग
दुविहे, पण्णत्ते
तंजहा - १. भोयरा
य
२. कम्मो य ।
: ( नमक पानी यादि) सचित्त की विधि : ( भिन्न नाम व स्वाद वाले) पदार्थो की विधि
: तथा घडी, पात्र प्रादि शेष रहे हुए द्रव्यों का परिमारण करता है
इसके उपरान्त उपभोग परिभोग वस्तुनों को भोग निमित्त से भोगने का पच्चवखारण ( करता हूँ) जावज्जीवाए । एगविहं तिविहेां न करोमि, मरगसा वयसा कायसा ।
प्रतिचार पाठ
भोरणाओ
समरणोवास एवं पंच प्रइयारा जारिणयव्वा न समायरियन्वा तं जहा --- ते श्रालोडं-
: सातवाँ उपभोग परिभोग
: ( दो प्रकार का कहा गया है
: वह इस प्रकार
: भोजन की अपेक्षा से और
: कर्म की अपेक्षा से ।
: भोजन की अपेक्षा)
: परिमारण व्रत के विषय मे जो कोई अतिचार लगा हो, तो ग्रालो ---
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-- १४. 'उपभोग परिभोग व्रत व्रत पाठ [ ८१
१. सचित्ताहारे
: पञ्चवखारण उपरात सचित्त आहार किया हो,
२. सचित्त-परिबद्धा हारे : सचित्त ( वृक्षादि से ) प्रतिबद्ध ( लगे हुए प्रचित गोद आदि) का आहार किया हो
३. प्रप्पउलि- श्रसहि
भवखरणया
- ४. दुप्पउलि-प्रोसहि भक्खरण्या
किया हो
: ( तथा कर्म की अपेक्षा )
कम्मश्रणं समरणोवास एणं परणरस कम्मादारगाई : पन्द्रह कर्मादान
: श्रावक को
जारिणयन्वाइ न समायरियन्वाइं तजहा-ते श्रालोज
१ इंगालकम्मे २ वरणकम्मे
: दुष्पक्व (अधपके या विधि से पके उबी भुट्टे आदि का ) का आहार किया हो
५. तुच्छो सहि भवख गया: तुच्छ औषधि ( अल्प सार वाले, सीताफल, गन्ना आदि ) का आहार
३. साडीकम्मे
४ भाडीकस्मे
५ फोडीकस्मे
६. दंत वाणिज्जे
७. लवखवारिगज्जे
1
: अपक्व (ग्रचित्त न बने हुए) का आहार किया हो
का
: अंगार का काम किया हो,
: वन का काम किया हो,
: गाडी आदि का काम किया हो,
: जो जानने योग्य हैं, किन्तु
: आचरण करने योग्य नहीं हैं, : उनके विषय में जो कोई प्रतिचार लगा हो तो, प्रालोङ -
: भाडे का काम किया हो,
: फोडने का काम किया हो, : दाँत श्रादि का वाणिज्य किया हो,
: लाख आदि का वाणिज्य किया हो,
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर ।
सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
८. रस-वाणिज्जे : रस का वाणिज्य किया हो, है. विस-वाणिज्जे : विप आदि का वाणिज्य किया १०. केस-वाणिज्जे : केश वालो का वाणिज्य किया ११. जेत-पीलग-कम्में : यन्त्रो का काम किया हो, १२. निल्लछरग-कम्मे : नपुसक बनाने का काम किया है १३. दवग्गि-दावरगया : खेतादि मे आग लगाई हो, १४. सर-दह-तलाय- सरोवर, द्रह, तालाब आदि सुख
सोसरगया १५. असई-जरण : वेश्या आदि का पोपण किया है योसरगया 'जों में देवसियो : इन अतिचारों में से मुझे जो अइयारो को "दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
: हो,
'उपभोग-परिमोग व्रत प्रश्नोत्तरी
प्र० • जब सचित्त को पका कर खाने में सचित्त हिंसा तो होती ही हैं, पकाने से अग्नि और उससे त्रस उ की भी हिंसा होती है, तब सचित्त को बिना पकाये सीधा न खाया जाय, पका कर क्यो खाया जाय ?
उछ 'सचित्त पकाने के लिए सूत्रकार आदेश नहीं दें यह पहले ध्यान मे ले लेना उचित्त है। अब उत्तर यह है १ पका कर खाने में हिंसा, जीवो की गणना की अपेक्षा आ होती है, किन्तु सचित्त को सीधे मुंह मे डाल कर खाने मे : की दृष्टि से हिंसा अधिक होती है, क्योकि सीधे सचित्त को मुंह खाने मे दया का भाव मन्द माना गया है। २. दूसरी बात है कि सचित्त को अचित्त बनाकर उपभोम मे लेने के लिए,
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१४ 'उपभोग परिभोग व्रत' प्रश्नोत्तरी [ ८३ अग्नि से पकाना ही एक मात्र मार्ग नहीं है। गृहस्थ कई सचित्त वस्तुयो मे अन्य वस्तुएँ मिलाकर उन्हे अचित्त बनाते है, जैसे धोवन आदि । । 'कई सचित्त वस्तुएँ पीस कर उन्हें अचित्त बनाते है, जैसे जीरा आदि । । कई सचित्त वस्तुएँ सुखाकर प्रचित्त बनाते हैं, जैसे मोठे नीम के पत्ते आदि। ऐसा करने में अग्नि की हिंसा टल जाती है, अत. गणना की दृष्टि से भी हिंसा अधिक नहीं बढ़ती । ३. तीसरी बात यह है कि सचित के आहार प्रत्याख्यान लेने वाला पकाने के आरम्भ कर प्ररपाख्यान नहीं करता। अत. बिना पकाये भी उसे पकाने की क्रिया आती ही रहती है। इसलिए पकाने से उसे पकाने का सर्वथा नया पाप लगता हो-यह बात भी नही है। ४. चौथी बात यह है कि सचित्ताहार के त्यागी को स्वय पकाने का था अन्य मार्गों से सचित्त को अचित्त बनाने का प्रारम्भ करना ही पडे-~-यह अनिवार्य नहीं है। यदि वह चाहे. तो स्वय इनके प्रारम्भ कर दो करण तीन योग आदि से त्याग भी कर सकता है और साधु के समान प्राप्त अचित्त और पक्व पदार्थ का उपयोग कर सकता है। ५ पाँचवी बात यह है कि सचित्त को जानकर, ही सदा अचित्त बनाया नही जाता, कई बार वे स्वत:ही अचित्त बनते है, जैसे रोटी, सहज निष्पन्न धोवन, स्नानार्थ बना- शेष , बचा गरम जल आदि। यदि विवेक रक्खा जाय, तो सचित्त कर त्यागी नये प्रारम्भ का त्याग कर सहज-निष्पन्न, अचित्त और पक्व पदार्थों से काम चला सकता है। . . . .
प्र० : सचित्त त्याग के अन्य लाभ बताइए।
उ० : १. स्वाद विजय, २ जहाँ अचित्त बनाकर खाने की सुविधा न हो, वहाँ सतोष, ३. खरबूजा आदि अधिकाश पदार्थ, जिन्हे पकाकर नहीं खाये जाते, उनका सर्वथा त्याग,
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४ ]
सुवोध जैन पाठमाला
४. पर्व - तिथियो को घर मे आरम्भ कम होना ( हरी त्याग की दृष्टि से ) । इत्यादि कई लाभ है । स्वास्थ्य की दृष्टि से पक्व खानेवाले को रोग कम होता है ।
-
-भाग २
प्र० : 'मचित्ताहारे' श्रादि पाँच प्रतिचारो से क्या समझना चाहिए ?
३ उपभोग- परिभोग सम्बन्धी जितने भी बोलो की मर्यादा की हो, उनके प्रति मरण के भी सभी अतिचार समभने चाहिएँ ।
प्र० : कर्मादान किसे कहते हैं ?
उ० : जिनसे ज्ञानावरणीयादि कर्मों का अधिक बन्ध हो, ऐसे कार्य या व्यापार को ।
प्र० : १. इगाल - कम्मे (गार कर्म) किसे कहते हैं ?
उ० . जिसमे ग्रग्निकाय का, उसके आश्रित जीवो का और उससे मरने वाले श्रस जीवो का महारम्भ हो, ऐसे काम को । जैसे कोयला, ईंट आदि बना कर बेचना, विजली उत्पादन करके बेचना, लुहार, सुनार, भडभूंजे आदि काम
करना ।
प्र० : २ वरणकम्मे ( वनकर्म) किसे कहते हैं ?
उ० : जिसमे वनस्पतिकाय का और उसके ग्राश्रित त्रस जीवो का महारम्भ हो, ऐसे काम को । जैसे वनो का ठेका लेकर वृक्षादि काट कर बेचना, वृक्ष, फल, फूल, पत्ते हरी घास आदि काट कर बेचना, दाले बनाना, आटा पीसना, चाँवल निकालना आदि ।
प्र० : ३. साडीकम्मे ( शकट कर्म) किसे कहते हैं ?
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - १४. 'उपभोग परिभोग व्रत प्रश्नोत्तरी' [ ८५
यन्त्रो के काम को । जैसे गाडी श्रादि वाहन के, हलादि खेती के, चर्खे श्रादि उत्पादन के, इत्यादि प्रकार के यन्त्रो को बनाना, खरीदना, बेचना ।
·
प्र० : ४ भाडीकम्मे ( भाटीकर्म) के उदाहरण दीजिए ।
उ० : जैसे दासादि मनुष्य, बैलादि पशु, घर, यन्त्र आदि भाडा लेकर देना । भाडे के लिए घर आदि बनाना, भाडा लेकर माल का स्थानान्तरण करना आदि ।
प्र०. ५. फोडी कम्मे (स्फोटी कर्म ) किसे कहते हैं ?
उ० : जिसमे पृथ्वीकाय का और उसके आश्रित जीवो का महारभ हो - ऐसे काम को । जैसे हल से भूमि फोडना ( खेती करना), कुदालादि से मिट्टी, पत्थर, लोहा, आदि निकालना, पत्थर आदि घडना, जलाशय के लिए या पेट्रोल आदि के लिए या सडके बनाने के लिए पृथ्वी खोदना श्रादि ।
प्र० : ६. दत वाणिज्जे (दन्तवारिणज्य ) किसे कहते है ?
उ० : त्रसकायिक जीवो के अवयवो का व्यापार करने को । जैसे दाँत, शख, केश, चमडा आदि खरीदना बेचना ।
По ७. लवखवाणिज्जे ( लाक्षा वाणिज्य ) किसे कहते हैं ?
उ० : जिसमे त्रस जीवो की बहुत विराधना हो - ऐसा व्यापार करने को । जैसे लाख, चपड़ी, अधिक काल का धान्य आदि का क्रय-विक्रय करना ।
प्र० : ८. रसवाणिज्जे ( रस वाणिज्य) किसे कहते है ?
'
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६ ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
उ० . रसवाले या प्रवाही पदार्थ, जिससे मद वढे व त्रस जीवो की हिंसा यादि हो, उनका क्रय-विक्रय करने को । जैसे मदिरा, मधु, घी, तेल, गुड, घासलेट, पेट्रोल आदि का क्रयविक्रय करना ।
प्र० . ६. विसवारिगज्जे (विषवाणिज्य ) किसे कहते हैं
?
R.
उ० : त्रस -स्थावर के घातक पदार्थों का व्यापार करने को । जैसे सख्यादि विष, खड्गादि शस्त्रास्त्र टिड्डी आदि को मारने वाले पाउडर ग्रादि का क्रय-विक्रय करना ।
,
१
Я о १०. केसवाणिज्जे (केश वाणिज्य ) किसे कहते हैं ?
उ० : त्रम जीवो का व्यापार करने को । जैसे चमरीगाय, हाथी, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल, आदि पशु, मयूर कबूतर आदि पक्षी, दासादि मनुष्य आदि का क्रय-विक्रय
करना।
प्र० : ११. जन्तपीलकम्मे ( यन्त्र-पीड़न कर्म ) किसे कहते हैं ?
उ० वनस्पतिकायादि को यन्त्र मे पीलने का महारभी काम और जिन यन्त्रो को चलाते हुए त्रस जीव भी पिल जायेंऐसे काम को । जैसे कोल्हू, घानी, झीन आदि में गन्ना, तिल, रूई ग्रादि पीलना, पनचक्को चलाना, मिल चलाना आदि ।
प्र० : १२. निल्लंछकम्मे (निर्लाञ्छन कर्म ) किसे कहते हैं ?
ir
उ० : मनुष्य, पशु यादि को नपुंसक बनाने का, उनके गोपांग छेदने का, या डाम लगाने का काम करना ।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१४ 'उपभोग परिभोग व्रत' प्रश्नोत्तरी [ ८७ प्र० १३. दवग्गि-दावरणया (दवाग्नि दापनता) किसे
कहते है ?
. , उ विशेष और उत्तम खेती के लिए खेत मे या सिंह, सर्पादि विनाग के लिए वन मे आग लगाना आदि को।
प्र० :-१४. सर-दह-तलाय-सोसरणया (सर-द्रह-तडागशोषणता) किसे कहते हैं ?
उ० • जिसमे अप्काय तथा उनके आश्रित स जीवों का महा आरम्भ हो-ऐसे काम को। जैसे सरोवर, गह, तालाब, आदि जलाशयो का पानी निकाल कर उनकी भूमि मे खेती करने के लिए उन्हें सुखाना या प्राय के लिए उनका पानी नहर आदि से खेत अादि मे किसान आदि को बेचना ।
प्र० - १५. असईजरणपोसण्या (असतीजन पोपणता) किसे कहते हैं ? ... उ० - असत् कार्य करने वालो का व्यापारार्थ पोषण करना । जैसे वेश्यावृत्ति के लिए अनाथ कन्या आदि का पोषण करना । शिकार के लिए शिकारी कुत्तो आदि का पोषण करना । उन्हे शिकारादि के योग्य प्रशिक्षण देना। उनसे वैसे कार्य कराकर प्राजीविका चलाना या उनका वैसा पोषणप्रशिक्षण करके उन्हे वेचना। (अनुकम्पा की दृष्टि से किसी का पोषण करना निषिद्ध नही है।) इस कर्मादान का 'असयति (साधु से अन्य) का पोषण करना।' यह अर्थ अशुद्ध है।
प्र० क्या कर्मादान पन्द्रह ही होते है ?
उ० : नही, जो सातवे व्रत मे १५ कर्मादान बताये है, उनसे दण्डपाल (जेलर का काम) बडा जुना खेलना आदि जितने
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ भी महा प्रारम्भी काम हैं, वे सब कर्मादान मे समझने चाहिएँ।।
प्र० जो कुम्हार, सुतार, किसान आदि अङ्गारकर्म प्रादि करते है, क्या वे कर्मादानो की अपेक्षा सातवाँ व्रत नहीं अपना सकते ?
उ० पन्द्रह कर्मादानो मे जो असतिजन-पोषणता आदि अत्यन्त ही निन्दनीय कर्म हैं और स्पष्ट ही त्रसादि जीवो की बडी हिंसा के व वेश्या-मैथुन आदि महापाप के कारण है, उन्हें यथासम्भव छोड ही देना चाहिए। शेप जिनमे पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवो की हिसा हो, उनका परिमारण कर लेना चाहिए। परिमारण करने वाले कुम्हार, किसान आदि कर्मादानो की अपेक्षा भी सातवे व्रतधारी ही माने जाते हैं।
विशेष धन कमाने की भावना छोडकर मुख्य रूप से कुटुम्ब निर्वाह आदि की भावना से अत्यन्त अल्प खेती आदि करने वाले श्रावक कर्मादानी होते हुए भी महारम्भी नही समझे जाते।
प्र० : पाँचवाँ, छठा और सातवां व्रत प्राय एक करण तीन योग से क्यों लिये जाते हैं ?
उ० : क्योकि श्रावक अपने पास मर्यादा उपरान्त परिग्रह हो जाने पर, जैसे वह उसे धर्म-पुण्य मे व्यय करता है, वैसे ही वह अपनी पुत्री आदि को भी देने का ममत्व त्याग नही पाता।
इसी प्रकार जिसका अब कोई स्वामी नही रह गया हो, ऐसा कही गडा हुआ परिग्रह मिल जाय, तो भी वह उसे अपने स्वजनो को देने का ममत्व त्याग नहीं पाता।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग - १४. 'उपभोग - परिभोग व्रत' निबन्ध
[ 58
अथवा अपने पुत्रादि, जिन्हे परिग्रह बाँटकर पृथक् कर दिया हो, उनके परिग्रह - वृद्धि में परामर्श देने का उसे प्रसग श्रा जाता है ।
इसी प्रकार छठे सातवे व्रत की भी स्थिति है । जैसे श्रावक अपनी की हुई दिशा की मर्यादा के उपरांत स्वयं तो नही जाता, पर कई बार उसे अपने पुत्र आदि को विद्या, व्यापार, विवाह आदि के लिए भेजने का प्रसंग प्रा जाता है ।
ऐसे ही उपभोग परिभोग वस्तुओं की या कर्मादानों की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत तो वह स्वयं भोगोपभोग या कर्म नही करता, परन्तु उसे अपने पुत्रादि को भोगने के लिए या करने के लिए कहने का अवसर श्रा जाता है ।
इसलिए श्रावक पाँचवे, छठे और सातवे व्रत का प्रायः "मैं नही करूँगा' । इतना ही व्रत ले पाता है, परन्तु 'मैं नहीं कराऊँगा - यो भी व्रत नहीं ले पाता । विशिष्ट श्रावक हन व्रतों का दो करण तीन योग आदि से भी प्रत्याख्यान कर सकते हैं ।
'उपभोग - परिभोग व्रत' निबंध
पर अब
१. सूक्त : इस विश्व के प्रत्येक परमाणु को श्रात्मा शुभ-अशुभ सभी प्रकारो से श्रनत बार भोग चुका तक भोग से तृप्ति नहीं हुई, न ही भविष्य मे वैराग्य के बिना तृप्ति हो सकती है । २. भोगी ससार में परिभ्रमण करता है, श्रभोगी मुक्त हो जाता है ।
२. उद्देश्य : उपभोग- परिभोग की तृष्णा मर्यादित और मन्द करना तथा कर्म - व्यापार मे महा आरम्भ घटाना ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
९०]
सुबोध जन पाठमाला-भाग २
३ स्थान : सूक्ष्म पञ्चाश्रव १ एक तो अर्थ (प्रयोजन) से होता है और २. दूसरा अनर्थ (निष्प्रयोजन) होता है। अर्थ दो प्रकार का है~१ एक तो भोगोपभोग और २. दूसरा भोगोपभोग की प्राप्ति के लिए कर्म या व्यापार (या सेवा, नौकरी आदि)। मर्यादित क्षेत्र में जो अनर्थ से पञ्चाश्रव होता है, वह तो सर्वथा त्यागा जा सकता है, पर अर्थ से होने वाला पञ्चाधव सर्वथा त्यागा नहीं जा सकता। पर उसमे से जो मद्यपान, मासाहार आदि भोगोपभोग और जो असतिजन पोषणता प्रादि कर्म या व्यापार, स्थूल पञ्चाश्रव के अधिक निमित्त बनते हैं, उनका सर्वथा,त्याग किया जा सकता है तथा शेप का परिमारण किया जा सकता है।
इनमें अनर्थ पञ्चाश्रव की अपेक्षा अर्थ पञ्चाश्रव का त्याग कठिन है, अत. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत को अनर्थदण्ड विरमण से पहले स्थान दिया है और दिग्बत की अपेक्षा इस व्रत से सूक्ष्म पञ्चाश्रव का त्याग कम होता है, अतः इसे गुणवतो मे दूसरा स्थान दिया है ।
४. फल : मनुष्य के भोगोपभोग और कर्म एव व्यापार में आर्यता उत्पन्न होती है। अनार्य भोगोपभोगादि के तथा अमर्याद भोगोपभोगादि के संकल्प-विकल्प से मुक्ति होती है । आवश्यकताएँ घटती है। जीवन त्यागमय बनता है। धर्म के लिए अधिक समय वचता है। जन्मान्तर मे उक्त फल के साथ आत्मा आर्य भोगोपभोग से ममृद्ध तथा आर्य कर्म एवं आर्य व्यापारयुक्त कुल मे जन्म लेता है। वहाँ उसकी भोगोपभोगादि मे तथा व्यापारादि में अरुचि होती है। वह सतोषप्रधान होता है। अन्त मे वह मुक्त बनकर भोगोपभोग
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१५ 'अनर्थ दण्ड व्रत' व्रत पाठ
६१
की इच्छा और कर्म व्यापार सम्बन्धी आवश्यकता के बन्धन से रहित हो जाता है।
५. कर्त्तव्य : सादा रहन-सहन, सादा भोजन-पान, धूमपानादि व्यसन का त्याग, इन्द्रिय और मन पर अकुश, अल्प आय मे सन्तोष इत्यादि।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना। भोगोपभोग से दुःख पाने वाले हरिण, पतग, सर्प, मत्स्य, महिष आदि के दृष्टान्तो पर तथा भोगोपभोग के त्यागी धन्ना मुनि, काली महारानी आदि के चरित्रो पर ध्यान देना।
पाठ १५ पन्द्रहवाँ १३. 'अनर्थ दण्ड व्रत' व्रत पाठ
पाठवाँ
: आठवां अरणद्वादण्ड : अनर्थ दण्ड (बिना काम का पाप) विरमरण व्रत। : विरमरण व्रत चउविहे
: चार प्रकार का अरगट्ठा-दण्डे : अनर्थ दण्ड पएरगत्ते-तंजहा : कहा गया है, वह इस प्रकार १. अवज्झारणाचरिए : अप (आर्त रौद्र) ध्यान करना २. पमायाचरिए : प्रमाद करना ३. हिंसप्पयारणे : हिंसा आदि पापो के साधन देना
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२ ] ४. पावकम्मोचएसे
: पापयुक्त काम का उपदेश देना
एवं प्राठवाँ श्ररगट्ठा दण्ड- सेवरण का पच्चवखारण जिसमें
भाठ आगार
१. श्राए वा
२. राए वा
३. नाए वा
४. परिवारे वा
५. देवे वा
६. नागे वा
७. भूए वा
८. जक्खे वा
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
: भूत यादि अथवा
: यक्ष आदि व्यन्तर देवो के लिए ग्रथवा : इत्यादि के लिए किया जाने वाला
: अर्थ दण्ड रखकर
: शेष ग्रनर्थ दण्ड का पच्चवखारण
जावज्जीवाए । दुविह तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि,
एत्तिएहि प्रागारेहि
अन्नत्थ
मरणसा वयसा कायसा
---
: ग्रूपने ( स्वय केले के ) लिए अथवा : राजा (ग्रादि शासको) के लिए अथवा : ज्ञाति ( जाति ग्रादि) के लिए अथवा : सेवक भागीदार आदि के लिए अथवा
: वैमानिक - ज्योतिपी देवो के लिए
: भवनपति देवो के लिए अथवा
प्रतिचार पाठ
ऐसे आठवें अनर्थ दण्ड विरमण आठवे ग्रनर्थं दण्ड विरमण व्रत के पंच श्रइयारा जारिणयव्वा
-
न समायरियत्वा तं जहा श्रालोउं१. कंदप्पे
व्रत के विषय मे जो कोई ग्रतिचार लगा हो, तो श्रालोउ
२. फुक्कुइए ३. मोहरिए
ते
: काम विकार पैदा करने वाली (या बढ़ाने वाली ) कथा की हो,
: भण्ड (ज्यो काम ) कुचेष्टा की हो, : मुखरी (निरर्थक) वचन बोला हो,
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१५ 'अनर्थ दण्ड प्रत' प्रश्नोत्तरी
[६३
४. संजुत्ताहिगरणे : अधिकरण (हिंसा के साधन) जोड
रक्खा हो, ५. उवभोग-परिभोग : उपभोग-परिभोग (के द्रव्य) अधिक प्राइरित्ते
बढाया हो, जे मे देवसिप्रो : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई अइयारो को दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो
तस्स मिच्छा मि दुक्कड । 'अनर्थ दण्ड व्रत' प्रश्नोत्तरी
प्र० : 'अपध्यान' किसे कहते हैं ?
उ० रौद्र ध्यान करना, बिना कारण प्रार्तध्यान करना तथा सकारण तीव्र पार्तध्यान करना ।
प्र० . 'पमायाचरिए' किसे कहते हैं ?
उ० · जैसे घर, व्यापार, सेवा आदि के कार्य करते समय बिना प्रयोजन हिंसादि पाप न हो, सप्रयोजन विशेष न होइसका ध्यान न रखना। हिंसादि के साधन या निमित्तो को जहाँ-तहाँ, ज्यो-त्यो रख देना। घर, व्यापार, सेवा आदि से बचे हुए अधिकाश समय को इन्द्रियो के विषयो मे (सिनेमा, शतरज आदि मे) व्यय कर देना।
प्र० : शिक्षा, अनुभव प्रादि देने वाले नाटक या सिनेमा प्रादि देखना भी अनर्थदण्ड है क्या ?
__उ० : 'इन्हे देखना सदा सबके लिए अनर्थ दण्ड होता है।' ऐसा एकान्त तो नही है, पर नाटक, सिनेमा आदि अधिकतया विषय, कषाय, विकथा भादि के साधन होते हैं।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४ ]
सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ अत व्यवहार-रक्षा के लिए इन्हे अनर्थ दण्ड समझ कर न देखना उपयुक्त है। पर यदि कोई देखना ही चाहे, तो उसे व्यवहार-रक्षा के लिए इनकी मर्यादा करके अनर्थ दण्ड मे आगार के रूप में रख लेना उचित है।
प्र० हिंसप्पयाणे' किसे कहते है ?
उ० : हिसा आदि पापो के साधन अस्त्र-शस्त्रादि या तत्सम्वन्धित साहित्य (जासूसी उपन्यास आदि) दूसरो को देना।
प्र० . पाप कर्मोपदेश के दृष्टान्त दीजिए।
उ० . जैसे किसी को कहना-'कदमूल, मद्य, मास आदि का सेवन करने से स्वास्थ्य और शक्ति बढती है (हिंसा), या न्यायालय मे इस प्रकार झूठ बोलने से तथा झूठी साक्षी देने से तुम सदोष होते हुए भी बच जायोगे (झूठ), या सरकारी पद पाये हो, तो कुछ बूंस आदि करके पैसा बनायो (चोरी), या जीवन को सुखमय व्यतीत करने के लिए दूसरा विवाह कर लो (मैथुन), या एक दुकान या एक मिल नई खोल लो (परिग्रह) इत्यादि।
प्र. 'सजुत्ताहिगरणे' किसे कहते है ?
उ० : पृथक्-पृथक् स्थानो पर पडे हुए शस्त्रो के अवयव, जैसे शिला और शिलापुत्र (लोढी), धनुष्य और तीर, बन्दूक और गोली-इनको मिला कर एक स्थान पर रखना, शस्त्रो का विशेष सग्रह रखना।
' प्र० : कन्ददि से कौन-कौनसे अनर्थदण्ड होते हैं ?
उ०. कन्दर्प और कौत्कुच्य से अपध्यानाचरण और प्रमादाचरण होता है। मौखर्य से पापकर्मोपदेश हो सकता
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१५ 'अनर्थ दण्ड व्रत' निबन्ध
[
५
है। सयुक्ताधिकरण से हिंसा प्रदान हो सकता है। उपभोग-परिभोगातिरिक्त से 'हिसा प्रदान और प्रमादाचरण होता है।
'अनर्थ दण्ड व्रत' निबन्ध
१ उद्देश्य · अनर्थ दण्ड के प्रति विवेक उत्पन्न करके अनर्थदण्ड रोकना।
२. स्थान : अर्थदण्ड की अपेक्षा अनर्थदण्ड का त्याग सरल होने का कारण अनर्थदण्ड विरमण का उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के पश्चात् गुणवतो मे तोसरा स्थान रक्खा गया है। विवेक की अपेक्षा देखा जाय, तो यह व्रत दिग्वत और भोगोपभोग व्रत की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। अत एक स्थान पर इसे गुरगनतो में पहला स्थान भी दिया है।
- ३. फल ': सम्पत्ति, समय और शक्ति की बचत हो। बुद्धि व जीवन निर्मल रहे, अविवेकजन्य अकस्मात् दुर्घटना, अग्निकाड आदि न हो। वचन से महाभारत जैसे वैर-विरोध, गृह-युद्ध आदि न हो। लोक, विवेक की प्रशसा करे। जन्मान्तर में उक्त फल के साथ अकारण शत्र न बने, अकारण असत्य आपेक्ष आदि न लगावे, अकारण अन्य कोई छोटी-मोटी आपत्तियाँ न आवें।
CE
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
पाठ १६ सोहलवा १४. 'सामायिक व्रत' व्रत पाठ
नववा
: नववा सामायिक व्रत । : समभाव की आय वाला व्रत । सावज्ज जोग : सावध (पापसहित) योग का पच्चवखामि
: प्रत्याख्यान करता हूँ। जावनियम
: यावत् (एक मुहूर्त आदि) नियम तक पज्जुधासामि : (इस व्रत का पालन करता हूँ
दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मरणसा वयसा कायसा
मनोरथ पाठ ऐसी मेरी सद्दहणा : 'सामायिक का यह स्वरूप है और
यह करने योग्य है ?' ऐसी मेरी
श्रद्धा है प्ररूपणा तो है : अन्य के समक्ष भी ऐसा ही कहता हूँ
सामायिक का अवसर आये सामायिक करूँ, तव फरसना (पालन) करके शुद्ध (निर्मल) होऊँ।
-
करेमि भन्ते । सामाइय' । तस्स भन्ते । • • • ४। दोनों स्थानों पर इतना पाठ और मिला(फर इस प्रत पाठ से सामायिक ली जाती है। *प्राय सामायिक लेकर प्रतिक्रमण किया जाता है, अतः उस समय यह मनोरथ पाठ नहीं बोलना चाहिये।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१७. 'दिशावकासिक व्रत' व्रत पाठ [ ६७
अतिचार पाठाऐसे नववें सामायिक व्रत के पंच नववे सामायिक व्रत के विषय अइयारा जारिगयव्वा न मे जो कोई अतिचार लगा समायरियव्वा तंजहा - ते हो, तो पालोउपालो१. मरण-दुपारणहारणे : मन' २. वय-दुरपरिणहाणे : वचन ३ काय-दुप्परिणहाणे : काया के अशुभ योग प्रवर्ताये हों ४. सामाइयस्स सइ : सामायिक की स्मृति (कब ली ? प्रकररगया
आदि) न की हो, ५ सामाइयस्स अरण- : समय पूर्ण हुए बिना सामायिक चट्ठियस्स करण्यापारी हो, जो मे देवसियो : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई अइयारो को ' दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
पाठ १७ सत्रहवाँ १५. 'दिशावकासिक व्रत' व्रत पाठ
दसवाँ देसावगासिक व्रता दिन-दिन प्रति प्रभात से प्रारम्भ करके पूर्वादिक छहों दिशा मे जितनी भूमिका की मर्यादा रवखी
इस अतिचार व प्रतिक्रमण पाठ से सामायिक पालरे जाती है । करेमि भते । देसावगासिय ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
८]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
है, उसके उपरान्त प्रागे जाने का तथा दूसरों को भेजने का पचक्खाण, जाव प्रहोरतं पज्जुवासामि दावह तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मासा वयसा कायसा, जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी है, उसमे जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है, उसके उपरांत उपभोग परिभोग निमित्त से भोग भोगने का पञ्चवखारण, जाव प्रहोरत्तं पज्जुवासामि, एगविहं तिविहेणं, न करोमि, मरणसा वयसा कायस ा + *
अतिचार पाठीं
ऐसे दश दिशाantशिक व्रत के पंच इयारा जाणिवा न समायेरिर्यव्वा तंजहा ते श्रालोउं -
१. श्रावणप्प
२. पेसवरप्पोगे
३ सद्दाणुवाए
दशवे दिशावकाशिक व्रत के विषय मे जो कोई प्रतिचार लगा हो, तो श्रालोउ
sece
: नियमत सीमा से बाहर की वस्तु मँगवाई हो
: ( नौकर आदि से ) भिजवाई हो
: (खाँसी आदि ) शब्द करके चेताया हो .
*
+ तस्स मन्ते ४। दोनों स्थानों पर इतना पाठ और मिलाकर इस व्रत पाठ से दिशाक्काशिक व्रत लिया जाता है । विधि सामायिक लेने की विधि के समान हैं ।
शेष लेने की
*
"श्रावक प्राय प्रतिदिन १४ नियम श्रादि से अहोरात्र दिशावकाशिक व्रत करता रहता है, अत: इसके लिए भावना पाठ नहीं बोला जाता । इस प्रतिचार तथा प्रतिक्रमरण पाठ से दिशावकाशिक व्रत पाला जाता है । शेष विधि सामायिक पालने की विधि के समान है । भिन्नता
....
यह है कि सम्म काए बोलना चाहिए ।
1 आदि के पहले 'देशांवगासिय'
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
i
मूत्र-विभाग- १७ 'दिशावका शिक व्रत' प्रश्नोत्तरी [ ६६
४. रूवाणुवाए
५. बहिया पुग्गल - पक्खेवे
जो मे देवसियो श्रइयारो को
: रूप ( या अंगुली आदि) दिखाकर अपने भाव प्रकट किये हो
: ककर आदि ( बाहर ) फेककर दूसरो को बुलाया हो
-
: इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई : दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो
f
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
'दिशावकाशिक व्रत' प्रश्नोत्तरी
प्र० दिशावकाशिक व्रत किसे कहते हैं ?
उ० छठे व्रत मे, यावज्जीवन, वर्ष, चातुर्मास ग्रादि के लिए जो दिशा को मर्यादा की थी, उसका पक्ष, दिन, मुहूर्तादि के लिए और भी अधिक अवकाश ( सक्षेप ) करना तथा जो दिशा मर्यादा एक करण एक योग से की थी, उसे दो करण तीन योग से करना 'दिशावका शिक व्रत' है । इसी प्रकार अन्य भी पहले से लेकर आठवे व्रत तक मे जो भी हिंसा आदि की मर्यादा की, उसे कम करना भी 'दिशावका शक व्रत' मे है |
प्र०. आठो हो व्रतो के संक्षेप का उदाहरण बताइए । - उ० जैसे—'आज मैं सम्पूर्ण दिन या मुहूर्त दो मुहुर्त यदि तक सापराधो त्रस पर भी हाथ भी नही चलाऊँगा
+
f
।
(अहिंसा), छोटी झूठ भी नही बोलूंगा, मौन रक्खूंगा (सत्य), किसी का तिनका भी बिना पूछे - माँगे नही लूंगा ( अचौर्य), स्त्री का स्पर्श भी नही करूँगा, (ब्रह्मचर्य), ग्रमुक परिमाण से अधिक परिग्रह मिलने पर अपना करके नही रखूंगा ( परिग्रह परिमाण व्रत ) अपने गाँव-नगर से बाहर नही जाऊँगा, गाँव
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०० ] सुबोध जन पाठमाला--भाग २ नगर मे भी अपने घर दुकान या नौकरी के स्थान से अन्य स्थलों पर नही जाऊँगा (दिग्वत), 'पच्चीस द्रव्य' से उपरांत नही लगाऊँगा'-इत्यादि जो द्रव्यादि उपभोग-परिभोग पदार्थो की मर्यादा की है, उन्हे घटाकर आज १०. आदि से अधिक द्रव्य भोग मे नही लंगा। अमुक परिमाण मेग्राय हो जाने के पश्चात् कर्म या व्यापार नहीं करूँगा (उपभोग परिभोग व्रत) देवादि के लिए अर्थदण्ड भी नहीं करूँगा (अनर्थ दण्ड व्रत), इत्यादि मकार से प्रतिदिन आठ व्रतो का सक्षेप किया जा सकता है।
प्र० . वर्तमान मे व्रत सक्षेप केसे किया जाता है ?
उ० : वर्तमान मे चौदह नियमो से कुछ व्रतो का प्रतिदिन सक्षेप किया जाता है। वे नियम इस प्रकार हैं .
१. सचित्त-पृथ्वीकायादि की मर्यादा। २. द्रव्य--- खान-पान सम्बन्धी द्रव्यो की मर्यादा । ३. विगयकी मर्यादा। ४. पन्नी-पगरखी आदि की मर्यादा । ५ ताम्बूल-मुखवास की मर्यादा । ६. वस्त्र की मर्यादा । ७. कुसुम-पुष्प, इत्र की मर्यादा । ८ वाहन-की मर्यादा। ६. शयन-योग्य पदार्थों की मर्यादा। १०. विलेपन-द्रव्यो की मर्यादा। ११ ब्रह्मचर्य की अधिक मर्यादा। १२ दिगदिशा की अधिक मर्यादा। १३. स्नान-की संख्या और जल की मर्यादा। १४ भक्त--एक बार, दो वार आदि भोजन की मर्यादा। इन चौदह वोलो मे ११वे वोल से चौथे व्रत का, १२वे वोल से छठे व्रत का और शेप वोलो से सातवें व्रत का सक्षेप किया जाता है।
कई श्रावक १. असि (खड्ग), २. मपी (स्याही) और कृपि (खेती) की भी मर्यादा करते है, अर्थात् मैं इतनी प्राय हो । जाने के पश्चात्, १. मूल वस्तुयो से नई वस्तुयो का निर्माण या
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग-१८ 'पौषधव्रत' व्रत पाठ [ १०१ २ वस्तुयो का क्रय-विक्रय या ३ मूल वस्तुओं का उत्पादन नही निर्मित करूँगा।' ऐसे प्रत्याख्यान भी लेते है।
पाठ १८ अट्ठारहवाँ
१६. 'पौषधव्रत' व्रत पाठ
ग्यारहवाँ पडिपुण्ण पौषधवत ११. प्रसरण
पारण
खाइम साइम
: ग्यारहवाँ : प्रतिपूर्ण (चउन्विहाहार, निराहार) • आत्मा का विशेष पोषक व्रत : अशन (अन्नाहार और विगय) : पान (धोवन या गरम जल) : खाद्य (फल, मेवा, औषधि आदि) : स्वाद्य (लोग सुपारी आदि इन चारो
आहार) : का प्रत्याख्यान करता हूँ : मैथुन सेवन : का प्रत्याख्यान करता है : मणि, सोना आदि के आभूषण : पहनने का प्रत्याख्यान करता हूँ : फूलमाला पहनने का : (कस्तूरी आदि के) वर्ण-रग का तथा : (चन्दनादि के) विलेपन का
.
का पच्चक्खारण २ प्रबंभ सेवन का पच्चक्खारण ३ मरिण-सुवग्ण का पच्चक्खाग मालावरगगविलेवरण
फिरेमि भते ! पडिपुपण पोसह' ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
: प्रत्याख्यान करता हूँ
: अस्त्र, जैसे मूशल आदि को काम मे
: लेने रूप सावद्य योग सेवने का
१०२ ]
का पच्चवखारण
४. सत्य - मुसलादि सावज्ज-जोग सेवन
का पच्चवखारण
: प्रत्याख्यान करता हूँ
जाव अहोरतं पज्जुवासामि । दुविह तिविहेर न करेमि, न कारवेमि, मरणसा, वयसा, कायसा ।
मनोरथ पाठ
ऐसी मेरी श्रहरणा प्ररूपणा है, पौषध का श्रवसर श्राये, पौषध करूँ, तब फरसना करके शुद्ध होऊँ ।
अतिचार पाठ
ऐसे ग्यारहवें प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के पंच श्रइयारा जारिणयव्वा न समायरियन्वा तं जहा-ते श्रालोउं -
ग्यारहवे प्रतिपूर्ण पौषध व्रत के विषय मे जो कोई प्रतिचार लगा हो, तो प्रालाउ -
१. अप्पडिले हिय - दुष्पडिले हिय : पौषध मे गय्या-सथारा न देखा सेज्जा- संथारए ( न प्रति लेखा ) हो या अच्छी तरह ( विधिसे ) न देखा हो ।
२ अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय: पूँजा न हो या अच्छी तरह सेज्जासथारए (विधि) से पंजा न हो ।
तिस्स भते ।
४.।
दोनों स्थानों पर इतना पाठ और मिलाकर इस व्रत पाठ से पौषध लिया जाता है । शेष विधि सामायिक के समान ।
शेष
इस प्रतिचार व प्रतिक्रमरण पाठ से पौषध पाला जाता है । विधि सामायिक पालने के समान है । मित्रता यह है कि 'सम्म के पहले ( पडिपुण) पोसह' बोलना चाहिए ।
.......
काए
"
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१८ 'पोषध व्रत' प्रश्नोत्तरी [ १०३ ३. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-: उच्चार-प्रश्रवण की भूमि न उच्चार-पासवरण-भूमि देखी(न प्रतिलेखी)हो या अच्छी
तरह (विधि से) न देखी हो अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय : पूंजी न हो या अच्छी तरह उच्चारण-पासवरण-भूमि (विधि से) पूंजी न हो। पोसहस्स सम्म
: उपवासयुक्त पौषध का सम्यक अरगणुपालगया
प्रकार से पालन न किया हो । जो मे देवसिनो अइयारो को इन अतिचारो मे से मुझे जो
कोई दिन सबधी अतिचार
लगा हो, तो तरस मिच्छा मि दुवकडं ।
'पौषध व्रत प्रश्नोत्तरी
प्र०: पौषधमे १ आहार, २ अब्रह्म, ३ शरीर-सत्कार और ४. सावद्ययोग्य-ये चारो बोल छोड़ना आवश्यक है क्या?
उ० आहार को छोडकर शेष तीनो बोल छोडना आवश्यक हैं। आहार मे चारो आहार छोडे भी जा सकते है, तीनो आहार भी छोडे जा सकते है कदाचित् चारो आहार किये भी जा सकते हैं।
प्र० पौषध का न्यूनतम काल कितना है ?
उ० (उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार) न्यूनतम काल चार प्रहर है। चार प्रहर रात्रि के भी हो सकते हैं, तथा दिन के भी हो सकते हैं, पर आहार-त्याग के चार प्रहर केवल दिन के नही हो सकते। अर्थात् दिन को आहार न करके रात्रि भोजन करे। ऐसा नही हो सकता।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
प्र० पौपध के कितने प्रकार है ?
उ० : दो प्रकार है-१ प्रतिपूर्ण और २ देश। जिसमें चारो आहार सर्वथा छोडे जायँ, वह 'प्रतिपूर्ण पौषध' है तथा जिसमे पानाहार या चारो आहार किये जायँ, वह 'देश पौषध' है।
प्र० वर्तमान मे देश पौषध को क्या कहते है ?
उ० • जिममे मात्र पानी पीया जाता है, ऐसे तिविहार उपवासयुक्त को दसवाँ (यह 'देश' का अपभ्रश दिखता है) पौषध कहते है। जिसमे चारो आहार किये जाते है, ऐसे दिन के या दिन रात्रि के पौषध को दया कहते है। जिसमे चारो ग्राहार किये जाते है, ऐसे रात्रि के पौषध को संवर कहते है।
प्र० : पाठ प्रहर से कम पौपध करने वाले का और दया रूप पौषध करने वालो का शास्त्रीय उदाहरण दीजिए।
उ० जेसे 'गखजी' ने प्रारम्भ मे आठ प्रहर से कम का पौषध ग्रहण किया था तथा पृष्कली श्रादि ने खाते पीते पाठ प्रहर से कम का पौपध किया था।
प्र० पानी पीकर देश (दसवां) पौषध करने वाले को क्या पाठ वोलना चाहिए ?
उ० • 'करेमि, भंते । देस पोसहं, असरणं, खाइमं साइसं का पच्चवखारण कहकर 'अवभ सेवण का पच्चक्खाण' प्रादि गेप पाठ प्रतिपूर्ण पौषध के समान कहना चाहिए।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
प्रतिचार पाठ
ऐसे बारहवें अतिथि संविभाग
व्रत के पंच अइयारा जारिणयव्वा न समायरियव्वा तेजहाते प्रालोउं -
१. सचित्त
निक्खेवया २. सचित्त-पिहरणया ३. काल इक्कमे
४. परोवएसे
५. मच्छरियाए जो मे देवसिश्रो
महपारो को
बारहवें अतिथि सविभाग व्रत के विषय मे जो कोई प्रतिचार लगा हो, तो प्रलोउ -
: श्रचित्त (अशनादि ) वस्तु, सचित्त ( जलादि) पर रक्खी हो,
: अचित्त वस्तु सचित से ढंकी हो, : साधुओ को भिक्षा देने का समय टाल दिया हो,
: श्राप सूझता (शुद्ध) होते हुए भी दूसरो से दान दिलाया हो,
: मत्सर ( इर्ष्या) भाव से दान दिया हो : इन प्रतिचारो से मुझे जो कोई दिन संबंधी प्रतिचार लगा हो, तो
तस्स मिच्छामि दुक्कड ।
प्रश्नोत्तरी
प्रo : क्या साधु-साध्वियाँ ही दान के पात्र है
"
उ० : 'साधु-साध्वियाँ दान के उत्कृष्ट (उत्तम) पात्र है ।' प्रतः उनको बारहवे व्रत मे उल्लेख किया है । परन्तु उस 'उल्लेख' से 'प्रतिमाधारी श्रावक, व्रतधारी श्रावक और सामान्य स्वधर्मी सम्यक्त्व भी दान के पात्र है।' यह समझना चाहिए । प्रतिमावारी श्रावक दान के उत्तम पात्र की गणना मे आती
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग – २०. 'अतिथि संविभाग व्रत' व्रत पाठ [ १११
: निर्ग्रन्थो ( स्त्री और परिग्रह के त्यागियो ) को
निग्गंथे,
फासूयएसरिगज्जे
१.-२. प्रसरण - पारण
३.-४. खाइम - साइम
५. वत्थ
६. पडिग्गहु - ७. कंबल -
८. पाय- पुच्छरणं पsिहारिय
६. १० पीढ - फलग
११. सेज्जा
१२. संथारएण
१३. श्रोसह -
१४. भेसज्जेणं
पडिला मारणे विहरामि
: प्रासुक (जीवरहित, प्रचित्त )
: एषणीय ( ग्राधा कर्म आदि दोषरहित )
: भोजन-पानी
: खाद्य स्वाद्य
: ( सफेद रंग का मूती) वस्त्र
( लकडा, तुम्वा और मिट्टी के) पात्र : ( ऊनी सफेद) कम्बल
: रजोहरा (घा) (तथा)
: प्रातिहार्य ( जिन्हे साधु, लौटा देते हैं : (ऐसे ) चौकी, पट्टा
: पौषधशाला - घर
: (तृण आदि का ) ग्रासन
: औषधि ( एक द्रव्य वाली, जैसे हरड़े ) : भेषज (अनेक द्रव्य बाली, जैसे त्रिफला )
: बहराता ( गुरु वुद्धि से देता ) हुआ : विहार करता हूँ ( रहता हूँ)
मनोरथ पाठ
ऐसी मेरी श्रद्धहरणा प्ररूपणा तो है, साधु साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान दूँ, तब फरसना करके शुद्ध
होऊँ ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
११० ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ समिति पालना। पौषध मे उभयकाल प्रतिलेखन करना। दिशावकाशि के व्रत मे दिन-रात्रि तक अपने परिमाण का ध्यान रखना। विशेष इच्छा या आवश्यकता होने पर आत्मा पर अकुश लगाना।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना। 'धन्य हैं, वे मुनि जी यावज्जीवन १ सामायिक २ पौपध ग्रहण किये हुए है और ३. धर्म के लिए आवश्यक उपकरण और भोजन-पान के अतिरिक्त सब त्यागे हुए है। मैं ऐसा कब बनूगा ?' यह मनोरथ करना । अपूर्णता का खेद करना। सामायिक पौषध आदि को दृढता से पालने वाले कामदेव, शख, कुण्डकोलिक आदि के चरित्रो पर ध्यान लगाना।
पाठ १६ उन्नीसवाँ
२७. 'अतिथि-संविभाग प्रत' व्रत पाठ
संविभाग
अतिथि (जिनके आने की तिथि नियत नही) : उन्हे विधि से प्रशन आदि का कुछ . भाग देना : रूप व्रत : श्रमण (मोक्षानुकूल तप-श्रम करने
व्रत।' समणे
वाले)
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग--१८. 'शिक्षाव्रत' निबन्ध [ १०६ ३. स्थान : पहले ८ आठ व्रतो मे जो व्रत मुख्य था, उसे पहले और जो व्रत गौरण था, उसे पीछे स्थान दिया था, पर इन तीनो मे जो व्रत गौरण है, उसे पहले और जो मुख्य है, उसे पीछे स्थान दिया है। इस कारण ८ व्रतो के पश्चात् अल्पकाल का होने से सामायिक को ह वा स्थान दिया है। सामायिक से अधिक काल का होने से दिशावकाशिक को १० वाँ स्थान दिया है तथा दिशावकाशिक से अधिक सवरयुक्त होने से पौपध को ११ वॉ स्थान दिया है।
४. फल : १. सामायिक से एकेन्द्रियादि जीवो को भी अभयदान मिलता है। सर्वजगज्जीव-मैत्री का पालन होता है। सामायिक के प्रभाव से पूर्व के पाठ व्रत अधिक निर्मल, अधिक बलवान् और अधिक विकसित बनते है। २ दिशावकाशिक पूर्व के पाठ व्रतो का सक्षेप रूप होने से उन आठ व्रतो से जो फल हैं, वे और भी अधिक रूप मे मिलते हैं। ३. 'पौषध' सामायिक व्रत का ही लम्बे काल का विशिष्ट रूप होने से उससे सामायिक के ही फल विशेष रूप मे मिलते हैं।
५. कर्त्तव्य : सामायिक और पौषध के काल तक जागृत अवस्था मे मन मे धर्म-विचार करना, आहार, काम-भोग, शरीर-सत्कार, घर-व्यापार आदि के विचार न करना। मुख से धर्म-कथा, शास्त्र-स्वाध्याय, स्तुति आदि करना, घर, व्यापार, स्त्री, भोजन, देश, राज्य आदि की विकथाएँ न करना । काया को उचित आसन से रखना और रात्रि को यतना से सोना। इस प्रकार तीन गुप्ति का पालन करना। यतना से चलना, विवेक से बोलना, यदि गौचरी की दया की हो, तो निर्दोष गौचरी करना और राग-द्वेष रहित परिमित आहार करना, यतना से उठाना-रखना, देख पूज कर परठना। इस प्रकार पांच
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ ३ जाति-स्मरण, ४ देव-दर्शन और ५ अवधिज्ञान तक हो सकता है।
२. उद्देश्य : १. श्रावक गृहस्थी को त्यागने मे असमर्थ होने के कारण 'गृहस्थ जीवन कैसे अधिक-से-अधिक निष्पाप बने ?' यह बताने के लिए पहले के आठ व्रतो का कथन किया है। पर 'गृहस्थ सामान्यतया प्रतिदिन एक मुहूर्त भर के लिए तो गृहस्थी का त्याग करके साधु के समान आराधना कर सकता है।' अत उस उद्देश्य-पूर्ति के लिए सामायिक व्रत का कथन किया है।
२ 'पहले के आठ व्रत प्राय यावज्जीवन आदि लम्बे समय के लिए धारण किये जाते हैं। अत श्रावक लम्बे समय को ध्यान मे रखकर सम्पूर्ण पापो की अपेक्षा तो बहुत कम पाप शेष रखता है, पर प्रतिदिन लगाने वाले पापो की अपेक्षा बहुत अधिक पाप शेष रखता है। वे सब ही पाप सामायिक के द्वारा तो मुहूर्त भर के लिए दो करण तीन योग से रुक जाते हैं, पर शेष दिन भर के लिए वे पाप खुले हो रहते है। 'उनमे से उस दिन की अपेक्षा जितना पाप करना है, उसे रख कर शेष का त्याग किया जाय।' इस उद्देश्य से दिशावकाशिक व्रत का कथन किया है।
३ प्रतिमास या प्रति वर्ष मे श्रावक कुछ दिन-रात ऐसे भी निकाल सकता है, जिस दिन-रात को वह ३० ही मुहूर्त (२४ ही घटे) पापो का सर्वथा त्याग कर दे। इसलिए ऐसे उन दिनो को पूर्ण धर्ममय बनाने के उद्देश्य से ग्यारहवे व्रत का कथन किया है।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-१८. 'शिक्षाद्रत' निबन्ध
| १०७
प्र. : पहले सामायिक ली हुई हो और पीछे पौषध की भावना जगे, तो सामायिक पाल' कर पौषध लें या सीवे ही ? .
उ० : सीधे ही। क्योंकि पालकर लेने से बीच मे अव्रत लगता है, कदाचित् पालते-पालते उसकी भावना मन्द भी हो सकती है।
प्र० : पौषध लेने के पश्चात् सामायिक का काल श्रा जाने पर सामायिक पालें या नहीं ?
उ० सामायिक विधिवत् न पाले, क्योकि पौषध चल रहा है। पर सामायिक-पूर्ति की स्मृति के लिए नमस्कार मत्र गिन लें, जिससे फिर निद्रा, आहार, निहारादि कर सके।
प्र० · पौषध में सामायिक करें या नहीं ?
उ० · करना सामान्यतः विशेष लाभप्रद नही है। परन्तु यदि कोई 'निद्रा आहार, निहार, पालवन आदि इतने समय नही करूगा।' आदि के रूप सामायिक करे, तो वह सामायिक कर सकता है।
'शिक्षावत' निबंध
१. सूक्त : श्रावक जितने मुहूर्त तक सामायिक करता है, उतने मुहूर्त के लिए वह साधु के समान हो जाता है। २. प्रतिदिन दिशावकाशिक करने से (१४ 'नियम करने से मेरू जितना पाप घटकर राई. जितना पाप रह जाता है। ३ प्रतिमास निरतिचार छह पौषध करने पर श्रावक को १. अपूर्व धर्म-चिन्तन, २ अपूर्व मुफलवान् शुभ स्वप्न-दर्शन,
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६ ] सुबोध जन पाठमाला-माग २
और यदि इनकी छूट सामायिक मे दी जायगी, तो सामायिक मे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की कोई आराधना नहीं हो सकेगो तथा पौषध विशेष काल का है, अतः वह इन छूटो के बिना सामान्य लोगों को पालन करना कठिन होता है और बिना इन छूटो के सामान्य लोगो की ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की आराधना मे समाधि नही रहती तथा २. उदाहरणमय उत्तर यह है कि जैसे व्यापारी बडे ग्राहक को विशेष सुविधाएँ देता है, छोटे ग्राहक को नहीं देता। इसी प्रकार भगवान् ने पौषध वाले को बहुत धर्म का ग्राहक होने से विशेष सुविधाएँ दी हैं तथा सामायिक वाले को अल्प धर्म का ग्राहक होने से सुविधाएँ नही दी हैं।
प्र० : प्रतिलेखन-प्रमार्जन किसे कहते है ?
उ० , 'मुखवस्त्रिका आदि मे कोई जीव है या नहीं? इस दृष्टि से शीघ्रता प्रादि न करते हुए तथा शब्दादिक विषय-विकार या धर्मकथादिक कार्य न करते हुए 'उन्हे लगन से देखना प्रतिलेखन है तथा जीवादिक दोखने पर उन्हे कष्ट न हो ऐसी यतना से उन्हे कोमल पूंजनी से हल्के हाथों से पूंजना तथा एकात सुरक्षित स्थान मे ले जाकर छोडना प्रमार्जना है। जीव न दीखने पर भी रात्रि को रजोहरण से आगे चलने की भूमि शुद्ध करना तथा दिन को पौषधशाला की सचित्त रज साफ करना आदि भी प्रमार्जना है।
प्र० : प्रतिलेखन-प्रमार्जन किस क्रम से करना चाहिए? ' . उ० : उभयकाल पहले मुखवस्त्रिका, फिर पूजनी, फिर वस्त्र, फिर सस्तारक, फिर पौषधशाला, फिर मल-मूत्र भूमि और गौचरी के पात्र हो, तो फिर उन णत्रो. का प्रतिलेखना करना चाहिए।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग- १८ पोषध व्रत' प्रश्नोत्तरी
[ १०५
प्र० चारो प्रहार करके देश पोषध संवर या (दया)
·
करने वाले को क्या पाठ बोलना चाहिए P
का
उ० : करोमि, भंते! देस-पोसहं प्रबंभसेवरण यच्चवखारण इत्यादि । शेष पाठ पूर्ववत् बोलना चाहिए। जो सवर या दया एक करण एक योग से करना चाहे, उन्हे 'दुविह तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मरणसा वयसा कायसा' के स्थान पर एगविह एगविण न करेमि कायसा' पाठ बोलना चाहिए ।
० : सामायिक और पौषध में क्या अन्तर है ?
उ० : एक सामायिक केवल एक मूहूर्त ( ४८ मिनिट ) की होती है, जब कि पौषध कम-से-कम भी चार प्रहर का ( लगभग १२ घंटे का होता है । सामायिक में निद्रा और पाहार का त्याग करना ही होता है, जब कि पौषध चार और उससे अधिक प्रहर का होने से उसमें निद्रा भी ली जा सकती है और आहार भी किया जा सकता है, इत्यादि सामायिक और पौषध मे कुछ अन्तर हैं। जैसे दिशावकाशिक चत पहले के ग्राठ व्रतो का विशिष्ट वडा रूप है । इसी प्रकार पौषध त सामायिक व्रत का विशिष्ट बडा रूप है ।
प्र० : अब कि ग्यारहवाँ व्रत सामायिक व्रत से बडा निद्रा, आहार, और जब कि इनकी छूट
है और सामायिक का विशिष्ट रूप है, तब उसमे 'तिहार ( गौच ) आदि की इतनी छूट क्यो ? सामायिक व्रत ग्यारहवे व्रत से छोटा है, तब उसमे क्यो नही ? उ० १. सामान्य उत्तर तो यह है कि 'सामायिक अल्पकाल की है, अतः वह इन छूटो के बिना हो सकती है
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-~~१६ 'अतिथि संविभाग व्रत' व्रत पाठ [ ११३
है। व्रतधारी मध्यम पात्र है और स्वधर्मी (सम्यक्त्वी) जघन्य निम्न पात्र है।
प्र० : दीन-दुःखियो को दान देना इस व्रत मे आता है या नहीं?
उ० : दीन-दुखी अनुकम्पा-दान के.पात्र हैं। अनुकपा से पुण्य कर्म का बध होता है। धर्म का उद्देश्य कर्मबन्ध को तोडना है, अतः जिन्हे दान देने से मुख्यतया निर्जरा होती है, उन साधु-सोची आदि को दान देना ही इस व्रत मे लिया है।
प्र० : प्राधाकर्म आदि दोष किसे कहते है ?
उ० साधु के लिए अशनादि बनाना, उनके लिए खरीदना आदि को। विशेष के लिए 'समिति गुप्ति का स्तोक' । देखो।
प्र० ' क्या प्रासुक एषणीय दान ही देना चाहिए ?
उ० : जो जैसा पात्र हो, उसके अनुसार उसे दान दिया जाता है। निर्दोष अशनादि लेने वाले को निर्दोष ही देना चाहिए।
प्र० • क्या देय वस्तुएँ चौदह ही है ?
उ० ये चौदह वस्तुएँ प्राय काम मे आती हैं, अत इनका उल्लेख किया है। इनसे अन्य भी धर्मोपयोगी सूई, कैची, पुस्तक आदि समझ लेने चाहिएँ।
प्र० : 'सचित्त निक्षेप' के उदाहरण दीजिए।
उ० : जैसे रोटी-पात्र को लवण-पात्र पर रखना, धोवनपात्र को सचित्त जल के घडे पर रखना, खिचडी आदि को चूल्हे · पर रखना, मिठाई आदि को हरी पत्तल पर रखना श्रादि ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
प्र० : 'सचित्त निक्खेवण्या और पिहणया' से और क्या समझना चाहिए ?
उ० · साधु दान के योग्य पदार्थों को जहाँ पर, जिस स्थिति में रखने से साधु उन्हे न ले सके, ऐसे स्थान और स्थिति मे रखना। जैसे अचित्त अशनादि को सचित्त पदार्थों से छूयाकर या सचित्त पदार्थों में मिलाकर रखना, नाले मे या ऊँचे पाले मे रखना आदि।
प्र० : कालाइक्कमे मे और क्या सम्मिलित हैं ?
उ० · भोजन के समय द्वार बन्द रखना, स्वय घर के बाहर रहना, रात्रि के समय दान की भावना भाना, साधुओ को सडी हुई वस्तुएँ देना आदि। ,
प्र० 'परोवएसे' मे और क्या सम्मिलित है ?
उ० : अपनी वस्तु पराई बताना, कोई दान का उपदेश दे, तो उसे कहना-आप ही दीजिए-इत्यादि ।
प्र० · मत्सरदान किसे कहते है ?
उ० · अपने से अधिक दानी के प्रति जलते हुए दान देना, विशिष्ट दानी कहलाने के लिए दान देना, दान देकर पछताना आदि को।
'अतिथि संविभाग वत' निबंध
१. सूक्त : वेश और गुणयुक्त साधु-श्रावक को दान देने वाला उन्हें समाधि उत्पन्न करता है, फलस्वरूप वह भी भविष्य मे समाधि प्राप्त करता है-भग०। २ वेश और गुणयुक्त साधु-श्रावक को दान देने वाला सम्यक्त्व प्राप्त करता है, यावत् सब दुःखो का
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - १ε 'अतिथि सविभाग व्रत निबन्ध [ ११५
-अन्त करता है - सग० । ३. वेश और गुरणयुक्त साधु श्रावक को दान देना उत्तम खेत मे अपना बीज बोना है- उत्तरा० ।
२. उद्देश्य : वेश और गुरणयुक्त साधु श्रावक को दान देकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व अनुमोदना प्रकट करना, उनके धर्म पालन मे सहायक बनना तथा धर्मदान गुण को जीवनगत
बनाना ।
३. स्थान : पहले के ग्यारह व्रत कठिन हैं, क्योंकि उनको धारण करने मे स्वय को हिंसादि का त्याग करना होता है । परन्तु यह व्रत सरल है, क्योकि इसमे स्वय को कुछ भी त्याग नही करना पडता, केवल त्यागियो को दान ही देना पडता है | अतः सबसे सरल होने के नाते इस व्रत अन्त मे बारहवाँ स्थान दिया है ।
को सभी व्रतो के
४. कर्त्तव्य : साधुग्रो को कौनसी वस्तुएँ प्रावश्यक होती है ? वे शुद्ध ( सुझती ) कैसे रह सकती है ? साधुओ का योग कब कैसे मिल सकता है ? आदि बातो का ध्यान रखना । योग मिलने पर स्वागत करके निर्दोष वस्तुएँ स्वयं उलट भाव से देना | उन्हे चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, माता-पिता आदि के समान समझना | श्रावक-श्राविकाओं को भाई-बहन ज्यो समझना । चतुर्विध सघ के प्रति पूरा अनुराग रखना ।
५. भावना : सूक्तांदि पर विचार करना । 'धन्य हैं, वे जो ससार त्याग कर ग्रात्म-साधना कर रहे है । मैं धन्य हैं कि ससार-कीच मे फँसा हूँ । कम-से-कम मुझे उन्हें दान देने का स्वर्ण अवसर कब मिलेगा ? इसका मनोरथ करना ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६ ] सुवोध जन पाठमाला-भाग २ साधुदान का योग न बैठे, तो उसका खेद करना। दान देने वाले सुबाहुकुमार, शालीभद्र आदि के चरित्र पर ध्यान देना।
पाठ २० बी
१८ 'संलेखना' 'तप का पाठ'
अह, भतेअपच्छिममारणांतियमलेहरगा
दूसरणा पाराहगा।
सौषधशाला
जकर उच्चार-पासवरण भूमिका डिलेहकर, मिरणागमरणे [डिक्कम कर
: अब, हे भगवन् । : इस जीवन मे सबसे पश्चात् : मरण-रूप अन्तिम समय मे : सलेखना, (शरीर व कषाय को कृश
बनाने वाले, आलोचना सहित तप)को : (स्वीकार कर) सेवन करता हूँ (तथा) : अन्तिम समय तक पालन करता हूँ। सलेखना विधि : पौषधशाला का : (रजोहरणादि से) प्रमार्जन कर : मल-मूत्र (परठना पडे, इसलिए : उसकी) भूमि : का प्रतिलेखन कर : इर्यापथिक का प्रतिक्रमण कर, (तिक्खुत्तो, नमस्कार मत्र, 'इच्छाकारेण' 'तस्सउत्तरी' 'इच्छाकारेण' या 'लोगस्स' का ध्यान तथा प्रकट लोगस्स कह कर
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग -- २०. 'स लेखना तप' का पाठ
दर्भादिक
संथारा संथार कर
दर्भादिक संथारा
दुरुहकर
: दर्भ (तृण विशेष ) आदि से बना : बिछौना बिछाकर
: उस दर्भादि के सथारे पर
: चढकर
पूर्व या उत्तर (या ईशान कोण) सन्मुख पल्यंकादिक
श्रासन से बैठकर
करयल
संपरिग्गहियं सिरसावत्तं
मत्थए जल कट्टु एव वयामि
नमोत्थु अरिहतारणं
भगवतारणं
[ ११७
सलेखना के लिए नमस्कार मंगल
: नमस्कार हो : अरिहन्त
: भगवन्तो को
जाव सपत्ताणं
: यावत् मोक्ष प्राप्त हुआ को
ऐसे अनन्त सिद्ध भगवान् को नमस्कार करके 'नमोत्थुरगं श्ररिहतारण भगवतारगं
: दोनो हथेलियो को : ( विधिपूर्वक ) जोडकर
: शिर पर तीन प्रदक्षिणावर्त लगा कर
: मस्तक पर अञ्जलि को स्थापन करके : इस प्रकार कहता हूँ |
नमोत्थुरणं मम
धम्मायरियtस
धम्मोवदेसगस्स
जाव संपाविउकामारणं' : यावत् मोक्ष प्राप्ति की इच्छा वालो को ऐसे जयवन्त वर्त्तमान काल मे महाविदेह क्षेत्र मे विचरते हुए तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार करके
: नमस्कार हो, मेरे
: धर्माचार्य
: धर्मोपदेशक (साधुजी ) को
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८ ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
ऐसे अपने धर्माचार्यजी को नमस्कार करता हूँ । साधुप्रमुख चारो तीर्थ को खमा (क्षमायाचना ) कर सर्व जीव- राशि को खमा कर, पहले जो व्रत श्रादरे हैं, उनमे जो ( श्राज तक ) प्रतिचार दोष लगे है, वे सर्व श्रालोच (न) कर, पडिवकम ( प्रतिक्रमण ) कर, निन्दकर, निःशल्य हो कर
सव्वं पारणा इवायं
पञ्चक्खामि
सव्व मुसावायं पञ्चक्खामि
सव्वं श्रदिण्गादार
अनशन का व्रत पाठ
: सब (सम्पूर्ण ) ( हिंसा)
पञ्चक्खामि
सव्वं मेहुणं पचक्खामि सव्वं परिहं पञ्चवखामि
सव्वं कोहं मारणं जाव मिच्छा - दंसरण - सल्लं
सव्वं कररिगज्जे
'जोग पञ्चक्खामि
जावज्जोवाए तिविह तिविहेरां न करेमि न कारवेमि
१ प्रारणातिपात
: पच्चवखता हूँ ( प्रत्याख्यान करता हूँ) : सब २ मृषावाद (झूठ )
: पच्चक्खता हूँ
: सव ३ अदत्तादान (चोरी)
: पच्चक्खता हूँ
: सब ४. मैथुन (ब्रह्मचर्यं )
: पच्चक्खता हूँ
: सब ५ परिग्रह ( नव प्रकार का ) : पच्चक्खता हूँ
: सब ६ क्रोध, ७ मान, यावत्
: १८ मिथ्यादर्शन शल्य ( मिथ्यात्व ) यो
: सभी प्रकरणीय ( सावध )
: योगो का प्रत्याख्यान करता हूँ
: यावज्जीवन के लिए
: -तीन करण तीन योग से
: ( अट्ठारह. ही पाप स्वय) न करता हूँ : न कराता हूँ
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२०. 'सलेखना तप' का पाठ
[११६
करतंपि अन्नं : करते हुए अन्य का न समगुजारगामि : अनुमोदन भो नही करता हूँ । ऐसे अट्ठारह पाप पच्चक्ख कर
सव्व असणं
: सब प्रशन पारण खाइमं साइमं : पान, खाद्य और स्वाध-यो चउविहपि : चारो ही आहार पच्चक्खामि : आहार पच्चक्खता हूँ ऐसे चारोपाहार पच्चक्ख कर
जि पि य इमं सरीरं, इट्ठ
कत पिय
मारणं मरणाम धिज्ज विसासियं संमय अणुमयं
: और जो यह : शरीर (मुझे) इष्ट (इच्छनीय) था : कान्त (कमनीय) था . प्रिय (प्रेम का करण) था : मनोज्ञ (मनोहर) था : मनाम (मनोरम) था : (मुझे इससे) धैर्य : (मुझे इस पर) विश्वास था : (मेरे लिए यह) समत (माननीय)था : अनु (दोष दिखने पर भी) मत
(माननीय) था . : वहुमत (बहुत ही माननीय) था : आभूषण के करण्डिये समान था
बहुमयं भण्डकरण्डसमारणं
यहां से लेकर 'तिकटु' तक पाठ पादोपगमन (वृक्षमूल के समान एक निश्चल प्रासन से किये जाने वाले अनशन) से अन्य अनशन करते समय न पढ़ें।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ रयग-करण्डगभूयं : रत्नो के करण्डिये (पेटी के) समान
__ था
मा रणं सीयं
: (कही इसे) गीत (सर्दी) न हो मा रणं उन्ह • उष्णता (गर्मी) न हो मा रणं खुहा : भूख न लगे मा ग पिवासा : प्यास न लगे मा रणं वाला : सर्प (आदि) न काटे मारणं चोरा
चोर आदि का भय न हो मा रणं दंस-मसगा : डास, मच्छरादि न सतावे मा रणं वाइयं : न वात (वायु) रोग हो पित्तियं, कपिफयं, : न पित्त रोग हो, न कफ रोग हो संभीम
: न भयकर सण्णिवाइयं : सन्निपात (दो या तीन दोष) हो विविहा
: (यो) अनेक प्रकार के रोगायका
: (विलम्ब से या शीघ्र मारने वाले)
रोगातक परीसहा
: (तथा भूख-प्यास के) परीसह । उवसग्गा
: (और देव आदि के) उपसर्ग (कष्ट) फासा फुसन्तु
स्पर्श न करे। (ऐसा मैं चाहता था
ऐसे उस शरीर को भी) चरहि
: अन्त के उस्सासनिस्सासेहि : उच्छ्वास निच्छ्वास (श्वासोच्छ्वास)
तक वोसिरामि
: त्याग करता हूँ त्तिकटु
: ऐसे शरीर को वोसिरा के कालं, प्रणवकंखमारणे, : मृत्यु की चाह (तथा भय) न करते विहरामि
: हुए विहार करता हूँ (विचरता हूँ)
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग---२०. 'सलेखना' प्रश्नोत्तरी [ १२१
मनोरथ पाठ ' 'ऐसी मेरी सहहणा प्ररूपणा तो है, संलखना का अवसर प्राये, सलेखना करूँ, तब फरसना करके शुद्ध होउं ।
अतिचार पाठ ऐसे अपच्छिम मारणांतिय सले- अपश्चिम मारणान्तिक सलेखना, 'हणा झूसरणा पाराहरणाए पंच झूषणा, आराधना के विषय मे अइयारा 'जारिणयचा न 'जो कोई अतिचार लगा हो, तो समायरियव्वा तंजहा ते- आलोउ - . पालोउ - १. इह-लोगा- : इस (मनुष्य) लोक के राजा चक्रवर्ती ससप्प प्रोगे
प्रादि सुखो की इच्छा की हो, २ परलोगा
: पर (मनुष्य से अन्य) लोक के देवता ससपनोगे
इन्द्र श्रादि सुखो की इच्छा की हो, ३. जीविया-संसप्पप्रोगे : (शाता और सेवा-प्रशसा देखकर)
- बहत काल जीने की इच्छा की हो, ४. मरणा-ससप्पनोगे : (अशाता और असेवा-अकीति देखकर)
शीघ्र भरने की इच्छा की हो, ५. काम-भोगा- : (आहार आदि की या देवप्रदत्त । काम सस पोगे
भोगो की इच्छा की हो, जो मे देवसियो
: इन अतिचारों मे से मुझे जो कोई सइयारो को
दिन संबंधी अतिचार लगा हो, तो तस्स.मिच्छा मि दुपकर्ड।
'सलेखना' प्रश्नोत्तरी प्र० : यहाँ सलेखना के व्रत पाठ से क्या समझना चाहिये? उ० 'सलेखनर सव तपो मे मुख्य है, तथा उसका श्रावक
..
.
।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ को नित्य मनोरथ करना चाहिए। इसलिए उसका यहाँ उल्लेख किया है। उससे यहाँ सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र के पश्चात् उपवास आदि सभी प्रकार के सम्यक्तप समझ लेने चाहिये। उपवासादि के प्रत्याख्यान-पाठ छठे 'प्रत्याख्यान आवश्यक' मे आयेगे।
प्र० : तप के अतिचार बताइए।
उ० : जो सलेखना के अतिचार हैं, प्रायः वे ही तप के अतिचार हैं-जैसे १. इस लोक के सुख की इच्छा करना २. परलोक के सुख की इच्छा करना ३. प्रशसा के लिए अधिक तप करना ४. अशाता देखकर (तप क्यो किया ? तप शीघ्र पूरा हो, आदि) चिन्ता करना ५. (आहारादि की या देव प्रदत्त) कामभोगो की इच्छा करना।
प्र० : तप के फल बताइए।
उ० १ इहलोक दृष्टि से बाह्य तप से शरीर के रोग तथा विकार नष्ट होते हैं, शरोर दृढ वनता है। आभ्यन्तरतप से लोगो मे प्रीति, आदर, विनय आदि होता है। आध्यात्म दृष्टि से आत्मा के कर्म रोग तथा कर्म विकार नष्ट होकर आत्मा सशक्त बनती है, लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, देव सेवा करते है, इत्यादि तप के कई फल हैं।
प्र० नित्य रात्रि को सलेखना कैसे करनी चाहिए?
उ० - उसकी विधि भी मारणान्तिक सलेखना के समान ही है। विशेष 'विहरामि' इस पाठ से आगे 'यदि उलूं, तब तक जीऊँ, तो मुझे अनशन पारना कल्पता है अन्यथा यावज्जीवन अनशन है।' इतना और कहना चाहिए। तथा प्रात:
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२०. 'सलेखना' प्रश्नोत्तरी [ १२३ काल उठने के पश्चात् सामायिक पालने के समान विधि करके 'एयस्स नवमस्स' के स्थान पर 'सलेखना के अतिचार का पाठ' कहना चाहिए।
हे वन्दन करनसे प्रायश्चिमार यावज्ज
कई 'आहार शरीर उपाधि, पच्चक्खू पाप अठार । मरण आवे तो वोसिरे, जीउ तो आगार १। इस एक दोहे से सथारा लेते हैं और नमस्कार मत्र गिन कर पार लेते हैं।
प्र० : मारणान्तिक सलेखना के समय के लिए कुछ विशेष विधि बताइए। . उ० : सलेखना के योग्य अवसर पर सलेखना की भावना __ होने पर जहाँ तक सभव हो, साधु-साध्वियो की सेवा मे या उनके
अभाव मे जानकार अनुभवी श्रावक-श्राविका के पास जाना चाहिए अथवा उन्हे अपने स्थान पर निमन्त्रण देना चाहिए। उन्हे वन्दन कर अपने व्रत मे लगे अतिचारो की निष्कपट आलोचना करके उनसे प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। फिर उनसे भावना और अवसर के अनुसार यावज्जीवन के लिए या कुछ काल के लिए आगार सहित अनशन लेना चाहिए। यदि किसी का भी योग न बैठे, तो स्वय आलोचना कर के 'जितना इसका प्रायश्चित होता है, वह मुझे स्वीकार है।' यह कहना चाहिए तथा स्वय अनशन लेना चाहिए। यदि तिविहाहार अनशन करना हो, तो 'पाण' शब्द नही बोलना चाहिए तथा 'ऐसे तीनो आहार पचक्ख कर' यो बोलना चाहिए। यदि गादी
पलग आदि पर सोना पडे, खुले गृहस्थो से वयावृत्य करानी पडे, -.-सम्मूच्छिम विराधना टल न सके या और भी जो पाप न छूट सकें, उनका प्रागार रखना चाहिए।
प्र० : उपसर्ग के समय संलेखना कैसे करनी चाहिए?
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४ ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
उ० जहाँ उपस्थित हो, वहाँ की भूमि का प्रतिलेखन कर 'नमोत्थुरण से ( 'जपि' से त्तिकट्टु का पाठ छोडकर ) विहरामि' तक पाठ बोलना चाहिए । आगे 'यदि उपसर्ग से बचूं, तो मुझे अनशन पारना कल्पता है अन्यथा यावज्जीवन - अनशन है।' इतना पाठ और कहना चाहिए | पालने की विधि पूर्ववत् है । पूर्ववत् दोहे से अनशन ग्रहण और नमस्कार मत्र से पारण भी किया जाता है।
1
"
प्र०. सलेखनायुक्त अनशन आत्मघात है क्या ?
1
उ० पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि 'शरीरघात और आत्मघात दोनो पृथक्-पृथक् हैं ।' जिससे शरीर का अन्त हो, वह देहघात है तथा जिससे आत्मा की अधोगति हो, अवनति हो, ससार-चक्र बढता हो, वह ग्रात्मघात है ।' इतनी बात समझ लेने पर यह समझना सरल है कि सलेखनायुक्त समाधिमरण से शरोरघात होता है, आत्मघात नही होता, क्योकि सलेखनायुक्त समाधिमरण मे ग्रात्मा की उच्चगति होती है, उन्नति होती है तथा ससार-चक्र घटता है । जिस प्रकार राष्ट्रवादी के लिए स्वराष्ट्र के लिए देहोत्सर्ग करना अपराध नही, वरन् श्रेष्ठतम गौरव है, उसी प्रकार श्रात्मवादी के लिए, आत्मा के लिए शरीर त्याग करना विराधना नही,वरन् श्रेष्ठतम आराधना है |
}
अब यदि शरीरघात भी देखें, तो शरीर एक दिन अवश्य ही नष्ट होने वाला है और कइयो की स्थिति तो ऐसी हो जाती है कि 'वे श्रोषध आदि किसी भी उपाय से बचते हुए दिखाई नही देते ।' ऐसी स्थिति मे पाप करते हुए, औषधि लेते हुए, इहलोक तथा शरीर-विदाई के प्रति प्रसू बहाते हुए शोकाकुल
3
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२०. 'सलेखना' निबध [ १२५ अवस्था मे ही मरना क्या कोई बुद्धिमानी है ? बुद्धिमान नास्तिक भी उस समय औषधि आदि छोडकर शोकरहित होकर शान्त भाव से मरना उचित समझेगा। अत समाधिमरण किसी भी दृष्टि से अनुपयुक्त नही, वरन् सर्वथा उयुक्त है।
__ 'संलेखना' निबन्ध १. सूक्त • १ एक बार बाल मरण से मरने वाला जीव चार गति सम्बन्धी भावी अनन्त मरण की परम्परा खडी करता है और एक बार सलेखनायुक्त समाधिमरण से मरने वाला जीव चार' गति सम्बन्धी भावी अनन्त मरण परम्परा से आत्मा को बचा लेता है। -भग०। २. समाधिमरण के मनोरथ मात्र से जीव पूर्व कर्मों की महा निर्जरा करता है और ससार का महा अन्त करता है। --स्थानाग। ३. एक घडी का सथारा कोटि-कोटि वर्ष के सयम से भी बढ़कर है। ४. इस विश्व मे तीर्थकर भी अमर नही रहे, अतः अवश्यभावी मृत्यु से भय क्या खाते हो? पुनर्जन्म से भय खाओ, जो मरण को अवश्यभावी बनाता है।
२. उद्देश्य : आराधना के अन्तिम मुख्य मरण अवसर को शान्ति और वीरतापूर्वक सफल बनाना।
३. स्थान : सम्यग्ज्ञान द्वारा अज्ञान, सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्यात्व और सम्यक्चारित्र द्वारा राग-द्वेष (अवत) को नष्ट करने के पश्चात् आत्मा के साथ बँधे हए कर्मों को नष्ट करना आवश्यक है। सम्यक्तप कर्मबन्ध को नष्ट करता है । सलेखना सम्यक्तपो मे सबसे शीर्ष स्थानीय है (और यह जीवन के भी शीर्ष समय में की जाती है)। अत: इसे आगमे-तिविहे दर्शन-सम्यक्त्व और १२ व्रतो के पश्चात् अन्तिम चौथा स्थान दिया है।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
४. फल : मृत्यु का दुख न हो। मृत्यु के समय शान्ति बनी रहे। देह, स्त्री, परिवार, परिग्रह छूटने का शोक न हो। 'आगे कैसी योनि मिलेगी?' इसकी चिन्ता न हो। यहाँ से काल करके वैमानिक देव बने। जन्मान्तर मे अपमृत्यु न हो। बोधि तथा धर्म-प्राप्ति मे विरह न पडे। शीघ्र मोक्ष प्राप्त हो ।
५. कर्त्तव्य : सलेखना करने के पश्चात् पाप के फल का, आत्मा की अनाहारिकता का, देह और आत्मा की पृथक्ता का तथा 'सभी सयोगो का वियोग निश्चित होता है।' इसका चिन्तन कर। सलेखना के पाँच अतिचारो का वर्जन करे। मरण को जीवन की सम्पूर्ण आराधना की सफलता-विफलता का प्रश्न समझ कर सलेखना मे अत्यन्त शान्त, वीर, दृढ और मावधान रहे।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करे । 'मै कब समाधिमरण मरूंगा? इसका मनोरथ करे। अब तक हुए बालमरण का खेद करे। समाधिमरण से मरने वाले गजसकुमाल, धर्मरुचि, थावच्चा पुत्र आदि का स्मरण करे।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२१. 'समुच्चय का पाठ'
[ १२७
पाठ २१ इक्कीसवां
विधि : श्रावक सूत्र पढने वाले सलेखना का अतिचार पाठ (छोटी सलेखना) पढकर 'अट्ठारह पाप' (इच्छामि ठामि) और 'तस्स सव्वस्स' का पाठ पढे ।
श्रमण सूत्र पढने वाले (बडी) सलेखना पढकर यह समुच्चय का पाठ, अट्ठारह पाप, पच्चीस मिथ्यात्व और सम्मूच्छिम मनुष्य का पाठ पढे । श्रावक सूत्र और श्रमण सूत्र की विधि आगे देखे।
'समुच्चय का पाठ
इस प्रकार १४ चौदह ज्ञान के, ५ पाँच दर्शन (सम्यक्त्व) के, ६० साठ बारह व्रतो के, १५ पन्द्रह कर्मादानो के (कुल ७५ चारित्र के) और ५ पाँच संलेखना (तप) के, इन ६६ निन्यानवे अतिचारो मे से किसी अतिचार का जानते-अजानते मन-वचनकाया से सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए को अनुमोदन दिया हो, (भला जाना हो), तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान की साक्षी से तस्स मिच्छा मि दुक्कड ।
_ 'समुच्चय' प्रश्नोत्तरी , प्र० । सम्यग्ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप जिस क्रम से कहे हैं, क्या उन्हे उसी क्रम से अपनाना चाहिए ?
उ० इस लोक के लाभ या परलोक के लाभ की दृष्टि से प्रारम्भ मे ही चारित्र और तप को अपनाया जा सकता है,
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ पर मोक्षार्थी को सबसे पहले सम्यग्दर्शन, (सम्यक्त्व) अपनाना चाहिए, क्योकि उसके बिना तीनो मिलकर भी मोक्ष देने में समर्थ नहीं है। सम्यग्दर्शन अपनाने के पश्चात् तीनों मे से किसी को भी अपनाया जा सकता है। जैसे अजुनमाली के समान किसी से ज्ञान विशेप न हो सके, तो वह ज्ञानी की निश्रा मे विना ज्ञान सीखे सीवे ही व्रत अपना सकता है अथवा किसी से व्रतो का पालन कठिन हो और वह सीधे ही कदाचित् अनशन जैसे महातप को भी अपनाना चाहे, तो भी वह अर्हन्नक मुनि के समान सीवे ही तप भी अपना सकता है (तप.अपनाने वाले मे चारित्र भी होता तो है, पर उसकी गौरगता और तप की मुख्यता होती है, अतः ऐसा कहा है) पर यथा सम्भव ज्ञान, चारित्र और तप तीनो साथ मे अपनाना चाहिए, जिससे आत्म-विकास मे सुविधा रहे।
. प्र० · बारह व्रत जिस क्रम से बताये है, क्या उन्हे उसी क्रम से अपनाना चाहिए ?
उ० सभी को साथ मे क्रम से अपनाना अधिक उत्तम है। पर यदि किसी को कोई मध्य का व्रत अपनाने मे कठिनता हो या उसे पूरा अपनाने में कठिनता हो, तो वह उस व्रत को छोडकर या उसे अश से अपना कर अगला व्रत अपना सकता है।
प्र० . उदाहरण देकर समझाइए।
उ० जैसे कई लोग, जो वारह व्रत क्रम से नहीं अपनी पाते, वे सप्त व्यसन का त्याग करते है। जिसमे सबसे पहले १ मासाहर और २. मद्यपान छोडते है, जो सातवे व्रत के उपभोग-परिभोग का आगिक त्याग है तथा ३ शिकार छोड़ते हैं,
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२१ "समुच्चय' का पाठ' [१२६ जो पहले अणुव्रत का प्रश से प्रत्याख्याना है। फिर बिना दूसरा व्रत लिए खात खनन आदि से की जाने वाली मात्र प्रसिद्ध ४ चोरी छोड़ते हैं, जो तीसरे अणुव्रत का अश से प्रत्याख्यान-है। फिर ५ जूया.छोडते हैं, जो सातवे व्रत के कर्मादान का प्रशिक-त्याग है तथा-६. वेश्या, ७: परस्त्री छोडते हैं, जो चौथे व्रत का आंशिक प्रत्याख्यान है। इस प्रकार सप्त व्यसन के त्यागी दुसरा, पाँचवा, "छठा-ये तीन व्रत्त सर्वथा छोडकर पहले से सात,चत अश मात्र अपनाते हैं। यदि कोई राजपुत्र - प्रादि सप्त च्यसन भी न त्याग सके और साधु को निवास दानादिक रूप सीधा बारहवां व्रत ही अश से अपनाना चाहे, तो वह सीवे बारहवां व्रत को भी प्रश से मार्गानुसारी के रूप मे सपनर सकता है।
___प्र० तो, क्या ये व्रत कक्षा या सोढों के समान क्रम वाले नहीं हैं २
उ० : नही, यदि ये कक्षा बा सीढी के समान होते, तो पहले-पहले के ब्रत अपनाये बिना कोई पिछला-पिछला व्रत अपना नहीं पाता। पर पहले भी इस प्रकार लोगो ने व्रत अपनाये है और वर्तमान मे भी ऐसे अपनाने वरले मिलते हैं ।
२०: तब ब्रतों का ऐसा क्रम क्यों रक्खा गया ?
उ. १. कौन व्रत मुख्य है और कौन क्त गौण है ? २ कौन व्रत अपनाने से किस व्रत को सहायता मिलती है ? ३. कौन व्रत अपनाने मे सरल और कौन बन अपनाने में कठिन है ? ४. कौन व्रत अल्पकाल का और कौन ब्रत दीर्घकाल-का है ? इत्यादि बताने के लिए।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३० ] सुबोध जन पाठमाला--भाग २
प्र० : बारह व्रतो मे मूल व्रत कितने और उत्तर प्रत कितने ?
उ० • पांच अणुव्रत मूल व्रत है, क्योंकि वे बिना समिश्रण से बने हुए हैं। शेष व्रत उत्तर व्रत है, क्योकि वे मूल व्रतों के सम्मिश्रण से या उन्ही के विकास से बने हैं ?
प्र० : उदाहरण देकर बताइए।
उ० • जैसे सामायिक व्रत पाँचो अणुव्रतो के सम्मिश्रण से बना है, क्योकि उसमे सभी अणुव्रतो का पालन होता है। तथा पाँचो अणुव्रतो के विकास से बना है, क्योकि उसमे स्थूल हिंसादि के साथ सूक्ष्म हिसाटि भी त्याग होता है ।
प्र० : व्यसन किसे कहते है ?
उ० जो स्वभाव एक बार लगने पर पुनः कठिनता से छूटता हो, ऐसा अशुभ स्वभाव 'व्यसन' कहलाता है.। उससे पाप मे अत्यन्त गृद्धि रहती है और इस भव तथा परभव में बहुत कष्ट होते हैं।
प्र व्यसन से इस भव परमव के कष्ट बताइए।
उ० · यदि पूर्व का पुण्य न हो, तो इन व्यसनो से इस भव मे प्रायः १. प्राणी का शरीर नष्ट हो जाता है। २. स्वभाव बिगड जाता है। ३ घर के स्त्री-पुत्रो को दुरवस्था हो जाती है। ४ व्यापार चौपट हो जाता है। ५. धन का सफाया हो जाता है। ६ घर द्वार नीलाम हो जाते हैं। ७ प्रतिष्ठा धूलमे मिल जाती है। राज्य से दण्डित होते हैं। ६. कारागृह मे जीवन निकलता है। १०. फाँसी पर लटकना पड़ना है। ११. अात्मघात करना पड़ता है। आदि कई इहलौकिक
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
$
सूत्र - विभाग -- २१. 'समुच्चय का पाठ '
[ १३१
कष्ट भोगने पडते हैं । परभव मे भी वह नरक निगोद आदि मे उत्पन्न होता है । वहाँ उसे नरक तिर्यञ्च दशा मे बहुत कष्ट उठाने पडते हैं । यदि कदाचित् वहाँ से मनुष्य बन भी जाय, तो हीन जाति कुल में जन्म लेता है । अशक्त, रोगी, हीनाग, नपुसक और कुरूप बनता है । वह मूर्ख, निर्धन, शासित और दुर्भागी रहता है । श्रत इन सप्त व्यसनो का त्याग करना प्रतीव लाभप्रद है ।
}
प्र० : बिना व्रत लिए 'व्रत लेकर तोड़ना महापाप है' प्रतिचार लग ही जाता है, अत
भी पाप तो लगता ही है, पर और प्राय व्रत मे कोई न कोई व्रत लिया ही क्यो जाये ?
उ० : महापाप तब लगता है, जब वही का वही व्रत बार-बार लेकर उस व्रत के प्रति अनादर और प्रमाद रखकर उसे तोडा जाय । परन्तु जो व्रत लेकर व्रतके प्रति आदर रखता है तथा उसे पालने की सावधानी रखता है, परन्तु परिस्थितिवश कुछ प्रतिचार लग जाता है, उसे महापाप नही लगता । वरन् वह व्रत धारण न करने वाले से महालाभ मे रहता है । लिए हुए व्रत मे अतिचार न लगे, इसके लिए पाप का भय रखना उचित है, क्योकि इससे व्रत की सुरक्षा होती हैं । परन्तु प्रतिचार के भय से व्रत ही नही लेना बालकपन है । जैसे वस्त्र पहनने के पश्चात् उसमे मैल न लगे, इसके लिए सावधानी रखना उचित है, क्योकि इससे वस्त्र अधिक शुद्ध रहता है परन्तु मैल लग जाने के भय से वस्त्र धारण ही न करें, तो उसे कौन बुद्धिमान कहेगा ?
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२]
सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
पाठ २२ बाईसवाँ
१६. अहारह पाप
१. प्रारणातिपात २. मृषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह ६. क्रोध ७. मान ८. माया ६. लोभ १० राग
: प्रेम,(माया और लोभजन्य परिणाम) ११. द्वेष
: वैर, (क्रोध और मानजन्य परिणाम) १२. कलह : क्लेश, झगडा (वचन से होने वाली) १३. अभ्याख्यान : (मह के सामने) कलग लगाना १४. पैशुन्य
: (पीठ पीछे) चुगली खाना १५. परपरिवाद : दूसरे की (अहितकर) निन्दा करना १६. रति
: शुभ विषयो मे आनन्द होना परति
: अशुभ विषयो मे खेद होना, १७. माया-मृषा : कपट सहित झूठ बोलना (एक साथ
दो पाप करना) १८. मिथ्या-दर्शन-शल्य : देव गुरु, धर्म, सबधी श्रद्धा का अभाव
होना या मिथ्या श्रद्धा होना; जो
मोक्ष मार्ग के लिए काँटे के समान है। ऐसे अट्ठारह प्रकार के पाप मे से किसी पापं का सेवन किया हो, करीयों हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, तों दिन मम्बन्धी तस्स मिच्छो मि दुर्वकडं।
तस्स सव्वस्त का पाठ तस्स, सव्वस्स : उन सभी देवसियस्स, अइयारस्स : दिन सबधी अतिचार का
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२३ 'पच्चीस मिथ्यात्व' का पाठ
[ १३३
दुम्भासिय-दुचितिय..जो दुष्ट भाषण, दुष्ट चिन्तन और दुचिट्ठियस्स, : दुष्ट काय प्रवृत्ति से लगे है, प्रालोयन्तो- : आलोचना करता हुआपडिक्कमामि । : उनसे प्रतिक्रमण करता हूँ।'
तस्स- धम्मस्स' का पाठ तस्स धम्मस्स : उसः (जैन) धर्म की केवलि-पण्णत्तस्स' : जो केवली प्ररूपित है, प्रभुटिनोमि : उठ कर खडा होता हूँ प्राराहरगाए, : आराधना करके लिए। विरोमि
: विरत होता (हटता) हूँ विराहणाए : विराधना (करने) से। तिविहेण पडिक्कतो' : अब तक हुई विराधना का मन-वचन
काया से प्रतिक्रमण करता हुग्राः वदामि
वन्दना करता हूँ जिण चउव्वीस : चौबीस तीर्थकरो को।
पाठ २३ तेईसवां २. 'पच्चीस मिध्यान्व' का पाठ
१. जोव को अजीव श्रद्धेः तो मिथ्यात्व
: जीव तत्व न माना हो, या, जड से
उत्पन्न माना हो, या स्थावर जीव न माने हो, : विश्व को भगवद्रूप माना हो, सूर्यादि'
२. अजीव को जीव
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुवोध जैन पाठमाला - भाग २
१३४ ]
श्रद्धे तो मिथ्यात्व
३. धर्म को अधर्म
श्रद्ध तो मिथ्यात्व ४. प्रधर्म को धर्म
श्रद्धे तो मिथ्यात्व
५. साधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व ६. प्रसाधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्वं
७. मोक्ष के मार्ग को
संसार का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व
८. संसार के मार्ग को
मोक्ष का मार्ग
श्रद्धे तो मिथ्यात्व
६. मुक्त को अमुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व
१०. श्रमुक्त को मुक्त | श्रद्धे तो मिथ्यात्व ११. श्रभिग्रहिक मिथ्यात्व
१२. अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व
१३ श्रभिनिवेशिक
को मूर्ति, चित्रादि को भगवान माना हो,
: जैन धर्म को धर्म अर्थात् केवली भाषित शास्त्र को सुगास्त्र न माना हो, : ग्रन्य धर्मो को धर्म ग्रर्थात् अज्ञानी भापित शास्त्र को सुशास्त्र माना हो, • ५. महाव्रत ५ नमिति ३ गुप्तिधारी साधु को सुसाधु न माना हो, महाव्रतादि रहित स्त्री परिग्रह सहित साधु को सुसाधु माना हो,
: सम्यग्ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप को या संवर-निर्जरा को या दानशील तप भाव को ससार मार्ग माना हो,
•
मिथ्याश्रुत, मिथ्यादृष्टि, ग्रव्रत और बाल तप को या आश्रव-वध को मोक्ष मार्ग माना हो,
1
: ग्ररिहत - सिद्ध को कर्ममुक्त सुदेव न माना हो या, मोक्षतत्व न माना हो, : कुदेवो को सुदेव मांना हो, मोक्ष से पुनरागमन या अवतार माना हो, : गुण-दोष की परीक्षा किये बिना, किसी मिथ्या देवादि का पक्ष किया हो,
: गुण-दोष की परीक्षा किये बिना सभी देव गुरु धर्मों को समान समझे हो,
: अपने देवादि को असत्य जानते हुए
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२३. पच्चीस मिथ्यात्व का पाठ
१३५
मिथ्यात्व
१४. सायिक मिथ्यात्व १५. अनाभोगिक मिथ्यात्व १६. लौकिक मिथ्यात्व
१७. लोकोत्तर मिथ्यात्व
१८ कुप्रावनिक मिथ्या व १६. जिन मार्ग से न्यून श्रद्धे तो मिथ्यात्व
भी उनका दुराग्रह या स्थापना
की हो, : 'न जाने ये सच है या दूसरे ?' यों
सच्चे देवादि मे सन्देह किया हो, :: विशेष ज्ञान-विकलता से देवादि
सबधी विचार ही न किया हो, : लौकिक देव, लक्ष्मी आदि, गुरु, राजा
आदि व धर्म-विवाह आदि को सच्चे देवादि माने हो, : गोशाला, प्रतिमा आदि को तीर्थकर,
मात्र जैन वेश से जैन साधू या उत्सूत्र प्ररूपगाा को धर्म माना हो, : अन्य सदोष देव, गुरु, धर्म को सच्चे
देव, गुरु, धर्म माने हो, : जैन देव, गुरु, धर्म मे थोडी भी कमी मानो हो, एक अक्षर पर भी अश्रद्धा की हो या रक्षा आदि की कम प्ररूपणा की हो, : इतर कुदेव, कुगुरु, कुधर्म मे थोडी भी. विशेषता समझी हो, या दिगबरत्व
प्रादि को अधिक प्ररुपणा की हो, : जैन देव, गुरु, धर्म से किचित् भी विपरीत श्रद्धा की हो या अपवाद
प्रादि की विपरीत प्ररूपणा की हो, : क्रिया व्यर्थ है, जडता या दभ है आदि
श्रद्धा या कहा हो,
२०. जिन मार्ग से अधिक श्रद्ध तो मिथ्यात्व २१ जिन मार्ग से विपरीत श्रद्धे मिथ्यात्व २२ प्रक्रिया मिथ्यात्व
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६ ]
-सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
२३. अज्ञान मिथ्यात्व
२४. अविनय मिथ्यात्व २५. पाशातना । मिथ्यात्व
: 'ज्ञान व्यर्थ है, जाने वह ताने, भोले
का भगवान है' श्रादि श्रद्धा या कहा हो, : विनय को दासता मानी हो, आज्ञा
भग की हो, वचन उत्थापे हों, : सूदेवादि की हीलना, निन्दना की हो
उन्हे 'चूक गये' आदि कहा हो।
- ऐसे पच्चीस.प्रकार के मिथ्यात्व में से किसी मिथ्यात्व फा सेवन किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, तो दिन सबंधी तस्स मिच्छा मि दुक्कउं ।
'मिथ्यात्व' प्रश्नोत्तरी
प्र० मिथ्यात्व प्रतिपादन का उद्देश्य क्या है ?
उ० : जैसे वन से नगर का मार्ग बतलाने वाला मार्गज पथिक को यह बताता है कि, 'तुम्हारा नगर पूर्व की ओर है, इसलिए इन पश्चिमादि दिशानो को जाने वाले मार्ग छोड दो तथा ये पूर्व दिशा को जाने वाले तीन मार्ग है। जिसमे यह पहला मार्ग बहुत कॉटेयुक्त है और पुन पूर्व से अन्य दिशा मे घूम जाने वाला है, उसे भी छोड दो, और यह पूर्व दिशा को जाने वाला दूसरा मार्ग प्राय कटकरहित तो है, परन्तु वह भो पुन: अन्य दिशा मे घूम ने वाला है, उसे भी छोड दो। यह तीसरा पूर्व मे जाने वाला मार्ग पूर्ण शुद्ध है, राजमार्ग है- और ठेठ नगर तक पहुँचता है, मेरे 'कथन पर विश्वास रख कर इस मार्ग से जायो।' और हाँ, इस मार्ग को उचित रूप न
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग --- २३ 'मिथ्यात्व' प्रश्नोत्तरी
[ १३७
जानने वाले तथा कुछ स्वार्थी लोग पथिको को अशुद्ध मार्ग बता देते हैं। उनके लक्षण ये हैं । उनके कहने में भी न आना ।' और अशुद्ध मार्ग से चलने वालो का भी विश्वास
मत करना |
ऐसा बताने या कहने में जैसे उस मार्गज्ञ के हृदय मे पथिक को नगर मे सुखपूर्वक पहुँचाने का एकान्त हितमय उद्देश्य है, वैसे ही अरिहन्तो ने जो मिथ्यात्व प्रतिपादन किया है, उसका यही उद्देश्य है कि 'भव्य जीव सुखपूर्वक मोक्षनगर में पहुँचे । १ हिंसादि मय कुमार्ग, २. हिंसामिश्रित कुमार्ग या ३. लौकिक सुखप्रद पुण्यमार्ग में भटक न जावे या अन्य इन्हे भटका न दे ।' मिध्यात्व प्रतिपादन का इससे अन्य कोई उद्देश्य नहीं है ।
प्र० : मिथ्यात्व प्रतिपादन से जीवो में एक के प्रति राग और दूसरे के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है, अतः इसका प्रतिपादन उचित कैसे ?
उ 'मिथ्यात्व प्रतिपादन के पहले जीव वीतराग हों और मिथ्यात्व प्रतिपादन से बाद जीव राग-द्वेषयुक्त बनते हो,' यह धारणा शुद्ध नही है । उनका राग किसी न किसी ओर रहता अवश्य है या राख से दबी अग्नि के समान दबा हुआ हो सकता है पर रहता अवश्य है । मिथ्यात्व प्रतिपादन से जीवों के राग-द्वेप को एक नई मोड मात्र मिलती है । वे मोक्ष-प्रद सच्चे देव गुरु धर्म के रागी बनते हैं और मोक्ष देने में असमर्थ अशुद्ध देव गुरु धर्म के प्रति विमुख बनते हैं । परन्तु यह मोड प्रशस्त (शुभ) ही है, क्योकि उस मोड से वे मन्द राग-द्वेष वाले होते हुए एक दिन वीतराग ही बनते हैं । अतः मिथ्यात्व प्रतिपादन करना उचित ही है ।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८ । सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
प्र० . देखा यह जाता है कि 'मिथ्यात्व प्रतिपादन से कुछ लोगो मे राग-द्वेष तीव्र बनते हैं।
उ० : जिनमें ऐसा हुया है, उनको मिथ्यात्व प्रतिपादन का वास्तविक उद्देश्य बता कर उन्हे अशुद्ध देवादि के प्रति सहिष्णु बनाना चाहिए व वैर-विरोध व असत्य निन्दा आदि से बचाना चाहिए। अच्छे-से-अच्छे पदार्थ का दुरुपयोग हो सकता है, उसका सुधार ही एक मात्र उपाय है। दुरुपयोग के भय से अच्छे पदार्थ छोडे नहीं जा सकते या उनके प्रतिपादन को त्यागा नहीं जा सकता।
प्र० : मिथ्यात्व प्रतिपादन के द्वारा राग-द्वेष को नई मोड मिले बिना सीधे हो राग-द्वेष को नष्ट करने का अन्य उपाय नहीं है क्या?
उ० : नहीं, क्योकि जीव अनादि काल से राग-द्वेषग्रस्त रहा है, अत. सीधे ही उसका राग-द्वेष नष्ट होना संभव नहीं।
प्र० : व्यवहार मे सत्य के प्रति राम और असत्य के विमुखता होने को राग-द्वेष की सज्ञा दी जा सकती है क्या?
उ. नहीं,जैसे सोना और पीतल, केतकी और कणिकार, सूर्य और पतगिये मे यदि लोगो का स्वर्ण, केतकी और सूर्य के प्रति अनुराम तथा पीतल... कणिकार और पतगिये. के प्रति विमुखता हो, तो उसे व्यवहार मे राग-द्वेष न कह कर गुणज्ञता ही कही जाती है।
प्र० · मिथ्यात्व कितने है ?
उ० : वैसे तो मिथ्यात्व एक ही है और वह है 'मिध्या श्रद्धा, परन्तु 'मिथ्या श्रद्धा किन बातो पर और किस प्रकार
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२४. 'चौदह सम्मूच्छिम' का पाठ [ १३६ होती है ?' यह समझना कठिन है, पर इसे समझना अत्यन्त आवश्यक भी है। क्योकि मिथ्यात्व अट्ठारह ही पापो मे सबसे बडा व भयकर पाप है। यदि इस मेरु पर्वत के समान अकेले पाप के सामने हिंसादि १७ ही पाप मिलाकर रख दिये जायँ, तो भी वे इसके तुल्य नहीं हो सकते, राई-वत् ही रहते हैं। अत इसे स्पष्ट समझाने के लिए पहले 'जीव को अजीवश्रद्धे' इत्यादि मिथ्यात्व के दश भेद किये हैं, फिर आभिग्रहिक आदि -पॉच भेद किये हैं, फिर लौकिक आदि तीन, पुनः न्यूनादि तीन
और पुन प्रक्रिया, अज्ञान ये दो और पुनः अविनय, आशातना ये दो भेद क्येि हैं। इस प्रकार सब भेद २५ किये हैं।
पाठ २४ चौबीसा
२१. 'चौदह सम्मच्छिम' का पाठ
१ उच्चारेसु वा २. पासवरणेसु वा ३. खेलेसु वा ४ सिंघारणेसु वा ५. वंतेसु वा ६. पित्तेसु वा ७. सोरिएएसु वा ८. पुइएसु वा ६. सुक्केसु वा
: (मनुष्य के) उच्चार (विष्ठा) में : प्रश्रवण (मूत्र) में : खेल (मुख के खेकार) में | : सिंघारण (नाक के सेडे) में : वमन (सामान्य उल्टी) में : पित्त (की विशिष्ट उल्टो) में : शोणित (सामान्य रक्त, लोही) में : पू (सडे हुए लोही) मे • शुक (रज-वीर्य) मे
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४० ]
१० सुक्क पुग्गलपरिसाडिएस वा ११. विगय-जीवकलेवरेसु वा
१२ इत्थी पुरिस संजोगेसु वा
१३. नगर
निधमणेसु वा १४. सव्वेसु चेव श्रसुइ- ठाणेसु वा
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
चाहिएँ
: (रज) वीर्य के भूखे पुल पुनः आले होवे, उसमे
.
: मरे हुए मनुष्य के कलेवर ( शव )
मे
: स्त्री-पुरुष के ( रज तथा वीर्य इन : दोनो के ) सयोग मे
इन चवदह स्थानों मे उत्पन्न होने वाले सम्मूछिम मनुष्यो की विराधना की हो, तो दिन संबंधी तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
: नगर की नालियो मे (जहाँ उच्चारादि के साथ अन्य द्रव्य भी मिल जाते हैं) : और सभी ग्रशुचि स्थानो मे (जहाँ केवल ये या अन्य द्रव्य भी मिलते हो )
'सम्मूच्छिम' प्रश्नोत्तरी
प्र० मनुष्य सम्मूच्छिम की जानकारी दीजिए ।
उ० : शरीर से मल-मूत्र आदि पृथक् होने के पश्चात् गारीरिक उप्णता के अभाव मे जब वे शातल हो जाते है और गीले रहते हैं, तब उनमे कभी-कभी एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट) से भी पहले मनुष्य की ही जाति और मनुष्य की ही प्राकृति के, पर अगुल के असख्य भाग जितनी अवगाहना ( लम्बाई-चौड़ाईजाडाई) वाले असख्य छोटे जीव उत्पन्न हो जाते हैं । वे बिना मन के होने से सम्मूच्छिम कहलाते है । उनका श्रायुष्य अन्तर्मुहूर्त जितना छोटा होता है ।
प्र० उनकी रक्षा के लिए मल-मूत्रादि कहाँ डालने
-
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
'सूत्र विभाग - २४ सम्मूच्छिम' प्रश्नोत्तरी [१४१
उ०: १. खुली २. धूप वाली, ३. रेत आदि वाली ४. जो पानी आदि से भीगी हुई न हो ५. पहले जहाँ मलमूत्रादि न किया हो तथा ६. एकात हो, ऐसी भूमि मे डालना चाहिए।
प्र० ऐसी भूमि मे क्यो डालना चाहिए?
उ० . १ खुली भूमि में वायु लगने से, २. धूपवाली मे धूप लगने से, ३ रेत आदि वाली मे रेत आदि मिल जाने से तथा ४ सूखी भूमि मे गीलापन न मिलने से, वे मल-मूत्र आदि शीघ्र सूख जाते हैं, अत: उनमे जीवोत्पत्ति नहीं होती। ५ अन्य मलमूत्रादि पर न डालने से पहले के मल-मूत्र के जीवो की विराधना नहीं होती तथा उन्हे सूखने मे बाधा नही पडती। ६. एकात मे डालने से लोगो के स्वास्थ्य मे बाधा तथा विचारो मे घृणा उत्पन्न नही होतो। अन्य का उस पर पर भी नही पड़ता।
प्र० : उन्हे कैसे डालना चाहिये ?
उ० : मूत्रादि के पात्र मे मूत्र करके उसे फैलाकर डालना चाहिए। स्थडिल भूमि मे वार-वार आगे बढ़ते हुए मल त्यागना चाहिए। कफादि त्यागने के पश्चात् उन पर राख, धूल आदि डालनी चाहिए।
प्र० : थूक आदि मे समूच्छिम मनुष्य जीव उत्पन्न होते हैं या नहीं ?
उ०: नही, जैसे आँख का मल, कान का मल, पसीना आदि मनुष्य की अशुचि होते हुए भी शरीर से पृथक् होकर दूर हो जाने पर उन मे अन्य जीव भले ही उत्पन्न होते है, पर सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न नहीं होते। वैसे ही थूक मे भी वे उत्पन्न नहीं होते।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२ ] सुवोध जन पाठमाला--भाग २
प्र० : तव 'सव अशुचि स्थान मे समूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं।' इस कथन का उद्देश्य क्या है ?
उ० : स्त्री-योनि, नगर नाली आदि के समान जितने भी उकरडे आदि अशुचि स्थान हैं, चाहे वहाँ केवल मल-मूत्रादि ही परस्पर सयुक्त होते हो या अन्य सामान्य सैकडो वस्तुप्रो का सयोग हो जाता हो, वहाँ भी सम्मूच्छिम जीवोत्पत्ति होती है। परन्तु जैसे अन्य कुछ सचित पदार्थ परस्पर मिल जाने से या उनमे तीसरी वस्तु मिल जाने से वे सचित्त भो अचित्त हो जाते है, तो 'ये मूल से अचित्त परस्पर मिल जाने से या उनमे तीसरी वस्तु मिल जाने से सचित्त नही बनते होगे, यह धारणा अशुद्ध है। यह वताना इस कथन का उद्देश्य है। ,
प्र० : 'मुह पर 'मुख-वस्त्रिका' वाँधने से बोलते समय उस पर थूक लग कर उसमे मनुप्य संमच्छिम जीवो की उत्पत्ति होती है।' इस पक्ष का उत्तर क्या है ?
उ० : वर्तमान मे यह पक्ष रखने वालो के पूर्वज 'मुख पर मुखवस्त्रिका बाँधते थे' और 'बाँधना चाहिए' ऐसी आम्नाय भी रखते थे। ऐसा कुछ ऐतिहासिक चित्रो, लेखो और ग्रन्थो से सिद्ध है। यह तो प्रासगिक जानकारी है। वैसे उत्तर यह है कि-१. 'चाहे कोई मुखवस्त्रिका मुख पर न बाँधे, चाहे कोई मुख पर न भी रक्खे, पर सिद्धान्त से 'वायुकाय को यतना के लिए मुखवस्त्रिका मुह पर रहनी चाहिए।' यह तो वे भी मानते ही हैं। उसे मुह पर रखने पर यदि वक्ता का इस सवध मे स्वास्थ्य उत्तम नही है, तो मुखवस्त्रिका पर थूक लगेगा ही। थूक लगने पर यदि उस मे मनुष्य समूच्छिम जीवो की उत्पत्ति होती है। ऐसा माना जाय, तो सूत्रो मे जो मुखवस्त्रिका को
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२५. 'श्रमण सूत्र' चर्चा [ १४३ उपकरण अर्थात् जीवरक्षा और सयमरक्षा आदि का साधन ' माना गया है, उस मान्यता मे आपत्ति पहुँचेगी। अत थूक से मनुष्य सम्मूच्छिम जीवोत्पत्ति का पक्ष सगत नहीं लगता।
२ दूसरे मे जब सूत्रकार ने मनुप्य समूच्छिम जीवो की उत्पत्ति के स्थान बताते हुए नाक का सेडा मुख का श्लेष्म आदि, जो थूक की अपेक्षा कम और देरी से होते है, उन्हे भी बताया है। रज-वीर्य के सयोग और नगर की नालियो मे भी मनुष्य समूच्छिम पैदा होते है, इतनी स्पष्टता को है, तो यदि थूक से मनुष्य समूच्छिम जीवोत्पत्ति होती, तो वे अवश्य ही थू क मे उनकी उत्पत्ति का कथन करते। क्योकि थूक अधिक और शीघ्र होता है और मुखवस्त्रिका पर लगने की अपेक्षा वह विशेष सावधानी का विषय भी बन जाता है। पर उन्होने कथन नहीं किया, इस कारण भी उक्त पक्ष वास्तविक नही लगता।
पाठ २५ पच्चीसवा 'श्रमण सूत्र' चर्चा
प्र० श्रमण सूत्र किसे कहते है ?
उ० १. इच्छामि ण भते २ नमस्कारमत्र ३. करेमि भंते ४. चतारि मगलं ५ इच्छामि ठाएमि (पडिक्कमिउ) ६ इच्छाकारेणं (इरियावहियाए) ७ पगामसिज्जाए ८ रोगग्ग-चारयाए, चाउकाल मज्झयिस्स १०. तैतीस
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ बोल (एगविहे असजमे) ११. नमो चउवीसाए-इन ग्यारह पाठ और 'खामेमि सव्वे जीवा' आदि गाथायो को 'श्रमण सूत्र कहते है।
किन्तु आजकल कई स्थानो पर १. पगामसिज्जाए २. गोयरग्ग-चरियाए ३. चाउकाल सज्झायस्स ४. तैत स बोल और ५. नमो चउव्वीसाए-इन पाँच पाठो को श्रमरण सूत्र कहा जाता है।
प्र० । श्रमण सूत्र पढ़ने वाले और श्रावक सूत्र पढने वाले किन्हे कहते हैं ?
उ० जो श्रावक, प्रतिक्रमण मे 'पगामसिज्जाए' आदि पाँच पाठ पढे, उन्हे श्रमण सूत्र पढने वाले कहते हैं तथा जो इन स्थानो पर आगमे तिविहे, दसण सम्मत्त, बारह व्रत अतिचार सहित, (बडी) सलेखना, समुच्चय का पाठ, अट्ठारह पाप (इच्छामि ठामि) व तस्स धम्मस्स का पाठ पढते हैं, उन्हे श्रावक सूत्र पढने वाले कहते है ।
प्र० । प्रतिक्रमण मे कौन से श्रावक श्रमरण सूत्र पढते हैं और कौन नहीं पढते है ?
उ० . मारवाड की सम्प्रदाय, पञ्जाब की सम्प्रदाये, और गुजरात की दरियापुरी सम्प्रदाय के श्रावक, प्रतिक्रमण मे श्रमण सूत्र बोलते नही है।
___ काठियावाड गुजरात की मव छह कोटि सप्रदाये, मालवा के पूज्य धर्मदासजी को सप्रदाय, मारवाड के पूज्य ज्ञानचन्दजी की सप्रदाय, मालवा तथा दक्षिण को ऋपि सम्प्रदाय के श्रावक प्रतिक्रमण मे श्रमणमूत्र बोलते है।
~धी के० तुरखिया.
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
मूत्र-विभाग-२५ "श्रमण सूत्र' चर्चा [ १४५ प्र०: श्रावको को प्रतिक्रमण मे श्रमणसूत्र पढना या नहीं? इस सम्बन्ध में पक्ष विपक्ष के तर्क बताइये ।
उ० : पक्ष-विपक्ष इस प्रकार है
विपक्षकार -'श्रमरणसूत्र' का अर्थ-'साधु का सूत्र' होता है, अत. श्रमणसूत्र 'साधु' को हो पढना चाहिए, श्रावक को नहीं पढना चाहिए।
पक्षकार - प्राय श्रमण' का अर्थ 'साधू' ही होता है,परन्तु कही-कही 'श्रमण' का अर्थ 'श्रावक' भी होता है। जैसे भगवती शतक २० उद्देशक ८ में, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चारो को "श्रमण' मानकर चारो के सघ को 'श्रमण-सघ' कहा है। इसी प्रकार यहाँ भी 'श्रमणसूत्र का' अर्थ 'साधु-साध्वी, श्रावकश्रविका इन चारो का सूत्र' है। अतः श्रमणसूत्र श्रावक का भी सूत्र होने से, उसे भी प्रतिक्रमण मे श्रमणसूत्र पढना चाहिए।
विपक्षकार-भगवती मे साध, साध्वी, श्रानक, श्राविका इन चारो को 'श्रमण' मान कर चारो के सघ को 'श्रमग सघ' नहीं कहा है, परन्तु भगवान महावीर को 'श्रमरण' मान कर उनके संघ को 'श्रमण-सघ कहा है।
पक्षकार-'श्रमण-संघ' का अर्थ 'भगवान महावीर का संघ' ऐसा कही नही किया गया है। सर्वत्र 'श्रमण-सब' का 'अर्थ 'साधु-सघ' 'मुनि-सघ' आदि ही किया है, जिससे किसी अपेक्षा श्रावक भी श्रमण' है, यही सिद्ध होता है ।
विपक्षकार 'श्रमण-सूत्र' साधुग्रो को बोलना उपयोगी है, श्रावको को नही। अत. श्रमरण-मन श्रावकरे को प्रतिक्रमण मे नही वोलना चाहिए।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६ । सुवोध जन पाठमाला-भाग २
पक्षकार-श्रमण-सूत्र श्रावको को भी उपयोगी है। जिसका प्रबल प्रमाण यह है कि-'श्रमण-सूत्र के ११ पाठ में ६ पाठ और श्रमण-सूत्र की 'खामेमि सव्वे जीवा' आदि की गाथाएं तो श्रमण-सूत्र का निषेध करने वाले भी बोल ही रहे हैं। जिसमे नमस्कार मन्त्र, मांगलिक और इच्छाकारेण-श्रमण-सूत्र के ये तीन पाठ और खामि सव्वे जीवा आदि गाथाएँ तो ज्यों के त्यो बोली जाती हैं और शेप इच्छामिण भते, करेमि भते व इच्छामि ठाएमि-ये श्रमरण-सूत्र के तीन पाठ श्रावक योग्य कुछ, ही परिवर्तन करके वोले जाते हैं। शेष पॉच पाठ, जिन्हे नहीं बोलते हैं, वे भी श्रावको को उपयोगी हैं ही।
प्र० : पगामसिज्जाए' का पाठ किसलिये उपयोगी हैं ?
उ० श्रावक जव पौषध करता है, तब रात्रि को सोता है। उस समय गय्या में लगे अतिचारो के प्रतिक्रमण के लिए यह पाठ उपयोगी है।।
विपक्षकार-शय्या के अतिचार का प्रतिक्रमण 'पोसहस्स सम्मं अगरगुपालगया' के ध्यान से हो सकता है।
पक्षकार नही, जैसे - पौषध मे ममना-गमन के अतिचारो का प्रतिक्रमण 'इच्छाकारेणं' के पाठ के ध्यान से किया जाता है, 'पोसहस्स सम्म अगरणपालण्या' के ध्यान से नहीं। इसी प्रकार पोपध मे शय्या के अतिचारो का प्रतिक्रमण 'पोसहस्स सम्म अरणरणपालगया' के ध्यान से नही हो सकता, उसके लिए पगामसिज्जाए के ध्यान की पृथक आवश्यकता है।
प्र० : गोयरग्गचरियाए का पाठ किसलिए उपयोगी है ?
उ० . श्रावक जव गौचरी की दया करता है, तव भिक्षा मे लगे अतिचारो के प्रतिक्रमण के लिए यह पाठ उपयोगी है।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२५. 'श्रमण सूत्र' चर्चा [ १४७ विपक्षकार-ग्यारहवी प्रतिमा के धारी श्रावक से अन्य श्रावक को गौचरी करना ही नहीं चाहिए।
पक्षकार-ऐसा सूत्र मे कही निषेध नही है, पर उपासक दशाग सूत्र में यह उल्लेख अवश्य है कि 'पानद श्रावक ने पहली प्रतिमा भी धारा नहीं की थी कि उससे भी पहले से वे गौचरी करने लग गये थे।
इसके अतिरिक्त दो करण तीन योग (आठ कोटि) की दया से गौचरी स्पष्ट सिद्ध होती है, क्योकि दो करण तीन योग (आठ कोटि) से दया करने वाला अपने लिए बना हुआ भोजन कर नही सकता। कारण. यह है कि 'अपने लिए भोजन भोगने से उसे 'पाप का काया से अनुमोदन' का दोष लगता है।' अतः वह गौचरी करके ही पाहार करता है। .
प्र० . 'चाउकालं सज्झायस्स' का पाठ किसलिए उपयोगी है ?
उ० : श्रावक जब पौषध करता है, तब उसे चारो प्रहर स्वाध्याय करनी चाहिए तथा प्रात:-सध्या उभय-काल प्रतिलेखन करना चाहिए। उस समय स्वाध्याय तथा प्रतिलेखन मे लगे अतिचारो के प्रतिकमरण के लिए यह पाठ उपयोगी है।
विपक्षकार- 'स्वाध्याय के अतिचार का प्रतिक्रमण' 'पागमे तिविहे' से और 'प्रतिलेखन के अतिचारो का प्रतिक्रमण' 'अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-सिज्जासथारए' आदि से हो सकता है।
पक्षकार-'पागमे तिविहे' का पाठ साधुयो के लिए भी है, फिर भी उसके रहते हुए भी जैसे साघुरो के लिए 'चाउस्काल सज्झायस्स' का पाठ उपयोगी है तथा जैसे साधुनो
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८ ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
को चौथी 'आदान- भाण्ड - निक्षेपरणा समिति' होते हुए भी उन्हें यह पाठ उपयोगी है । वैसे ही श्रावको के लिए 'आगमे तिविहे ' तथा 'अप्पडिले हिय- दुप्पडिलेहिय-सिज्जा संथारए' आदि का पाठ होते हुए यह पाठ श्रावक को उपयोगी है ।
प्र० श्रावको को ये तीनो पाठ प्राय काम में नही आते, अत ये पाठ श्रावक न बोले, तो क्या आपत्ति है
?
•
उ० : मारणातिक सलेखना जीवन के अन्तिम समय मे एक वार ही की जाती है, ग्रतएव सलेखना पाठ एक बार ही काम आता है । फिर भी जब श्रावक नित्य सलेखना पाठ बोलता है, तो ये तीनो पाठ तो पौषध मे अनेको बार काम आते है । तव श्रावक इन पाठो को बोलना कैसे छोड़ सकता है ?
प्र० : जिस दिन श्रावक पौषध करे, उसी दिन ये तोनों पाठ बोल लिए जायें, अन्य दिन न बोले जायें, तो क्या श्रापत्ति है ?
उ० : जैसे जिस दिन श्रावक पौषध नहीं करता, उस दिन भी वह पौषध व्रत का पाठ बोलता है, तो वह पौषधोपयोगी इन तीनो पाठो को अन्य दिन क्यो न बोले ?
प्र० : तैतीस बोल का पाठ किसलिए उपयोगी हैं ?
उ० : इस पाठ से श्रद्धा प्ररूपणा स्पर्शना मे लगे अतिचारो का प्रतिक्रमण किया जाता है । और इससे जानने योग्य, त्यागने योग्य और आदरने योग्य बोलो की जानकारी होती है, अतः यह पाठ श्रावक को ही क्या, श्रविरत सम्यग्दृष्टि को भी उपयोगी है ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग- २५ 'श्रमण सूत्र' चर्चा
[ १४९
विपक्षकार - तीन गुप्ति, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, १२ भिक्षु प्रतिमा ग्रादि, जिसे श्रावक धारण ही नहीं करता, उनका वह क्या प्रतिक्रमण करे ?
पक्षकार - तीन गुप्ति, पाँच समिति तो सामयिक पौषध आदि मे श्रावक धारण करता ही है । यदि धारण नही करता, तो श्रावक योग्य 'इच्छामि ठाएमि' मे 'तिन्ह गुत्तीण' पाठ नही रहता । ग्रत उनका प्रतिक्रमण तो स्पष्ट आवश्यक है ही ।
शेष महाव्रत, भिक्षु प्रतिमा आदि का उनकी श्रद्धा प्ररूपणा मे दोष लगे हो, उस दृष्टि से प्रतिक्रमण आवश्यक है | जैसे साधु, श्रावक प्रतिमा या कई साधु भिक्षु प्रतिमा धारण नही करते, वे भी उनकी श्रद्धा प्ररूपणा मे लगे दोषो के निवारणार्थ प्रतिक्रमण करते है ।
*
प्र० : 'नमो चउवीसाए' का पाठ किसलिए उपयोगी है ?
उ० . यह पाठ भी तैतीस बोल के समान सब के लिए उपयोगी है और विशेष उपयोगी है । क्योकि इसमे जैन धर्म के प्रवर्तक २४ तीर्थंकरो को नमस्कार, जैन धर्म के गुण, जैन धर्म के फल, जैन धर्म स्वीकृति आदि ऐसी बाते है, जो प्रत्येक जैन के लिए बहुत काम की वस्तु है । भगवती सूत्र के जमाली अधिकार से भी यह बात पुष्ट होती है कि इसकी उपयोगिता के कारण इस पाठ को बहुत से जैन श्रावक-श्राविकाएँ जानते थे । इसकी उपयोगिता इस बात से भी सिद्ध है - 'तस्स धम्मस्स' तस्स सव्वस्स' आदि पाठ, जो इसी 'नमो चउवीसाए' के कुछ भावो का वहन करते है, श्रमरणसूत्र की उपयोगिता न स्वीकारने वाले भी पढते हैं ।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५० ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
विपक्षकार - श्रावक, 'श्रावक' है, अतः उसे 'श्रावकसूत्र' पढना चाहिए, श्रमण सूत्र नही ।
पक्षकार - साधु प्रतिक्रमण के साथ श्रावक प्रतिक्रमरण की तुलना करके इस विषय को सोचा जाय, तो श्रमरणमूत्र से भिन्न श्रावक के लिए कोई 'श्रावक सूत्र' रहता नही है । साधु सतियाँ कायोत्सर्ग मे प्रतिचार ग्रालोचना करने के पश्चात् चौथे प्रावश्यक मे सीधे ही व्रत, समिति, गुप्ति और प्रतिचार सम्मिलित पढते है | वैसे ही यदि श्रावक भी ग्रतिचार कायोत्सर्ग के पश्चात् चौथे ग्रावश्यक मे सीधे ही श्रमणसूत्र पढने वाले श्रावको के समान व्रत प्रतिचार सम्मिलित पढ ले, तो उनके लिए भिन्न श्रावकमूत्र कहाँ रह जाता है ? इम प्रकार भिन्न श्रावकसूत्र का प्रभाव भी इस बात को सिद्ध करता है कि श्रावक को श्रमण सूत्र पढना चाहिए । यहाँ यह बात भी ध्यान मे लेना योग्य है कि - प्रतिचारो का तीन बार पाठ करना उपयोगी भी नही है ।
पाठ २६ छब्बीसवां
विधि : वदना करके 'श्रावक सूत्र' या 'श्रमण सूत्र' पढने की प्राज्ञा है ।' कहकर श्रावक सूत्र या श्रमण सूत्र पढने काज्ञा ले | फिर जैसे काँटा निकलवाने वाला अपने पैर को वीरतापूर्वक दूसरे के सामने कर देता है या शल्य क्रिया
यह पक्ष-विपक्ष हमारी जानकारी के अनुसार है। विशेष पक्ष-विपक्ष उन न पक्ष-विपक्षकारों के जानकारों से जान लेना चाहिए ।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग--२६. 'चत्तारि मगल' मागलिक का पाठ [ १५१ कराने वाला वीरतापूर्वक अपने देह को शल्यकर्ता के सामने प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार अपने अतिचारो की आलोचना के लिए वीरतासूचक दाहिने घुटने को मोडकर खडा रक्खे और बाये घुटने को मोडकर भूमि पर लगा दे। फिर 'इच्छामि भंते ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समारणे देवसिय रणारण देंसरण चरित्ता-चरित्त तव अइयार पालोएमि' (आलोचना करता हूँ) यह पाठ पढे। फिर नमस्कार मत्र और करेमि भते पढे। फिर निम्न मांगलिक का पाठ पढे। फिर 'इच्छामि पटिक्कमिउ' जो मे देवसिनो' इत्यादि 'इच्छामि ठामि' का पूरा पाठ कहे। फिर 'इच्छामि पडिक्कमिउ इरियावहियाए विराहणाए इत्यादि इच्छाकारेणं का पूरा पाठ कहे।
फिर श्रावक सूत्र पढने वाले प्रागमे तिदिहे, अरिहन्तो महदेवो व बारह व्रत कहे। फिर बैठकर (बडी सलेखना, रगुच्चय का पाठ, प्रद्वारह पार व (इच्छामि ठामि) कहे। फिर तस्स धम्मरस केवलि पण्यत्तस्स बोलकर अगला पाठ खडे होकर कहे।
तथा श्रमण सूत्र पढने वाले 'पगाममिज्जाए' आदि चार पाठ पढे और वे भी नमो चउवीयाए के तस्स धम्मस्स केवलि पण्णत्तस्स तक का पाठ बोलकर अगला पाठ खडे होकर कहे। फिर दोनो हा पूर्ववत् दो वार इच्छा म खमासमरणो दे।
२२. 'चजारी मंगलं' मांगलिक का पाठ
चत्तारि मगल १. अरिहता मंगल
.: चार मगल (विघ्नविनाशक) है। : सभी अरिहन्त मगल हैं।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग- २० पगामसिज्जाए' का पाठ १५३ : मैं सभी सिद्धो की शरण ग्रहण
करता
1
• मैं सभी (प्राचार्य उपाध्याय) साघु की शरण ग्रहण करता है।
४ केवलि - पात्तं धम्मं : मैं केवली प्ररूपित (जैन) धर्म की सरर पवज्जामि शरण ग्रहण करता हूँ ।
२. सिद्धे सरपं पवज्जामि
३. साहू सरणं 'पवज्जामि
अरिहन्तों की शरण - सिद्धों को शरण, साधुत्रों की शरण, केवली प्ररूपित दया धर्म की शरण । चार शरण, दुख हररण, श्रौर शरण न कोय | जो भव्य प्राणी प्रादरे, अक्षय - असुर पद होय ॥१५
.
पाठ २७ सत्ताईसवाँ
२३. 'पगाम सिज्जाए' शय्या के अतिचारों का प्रतिक्रमण पाठो
इच्छामि पडिकर्मि
: चाहता है, प्रतिक्रमण करना,
ताधारी श्रावक तथा पौषध, संवर या दया करने वाले श्रावकों को रात्रि मे सोकर उठने के पश्चात् शय्या के प्रतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिए 'इच्छाकारेरा' 'तस्स उत्तरी' पढ़कर, १ या ४ 'लोगस्स' का तथा इस 'पमामसिज्जाए' के पाठ का कायोत्सर्ग ध्वश्म करना चाहिए
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ ।
सुवोध जैन पाठमाला भाग २
निद्रावस्था के अत्तिचार पगाम-सिज्जाए : मर्यादा (१ से २ प्रहर) उपरति
निद्रा ली हो या गाढी निद्रा ली हो, निगाम-सिज्जाए, : वार-बार मर्यादा उपरात निद्रा ली
हो या लम्बी-चौडी-मोटी मृदु शय्या
की हो,
जागृतावस्था के अतिचार संथारा-उवदृरणाए : शय्या में विना पूजे अयतना से एका
वार या एक पसवाडा उलटा हो,. परियट्टरवाए : वार-वार या दोनो पसवाडे पलटे हों, पाउंटरगाए
: बिना पूजे अयतना से हाथ-पैर आदि पसारणाए
सिकोडे हो या फैलाये हो, छप्पझ्य-संघट्टराए : जू (खटमल, मच्छर अादि) की
विराधना की हो, कुइए
: काया या वाणी से भण्ड कुचेष्टा की
हो, या अयत्ना से खाँसा हो, कवकराइए.
: शय्या सथारे की निन्दा की हो या
अयत्ना से बोला हो, छीए, जंभाइए, : खुले मुह छीक या जभाई ली हो, श्रामोसे
: बिना पूजे खुजाला हो, (सचित्त) ससरक्खामोसे, : रजवाले शय्यादि का स्पर्श किया हो,
अर्धनिद्रावस्था के अतिचार पाउलमाउलाए : परिचारणादि व्याकुलता के . सुवरण-वत्तियाए : दुस्वप्न देखे हो, जैसे
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२४ 'गामसिज्जाएं प्रश्नोत्तरी १५५ इत्थी पुरिस) : स्वप्न मे स्त्री (पुरुष) के साथ काय विपरियासियाए (या स्पर्श) परिचारपा (काम भोग)
__की हो. दिदि-विपरियासियाए . दृष्टि (या शब्द) परिचारणा की हो, मरण-विप्परियासियाए : मन परिवारणा की हो, पारण-भोयरण-दिप्परि० : स्वप्न मे रात्रि भोजन किया हो, जो मे देवसिप्रो : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई दिन अइयारो को सबधी अतिचार लगा हो तो,
तस्स मिच्छामि दुवकडं ।
'धगाससिज्जाए प्रश्नोत्तरी
प्र. • निद्रावस्था जब कि आत्मा स्ववश नही रहती, तब अधिक निद्रा पा जाय या गाढ़ निद्रा आ जाय, तो उसमे आत्मा का दोष क्या? और उसका प्रतिक्रमरण अावश्यक क्यो ?
उ० · जिन आत्माओ में शीघ्र जगने की भावना, शीघ्र जगने का सकल्प और प्रमाद की कमी होती है, उन्हे अधिक निद्रा या जगाने पर भी न जागे, ऐसी गाढ़ निद्रा नहीं आती। जिन आत्मवप्रो मे शीघ्र जगने की भावना की मन्दता, सकल्प को मन्दता तथा प्रमाद की अधिकता होती है, जो अति आहार करते है, मृदु मोटो शय्या पर सोते हैं, प्राय उन्हे ही अधिक निद्रा तथा गाढ निद्रा आती है। अतः, 'अधिक निद्रा आना व गाढ़ निद्रर अाना' आत्मा का ही दोष है और इसलिए उन दोषों को मिटाने के लिए अधिक निद्रा और गाढ़ निद्रा का प्रतिक्रमण भी आवश्यक है।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६ ] सुवोध जन पाठमाला-भाग २
प्र० : रात्रि मे जब कि, नीद गाढी आ रही हो, तव पसवाडा (करवट) बदलने आदि के समय यस्ता के लिए पूंजने आदि की क्रिया करना सरल कैसे हो?
___उ० मुख्य बात यह है कि, निद्रा को मर्यादित और अल्प कर देने पर पसवाडे को वदलने आदि के प्रसग ही कम हो जाते हैं। उसके पश्चात् 'जू. खटमल, मच्छर, सचित्त रज, सचित वायू प्रादि को भी मेरे ही समान जीवन प्रिय है।' जव निद्रा मे थोडी बाधा भी मुझे अप्रिय लगती है, तो उन्हे मरण कितना अप्रिय होगा? 'इन विचारो को निरन्तर भावना से बल देने पर, निद्रा मे भी सावधानी और यतना का विवेक सरल हो जाता है।
प्र० : अर्द्ध निद्रावस्था में जब कि, आत्मा स्ववश नहीं रहती, तब भोगादि अाकुलता-व्याकुलता के दुःस्वप्न पा जाये, तो उसमें प्रात्मा का दोष क्या? और उसका प्रतिक्रमण आवश्यक क्यो ?
उ० : जो जागृत अवस्था मे मन को, इन्द्रियों को तथा देह को वश मे रखते हैं, ज्ञान ध्यान में मन-वचन-काया के योगो को लगाते हैं, उत्तम साधु-श्रावकों की पर्युपासना करते हैं, शुभ योग प्रवृत्ति वालो का अनुमोदन करते हैं तथा आहार व निद्रा मर्यादित रखते हैं, उन्हे भोगादि आकुलता-व्याकुलता के स्वप्न नहीं आते। जिनमे उपर्युक्त बाते नही होती, उन्हे ही प्रायः दुःस्वप्न आते हैं। अतः दु स्वप्न आना आत्मा का ही दोष है, और इसलिए उन दोषो को मिटाने के लिए दु.स्वप्न प्रतिक्रमण भी आवश्यक है।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२७ 'पगामसिज्जाए' प्रश्नोत्तरी । १५७
प्र० व्रतधारी या प्रतिमाधारी श्रावक को दिन मे सोना नही चाहिए, अतः उन्हे देवसिक प्रतिक्रमरण मे इस पाठ को बोलने की क्या आवश्यकता है?
उ० • १. 'अर्द्ध निद्रित, पूर्ण निद्रित आदि अवस्थाओ के अतिचार भी प्रात्मा के दोषो से ही लगते हैं।' आदि सिद्धान्तो की श्रद्धा प्ररूपणा मे अन्तर पाया हो, तो उसके प्रतिक्रमण के लिए। जैसे कि-जिस दिन पौषध न किया हो, उस दिन भी ग्यारहवे पौषध व्रत का पाठ, ग्यारहवे पौषध व्रत की श्रद्धा प्ररूपणा मे अन्तर पाया हो, तो उसके प्रतिक्रमण के लिए बोला जाता है। २. दिन मे बैठे-बैठे भो कभी नीद आ सकती है, ऐसे समय मे लगे अतिचारो के प्रतिक्रमण के लिए। ३. उपसर्ग से रात्रि को नीद न आई हो, या दूसरो की रात्रि मे अधिक सेवा करनी पडी हो, उससे नीद म आई हो, विहार अति उग्र हुआ हो, आदि कारणो मे दिन में भी किसी को सोना पड जाता है। ऐसे समय मे लगे अतिचारो के प्रतिक्रमण के लिए भी यह पाठ देवसिक प्रतिक्रमण मे बोलना आवश्यक है।. ४. 'दिन मे अकारण नही सोना' इस मर्यादा का उल्लघन करके दिन मे सो जाने पर तो यह पाठ दैवसिक प्रतिक्रमण मे बोलना आवश्यक है ही।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८ ]
सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ पाठ २८ अट्ठाईसवाँ
२४. 'गोधरम्गचरियार' गौचरी के अतिचारों का प्रतिक्रमण पाठ
पडिक्कमामि गोयरग्ग-चरियाए भिक्खायरियाए
: प्रतिक्रमण करता हूँ : गोचरी (गाय चरने) के समान : भिक्षाचरी मे अतिचार लगाये हो,
प्रविधि प्रवेश के अतिचार
उग्घाड-कवाड- : आवे खुले हुए या अर्गला-शृखला उग्घाटरगाए
आदि रहित कपाट उघाडे हो, सारणा-वच्छा-दारा- : श्वान-बछडे-बच्चे को ठोकर दी हो संघट्टरगाए
या उनका स्पर्श-उल्लघन किया हो,
अप्रामुक-अनेपणीय ग्रहण के अतिचार मडि-पाहुडियाए . दूसरे को दिया जाने वाला अग्रपिड,
या उसे हटवा कर शेप पिंड लिया हो, बलि-पाहुडियाए बलि के लिए बना हुया नेवेद्य या
नैवेद्य लगने से पहले पिण्ड लिया हो,
-
प्रतिमावारी श्रावय तया गौचरी की दया करने वाले श्रावफों को गौचरी लाने के पश्चात ईयापथिक तथा गोचरी के अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिए 'इच्छाफारेणं' 'तस्स उत्तरी' पढ़कर 'इच्छाकारेण' तया इस 'गोयरगचरियाएं' के पाठ का कायोत्सर्ग अवश्य करना चाहिए।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
सूत्र - विभाग -- २८. 'गोयरग्गचरियाए' का पाठ [ १५६
: भिखारी या साधु के लिए स्थापित भिक्षा ली हो,
ठवरणा- पाहुडियाए
सकिए सहसागारे
श्रसरणाए पारण- भोयरणाए
बीय-भोयगाए
हरिय- भोयरणाए पच्छा-कम्मियाए
पुरे - कम्मियाए
श्रदिट्ठ- हडाए
दग-संसट्ट-हडाए
रय-ससट्ट - हडाए
परिसारियाए
परिद्वावरियाए
प्रोसाहरण भिक्खाए
: निर्दोषता मे शकावाली भिक्षा ली हो, • सहसा अनेषरणीय भिक्षा ली हो,
: कल्प्य - प्रकल्प्य की गवेषरणा न की हो, : प्रारण ( स ) युक्त रसचलित भिक्षा लो हो,
: बीजयुक्त या : हरीयुक्त या
बीजमय भिक्षा ली हो, हरीमय भिक्षा ली हो,
: दाता पीछे नया आरम्भ (भोजन) करे, हाथ-पाँव धोवे, ऐसी भिक्षा ली हो,
}
: पहले हाथ पात्र धोवे, ऐसी भिक्षा ली हो,
: दृष्टि न पहुँचे वहाँ से, अधेरे मे से या दूर से लाई हुई भिक्षा ली हो,
: सचित्त पानी सहित, भिक्षा ली हो या ऐसे हाथ पात्र से भिक्षा ली हो, : सचित्त रज सहित भिक्षा ली हो या ऐसे हाथ पात्र से भिक्षा ली हो,
: गिराते हुए लाई गई या दी जाती हुई भिक्षा ली हो,
: परठने योग्य, भिक्षा ली हो या, दाता शेप द्रव्य फेक दे, ऐसी भिक्षा ली हो, : वार-वार या दीनतापूर्वक भिक्षा माँगी हो, या उत्तम पदार्थ माँगे हो,
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६० ] ज उग्गमेणं उप्पायरणेसरगाए
सुबोध जैन पाठमाला~-भाग २
: यो जो उद्गम के आधाकर्मादि १६ : उत्पाद के धात्री आदि १६ दोप तथा एपणा के नकितादि १० दोष लगाये
हो, : लगाकर अप्रति शुद्ध (अकल्पनीय) : पाहार ग्रहण किया हो,
अपडिसुद्ध पडिगहियं
परिभौगैपणा का अतिचार परिभुत्त वा
: करके भोग भी लिया हो, जन परिविय : किन्तु परिस्थापनीय न परठा हो, तो
तस्स मिच्छा मि दुक्कड।
'गोयरग्ग-चरियाए' प्रश्नोत्तरी
प्र० : अनेपरणीय भिक्षा या जाने के पश्चात् उसे परठना (त्यागना) आवश्यक क्यो? इससे भिक्षा का अपव्यय नहीं होता?
उ० : जो अनेपणीय जीवसहित हो और जिसमे से जीवों का निकालना अशक्य हो, तो उसे जीव रक्षा के लिए परठना श्रावश्यक है। जीव रक्षा के लिए देहत्याग भी अपव्यय नहीं है, तो भिक्षा त्याग अपव्यय केसे हो सकता है ?
२. व्रती के लिए गृहस्थ ने भिक्षा बनाई हो और प्रती उले ग्रहण कर भोग ले, तो इससे गृहस्थ के दोप का व्रती द्वारा अनुमोदन होता है, उस अनुमोदन के निवारण के लिए भी उसे परठना प्रावश्यक है।
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२८. गोयरग्ग-चरियाए प्रश्नोत्तरी [ १६१
३. अनेषणीय आहार लेकर भोग लेने पर गृहस्थ को यह विचार होता है कि 'मुझे थोड़ा दोष अवश्य लगा, पर मेरी भिक्षा व्रती ने भोगी, इससे मुझे बहुत धर्म हुआ' इन विचारो से उममे दोषो आहार बनाने की प्रवृत्ति चल पड़ती है और यदि व्रती उसे परठ देता है, तो गृहस्थ को यह भाव उत्पन्न होता है कि – 'यदि मैंने भिक्षा मे दोष लगाकर किसी प्रकार उन्हे दे भी दिया, तो वे उसे भोगते तो हैं नही, परठ देते है, तो मुझे व्यर्थ दोष क्यो लगाना?' इस प्रकार उसमें भविष्य मे दोषी भिक्षा बनरने की प्रवृत्ति नहीं चल पाती। भविष्य में उसकी दोषी प्रवृत्ति न चले। इसलिए भी अनेषरणीय भिक्षा पर० देना
आवश्यक है। इन आवश्यकताअो को देखते हुए भिक्षा परउना अपव्यय नही माना जा सकता।
प्र० प्राधाकर्म आदि ४२ दोष बताइए। उ०, इसके लिए समिति गुम्सि सार्थ देखिये।
प्र० ब्रतधारी तथा प्रतिमाघारी श्रावक को रात्रि को गौचरी लाना नही चाहिए। अतः इस पाठ को रात्रि प्रातक्रनरप में पढ़ने की क्या मावश्यकता है?
उ० २. श्रद्धाप्ररूपणा की शुद्धि के लिए २. अब तक सूर्य उदय नही हया, या अब सूर्य अस्त हो चुका है', अतिप्रकाश, बादल आदि के कारण इसका ध्यान न रहे और गौचरी हो जाय, तो उसकी शुद्धि के लिए ३. मर्यादा उल्लघन हो जाय, तो उसकी शुद्धि के लिए तथा ४. रात्रि को स्वप्न में गौचरी की हो और उसमे अतिचार लगे हो, तो उसकी शुद्धि मादि के लिए।
की वयर
की शुद्धि हो चुका है। गौचरी
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ ॥
सुवाष जैन पाठमाला--भाग २
पाठ २९ उन्तीसवाँ
२५. 'चाउक्कालं सज्झायस्स' स्वाध्याय और प्रतिलेखना के अतिचारों का
प्रतिक्रमण पाठ
पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायस्स प्रकरणयाए
उभयो कालं . भण्डोवगररणस्स.
: प्रतिक्रमण करता हूँ : चारो काल (चारो प्रहर, प्रतिलेखन काल, स्वाध्याय काल, भिक्षा काल, अकाल आदि को छोड कर) स्वाध्याय न की हो, : (प्रातः और सध्या) दोनों काल : भण्डोपकरण, (रजोहरण वस्त्र, पात्र, शय्या-सथारा उच्चार-प्रश्रवण
भूमिका आदि का : प्रतिलेखन न किया हो, : या विधि से प्रमार्जन न किया हो, प्रमार्जन न किया हो,
या विधि से प्रतिलेखन न किया हो, ' उससे जो अतिक्रम, व्यतिक्रम, : अतिचार, अनाचार लगा हो, यो
अप्पडिलेहरणाए दुप्पडिलेहणाए अप्पमज्जरणाए दुप्पमज्जरणाए अइक्कमे, वइक्कमे, अइयारे, अरगायारें
प्रितिमाघारी श्रावक तथा पोषध, संवर या क्या करने वाले भावकों
को चारों काल स्वाध्याय करने के पश्चात् 'चाउषकाल' (या 'प्रागम तिविहे) का पाठ अवश्य पढना चाहिए तथा उमयकाल प्रतिलेखना करने के पश्चात् भी 'चाउकाल' का पाठ अवश्य पढ़ना चाहिए।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-२६. 'चाउक्कलि' प्रश्नोत्तरी I १६३ जो मे देवसियो मुझे जो कोई दिन संबधी अतिचार अइयारो कमरे लगा हो,
तस्स मिच्छामि दुधकडं ३
'चाउक्कालं' प्रश्नोत्तरी । प्र०: दोनों काल प्रतिलेखन क्यो आवश्यक है ?
उ०: जैसे दिन भर मे और रात भर मे आत्मा में कोई न कोई दोष लग जाने की सभावना रहती है, और आत्मर मे लगे उन दोषो को दूर करने के लिए दो बार प्रतिक्रमण आवश्यक है, वैसे ही दिन भर मे और रात भर मे वस्त्र, पात्र, रजोहररणादि मे जीचो के प्रवेश हो जाने की सभावना रहती है, अत. उन प्रविष्ट जीवो की रक्षा के लिए उभयकाल प्रतिलेखन आवश्यक है। - म०: अनाचार से तो व्रत भग हो जाता है। क्या व्रत भग का पाप 'मिच्छा मि दुक्कड' से दूर हो जाता है ?
उ० अनजान आदि से जो स्वाध्याय-प्रतिलेखन आदि उत्तरगुरण सबधी (छोटे) नियमो का भंग होता है, वह 'मिच्छा मि दुक्कड' इस हार्दिक प्रतिक्रमण से दूर हो जाता है।
और जो जानते हुए नियमो का भग होता है, वह नवकारसी (नमस्कार सहित) तप आदि करने से दूर होता है।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुर्वोच जैन पाठमाला-भाग २
पाठ ३० तीसवाँ २६. 'तँतीस बोल' 'विस्तृत प्रतिक्रमण'
पडिक्कमामि एगविहे असंज पडिक्कमामि दोहि बंधणेहि राग-बंधोरणं दोस-बंधोरणं
: प्रतिक्रमण करता हूँ, (समुच्चय) : एक प्रकार का असयम किया हो : प्रतिक्रमण करता हूँ : कर्म बाधने वाले दो बन्धन : राग बन्धन : द्वेष बन्धन किये हों
पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ तिहिं दंडेहि
: दण्डित करने वाले तीन दण्ड मण-दंडेणं वय-दंडेणं : मनदण्ड वचनदण्ड काय-दडेय
: कायदण्ड किये हो पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ तिहिं गुत्तीहिं
: रक्षा करने वाली तीन गुप्ति मरण-गुत्तीए वय-गुतीए : मनगुप्ति वचनगुप्ति काय-गुत्तीए
: कायगुप्ति न की हों पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ तिहि सल्लेहि
: मोक्ष रोकने वाले तीन शल्य माया-सल्लेरण नियारसल्लेरणः माया शल्य, निदान शल्य मिच्छा दंसरण सल्लेएं : मिथ्या दर्शन शल्य लगाये हों पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ तिहि गारवेहि : भारी बनाने वाले तीन गर्व बढी गारवेणं रस गारबेणं : १. ऋद्धि गर्व २ रसगवं
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग - ३० 'तैंतीस बोल' 'विस्तृत प्रतिक्रमण' [ १६५
:
साता गर्व किये हो : प्रतिक्रमण करता हूँ तीन विराधनाएँ
:
:
ज्ञान विराधना
: दर्शन विराधना
: चारित्र विराधना की हो
साया गारवेणं
पडिक्क मामि
तिहि विराहरणाहि रसारण- विराहरणाए
दंसरण - विराहरणाए
चरित - विराहणाए
पडिक्कमामि चहि कसाएहिं कोह कसाएरणं मारग कसाएगंः क्रोध कषाय मान कषाय
ससार वर्धक चार कषाये
माया कसाएरणं
:
माया कषाय
: लोभ कषाय की हो
: प्रतिक्रमरण करता हूँ
:
लोह-कसाएग पडिक्कमामि
उहि साहि
: प्रतिक्रमण करता है
:
:
प्राहार-सण्णाए भय-सखाए : मेहरण-सगाए . परिग्गह सण्णाए पडिक्कमामि चह विकाहि
इत्थी कहाए भत्त कहाए
राय कहाए देस कहाए पक्कि मामि
चहि भारणेणं
श्रदृगं झारखं
रुहेणं भारणं
धम्मेरगं भारणेणं सुक्केरणं भारणेणं
अभिलाषा रूप चार संज्ञाएँ
आहार सज्ञा, भय सज्ञा
मैथुन सज्ञा
: परिग्रह सज्ञा की हो
: प्रतिक्रमण करता हूँ
धर्म विरोधी चार विकथाएँ
:
: स्त्री-कथा, भक्त-कथा
राज-कथा, देश-कथा की हो
प्रतिक्रमण करता हूँ
:
: योग एकाग्रता रूप चार ध्यान
: आर्त-ध्यान
:
:
: शुक्ल-ध्यान न ध्याया हो
रौद्र-ध्यान ध्याया हो
धर्म- ध्यान
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६ ] सुवोध जैन पाठमाला--भाग २ पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ पंचहि किरियाहिं : कर्म वाँधने वाली पाँच क्रियाएँ काइयाए अहिगररिगयाए : कायिकी, अधिकरगिकी पाउसियाए
: प्राद्वेषिकी पारितावरिणयाए । : पारितापनिकी पारगाइवाइयाए
: प्रारणातिपातिकी क्रिया की हो पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ पहि कामगुरणेहि : इन्द्रियो के पाँच काम गुण सद्देरणं रूवेरणं, गंधेरणं : शब्द, रूप, गंध रसेग फासेरणं
: रस, स्पर्ण भोगे हो पडिक्कमामि
: प्रतिक्रमण करता हूँ पंचहि महन्वएहि : पाँच महाव्रत सव्वाश्रो पारणाइधायानो : सर्व प्राणातिपात से विरमरण वेरमरणं सवायो मुसावायायो : सर्व मृषावाद से विरमरण वेरमरणं सवाप्रो अदिण्णादारणामो : सर्व अदत्तादान से विरमण वेरमरणं सव्वाप्रो मेहुरगायो वेरमरणं : सर्व मैथुन से विरमण सव्वाअो परिग्गहाम्रो वेरमणं : सर्व परिग्रह से विरमण सम्यक्
न श्रद्धा हो
पडिक्कमामि पंचहि समिएहि इरिया-समिए भासा-
: प्रतिक्रमण करता हूँ : यत्ना प्रवृत्ति रूप पाँच समितियाँ
ईर्या समिति, भाषा
कोई 'अणुस्वएहि भूलामो' बोलते हैं।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग---'संतीस बोल' 'विस्तृत प्रतिक्रमण' [ १६७ समिए एसरणा-समिए समिति, एषणा समिति प्रायाग-भेड-मत्त- : प्रादान भाण्ड मात्र निक्खेवरणा-समिए
निक्षेपणा समिति उच्चार-पासवरण-खेल- : उच्चार प्रश्रवण खेल जल्ल-सिंघारण-परिहा वरिणया जलसिंघाण परिस्था पनिका
समिति न की हो
समिए ।
पडियकमामि,
: प्रतिक्रमण करता हूँ, छहिं जीव-निकाएहि
छह जीवकाय पुढवि-काएरणं प्राउ-काएणं : पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउ-काएक वाउकाएरण : तेजस्काय, वायुकाय, वरणस्सइ-काएणं तस-काएरणं वनस् तिकाय, त्रस काय सम्यक
न श्रद्धे हो पडिक्कमामि छह लेसाहिं : प्रतिक्रमण करता हूँ, कर्म
: चिपकाने वाली यह लेश्याएँ १. किण्ह-लेसाए २. नील- : १ कृष्णलेण्या, २ नील लेश्या लेसाए ३ काउ-लेसाए ३ कापोत लेश्या को हो ४. तेउ-लेसाए ४. पउम- : ४ तेजोलेश्या, ५ पद्मलेश्या, लेसाए ६ सुक्क लेसाए ६. शुक्ल-लेश्या न की हो सहि भय-ट्ठारणेहि : सात भय-स्थान । १. जातिमद, २ कुलमद, ३ बलमद, ४. रूपमद, ५. तपमद, ६ श्रुतमद, ७ लाभमद, ८ ऐश्वर्यमद किया हो, नहिं बं चेर-गुत्तीहि : नव ब्रह्मचर्य गुप्ति (बाड) पहली वाड मे ब्रह्मचारो पुरुष, स्त्री (रिणी स्त्रो, पुरुष) पशु नपुसक रहित स्थान मे रहे, सहित स्थान मे नही रहे। यदि रहे, तो चूहे को बिल्ली का दृष्टान्त। दूसरी वाड मे ब्रह्मचारी
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
पुरुष स्त्री की कथा करे नही, करे, तो जीभ को नीबू और इमली का दृष्टान्त | तीसरी वाड मे ब्रह्मचारी पुरुष स्त्री के साथ एक आसन पर बैठे नही, बैठे, तो आटे को कोले का दृष्टान्त तथा घी के घड़े को अग्नि का दृष्टान्त । चौथो वाड से ब्रह्मचारी स्त्री के गोपाग का निरीक्षण करे नही, करे, तो कच्ची ग्राँख को सूर्य का दृष्टान्त । पाँचवीं वाड में ब्रह्मचारी टाटी भीत आदि स्त्री
अन्तर मे खो पुरुष के विषयकारी शब्द सुने नही, सुने, तो मयूर को मेघध्वनि का दृष्टान्त । छठी वाड में ब्रह्मचारी पहले के काम भोगो का चिन्तन करे नही, करे, तो जिनरीक्षित को रत्नादेवी का दृष्टान्त तथा परदेशी को छाछ का दृष्टान्त । सातवीं वाड में ब्रह्मचारी पुरुष प्रतिदिन सरस आहार करे नही, करे, तो सन्निपात के रोगी को दूध और मिश्री का तथा राजा को ग्राम का दृष्टान्त । प्राठवीं वाड मे ब्रह्मचारी पुरुष सरस - नीरस आहार मर्यादा उपरात करे नही, करे, तो सेर की हाडी मे सचासेर का दृष्टान्त | नववीं वाड में ब्रह्मचारी पुरुष शरीर आदि की सुश्रूषा- विभूषा करे नही, करे, तो रेक के हाथ मे रत्न का दृष्टान्त । ये नववाड़ सम्यक् न श्रद्धी (पाली) हो
दस विहे समरण धम्मे
: दश श्रमण धर्म (यति धर्म )
एगारसहि उवासगपडिमा हि
+
१. खती (क्षमा) २. मुत्ती
(निर्लोभता ) ३. श्रज्जवे ( ऋजुता, सरलता ) ४. मध्ये (मृदुता, कोमलता ) ५. लाघवे । ( लघुता ) ६. सच्चे (सत्य) ७. सजमे ( सयम ) ८ तवे ( तप) ६ चियाए (त्याग) १० बभचेर वासे ( ब्रह्मचर्य वास ) ये दग श्रमण धर्म सम्यक् न श्रद्धे (पाले) हो ।
: ग्यारह उपासक (श्रावक ) प्रतिमाएँ सम्यक् न पाली हो,
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-५३०: तैतीस-चोल' विस्तृत प्रतिक्रमण' '[१६९ बारसहि- - = बारह भिक्षु (साधु)-प्रतिभाएँ सम्यक् भिक्खू-पडिमाहि. - न,श्रद्धी हो, तेरसहि ।, ... 11: तेरह (मे से बारह क्रियाएं छोडीन किरिया-ठाणेहि . . हो तथा तेरहवी) क्रिया सम्यकन
- - - - - श्रद्धी हो । ' चोहसहि .. : जीक के १४ भेद या- १४ गुणस्थान भूयग्गामहि । - - सम्यक् न श्रद्धे हो, ।। पररणरहि .. :: पन्द्रह परमाधर्मी बनने जैसे पाय परमाहम्मिहि । . .-, किये हों,
. सोलसहि. २ । 118 श्री सूत्रकृतांग सूत्र के १६ अध्ययम गाहा-सोलसरहिं सम्यक् न श्रद्धे हो ? - सित्तरसविहे . :- + सत्रह : प्रकार का असंयम किया असंजमे अट्ठारसविहे; - - F अद्वारह प्रकार का अब्रह्मचर्य सेवा प्रबंभे किया हो
- - - एगूरणवसाए. .. श्री.ज्ञाता सूत्र के १६ अध्ययन सम्यक गाय-भयहि . .. न श्रद्धे हो . . . वीसाए,... , . : बीस समाधि (उत्पन्न करने वाले) असमाहि-छारपेहि .. स्थान सेवन किये हों . एगवीसाए .
आए , .. इक्कीस सबल (बडे) दोष सेवन सबलेहि . किये हों बावीसाए परिसहेहि : धर्म दृढ़ता और निर्जरा के लिए
'वावीस परीषह न जीते हो । तेवीसाए " " 'श्री सूत्रकृतरंग'सूत्र के (१६+७) २३ सूयगडझयहि । अध्ययन सम्यक् न श्रद्धे हो ' _ " चरेवीसाए देवेहि : चौवीस तीर्थकर या २४ देव सम्धक
।। ।। नभद्धे हो
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७० 1
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
परवीसाए भावरणाहि : पाँच महाव्रत की पच्चीस भावनाएँ
सम्यक् न श्रद्धी हो
: दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प और व्यवहार के (१०+६+१०)
२६ अध्ययन सम्यक् न श्रद्धे हो : सत्तावीस अनगार (साधु) गुरण सम्यक् न श्रद्धे हो
: ग्राचा राग निशीथ के (२३+५) २८ अध्ययन सम्यक् न श्रद्धे हों
: उनतीस पापश्रुत का प्रयोग किया
छव्वीसाए दसा - कप्पववहाराण
उद्देसर काले ह सत्तावीसाए
श्ररणगार - गुरोह प्रट्ठावीसाए प्रायार-पक पहि एगूतीसाए पावसु-प्पसंगे हिं
तीसाए
हो,
: तीस महामोहनीय स्थानो का सेवन किया हो
: इकत्तीस सिद्ध के गुण सम्यक न श्रद्धे हों
1
बत्तीसाए जोग-सग हेहि : बत्तीस योग-संग्रह न किये हो तेत्तीसाए असायाहि : तैतीस आशातनाएँ की हो या निम्न श्ररिनाणं श्रासायलाए : अरिहन्तो की आागातना की हो सिद्धारण सायरखाए : सिद्धों को प्राशातना की हो आयरियाणासायरणाए : आचार्यों की श्राशातना की हो उपाध्याय की श्राशातना की हो
महा-मोहरणीय-द्वारह
एगतीसाए सिद्धाइ - गुणेहि
1
उवज्झायारण 17
साहूणं सायरणाए : साधुओ की आशातना की हो साहूणी सायरणाए : साध्वियो की आशातना की हो सावयारणं श्रासावरणाए : श्रावको की श्राशातना की हो सावियारण सायरणाए : श्राविकाओं की ग्रागातना की हो देवारणं असाय गाए : देवो की प्राशातना की हो
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग – ३० 'तैीस बोन' 'विस्तृत प्रतिक्रमण' [ १७१
देिवीरण आसायरणाए : देवियो की आशातना की हो इहलोगस्स सायरणाए : इस लोक की आशातना की हो परलोगरस सायपाए : परलोक की आशातना की हो : केवली प्ररूपित धर्म की प्राशातना की हो
केवलि पप्रपत्तस्स
धम्मस्स श्रासादखाए
सदेव मणुयासुरस्स लोगरस श्रसारणाए सव्व - पारण-सूय-जीव सत्त र प्रसारणाए
कालस्स श्रासायारणाए
-
: देव मनुष्य असुर सहित सारे लोक की शातना की हो ।
: सब प्रारण भूत जीव सत्त्वो की आगातना की हो
: काल की शातना की हो
सुयस्स श्रीसायरगाए
: श्रुत की आशातना की हो
सुयदेवस्स आसायलाए : श्रुतदेव ( तीर्थंकर या गणधर ) की श्राशातना की हो
: वाचनाचार्य ( शास्त्र पढाने वाले) की
1
प्राशातना की हो
वायरगारियre
श्रासावरणाए
ज वाइद्ध, वच्चामेलियं : यदि व्याविद्ध, व्यत्ययाम्रेडित होरगदखर, श्रच्चदखर : हीनाक्षर, प्रतिक्षर पयहोरा, विरायहीरण : पदहीन, विनयहीन जोग हीरण, घोसहीरग सुट्टु ? ( 5 ) दिगं दुट्ठ पडिच्छियं प्रकाले को सभाम्रो
: योगहोन या घोषहीन पढा हो : सुष्ठु ? (न) दिया हो
: दुष्टु लिया हो
अकाल मे स्वाध्याय की हो
काले न को सभाओ : काल मे स्वाध्याय न की हो
प्रसज्झाए सज्झाइय : अस्वाध्याय मे स्वाध्याय की हो सज्झाए न सज्झाइयं
स्वाध्याय मे स्वाध्याय- न की हो
•
1
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ - .::
इन- तैतीस 'बोल' मे जानने योग्य को नहीं जाने हों, छोडने योग्य को नही छोडे हो और आदरने योग्य को नहीं: आदरे हो - तथा जिन महापुरुषो ने जानने योग्य को जाने हो, . छोड़ने योग्य को छोडे हो और आदरने योग्य को आदरे हो. उनकी आशातना की हो तो, . . . ।। - T तस्स मिच्छामि देक्कडं। : r+, 'तैतीस बोल' प्रश्नोत्तरों ..
प्र०: यह पाठ किसलिए है ?
उ० : श्रद्धा प्ररूपणा.एव स्पर्शना मे आये हुए दोषो की निवृत्ति के लिए है,।। . . . . . .. .
प्र० : श्रद्धा का दोष किसे कहते हैं ? 17 उ० : 'असयम आदि जो त्यागे योग्य है, उन्हे त्यागने योग्य न समझना यो आदरने योग्य समझना तथा गुप्ति आदि जो आदरने योग्य हैं, उन्हे आदरने योग्य न समझना या त्यागने योग्य समझेनो, एवं छह कार्य की विराधना से हटने के लिए और उनकी रक्षा के लिए जो छहा काय आदि का ज्ञान आवश्यक है, उस ज्ञान को आवश्यक न समझना, श्रद्धा का दोष है। 15 FI
॥ . . ' ' प्र०: प्ररूपणा का दोष किसे कहते है ?
उ०: 'असंयम त्यागने योग्य नही. आदरने योग्य है' इत्यादि पूरूपणा करना, प्ररूपणा का दोष है ।
प्र स्पर्शनी को दोष किसे कहते हैं ?
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग,-२०. 'तैतीसम्बोल प्रश्नोत्तरी
[१७३।२
८९ उ०पाँच महाव्रत, ग्यारहा उपासक प्रतिमा आदि जिन्हे स्वीकार किया है, उसका सम्यवस्पर्श न करना, उसमे अतिचार : लगाना, स्पर्शना का दोष है। . . . . . . . . ।। 7 'प्र': क्या 'त्यागर्ने योग्य 'और प्रौदरने योग्य बोल, 'जानने योग्य' नही हैं ?
( उ० हैं। यदि, उन्हे पहले जाना नही. जायगा, तो उन्हें त्यागा या आदरां कैसे जायगा? ___Tir. . . . . c -
प्र० : यदि ऐसा है, तो कुछही बोलो को जानने योग्य र
शेष बोलो को त्यागने योग्य या आदरने योग्य क्यो कहाजाता ह. - "F.. .
- 3 । उ०, इसलिए कि १.कुछ बोलो मे - केवल जानने की ? मुख्यता है, क्योकि वे जानने के पश्चात् त्यागे या आदरे नही जाते।। शेष बोलो-मे-जानते की मुख्यता नही-है, पर जानकर या तो त्यागने की मुख्यता है या आदरने की मुख्यता है।
प्र०: इन तैतीस बोलो मे जानने योग्य बोल कितने हैं ?'' 1 उ०: १. छह जीव निकाय २. उदह जीव के भेद या गुणस्थान ३ "पन्द्रह परमाधमिक ४. सूत्रकृताग के सोलह अध्ययन ५! ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन ६. बावीस परीषह ७ सूत्रकृतीग' के तेवीस अध्ययनचौवीस'देव : दशा कल्प व्यवहार के २६ अध्ययन और १०. आचाराग, निशीथ के अदावोस अध्ययन ।
ये दस बोल जानने योग्य हैं। 74 PERFI - ! न !
-
5RF प्र०: इन तैतीस बोलो मे त्यागने योग्य बोल कितने है ?.?
उ० • १ एक असयम २ दो वध ३. तीन दण्ड ४ तीन शल्य ५. तीन गर्व तीन विराना.चार कषाय . चार
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४ ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ सज्ञा ६ चार विकथा १०. पाँच कामगुण ११ सात भय १२. पाठ मद १३ सत्रह असयम १४. अट्ठारह अब्रह्म १५. वीस असमाधि १६ इक्कीस शवल दोष १.. उनतीस पापश्रुत १८. तीस महामोहनीय और १९. तैतीस पाशातना-ये उन्नीस वोल त्यागने योग्य है
प्र० : इन तैतीस वोलो मे प्रादरने योग्य बोल कितने हैं ?
उ० : १. तीन गुप्ति २ पाँच (अणुव्रत) महाव्रत ३. पाँच समिति ४. नव ब्रह्मचर्य गुप्ति ५. दश यति धर्म ६. ग्यारह उपासक प्रतिमा ७. वारह भिक्षु प्रतिमा ८ पच्चीस भावना है सत्तावीस अनगार गुण १०. इकत्तीस सिद्धादि गुण और ११ बत्तीस योग सग्रह-ये ११ ग्यारह बोल आदरणीय है।
प्र. : इन तैतीस वोलो मे, जिनमे कुछ त्यागने योग्य और कुछ आदरने योग्य, यो दोनो प्रकार के बोल हो, ऐसे मित्र बोल कितने है ?
उ० : १ चार ध्यान २ छह लेश्या और ३. तेरह क्रिया स्थान, ये तीन वोल मिश्र है। क्योकि चार ध्यान मे १. अात, २. रौद्र, ये दो ध्यान त्यागने योग्य और १. धर्म २ शुक्ल, ये दो ध्यान पादरने योग्य हैं। लेश्या मे १ कृष्ण २ नील, ३ कापोत, ये तीन लेश्याएँ छोडने योग्य और १. पीत २. पन ३ शुक्ल,ये तीन लेश्याएं आदरने योग्य हैं तथा तेरह क्रियायो मे पहली अर्थदण्ड
आदि १२ क्रियाएँ त्यागने योग्य और शेष तेरहवी इपिथिक क्रिया प्रादरने योग्य है।
प्र० : सब बोलो का योग कितना हुआ?
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३१ 'नमोचउवीसाए' निर्ग्रन्थ प्रवचन' का पाठ [ १७५
उ० · दश ब ल जानने योग्य, उन्नीस बोल त्यागने योग्य, ग्यारह बोल आदरने योग्य और तीन बोल मिश्र, सब बोल (१०+१+११+३=४३) त्रयालीस हुए।
प्र० तैतीस बोल, त्रयालीस बोल कैसे हुए ?
उ० · तीन के बोल, चार अधिक तथा चार और पॉच के बोल, तीन-तीन अधिक, यो सब (४+३+३)=१० बोल अधिक होने से।
प्र० · आशातना किसे कहते है ?
उ० : १ गुण होते हुए भी गुण-रहित बताना, २. दोष न होते हुए भी दोष-सहित बताना, ३. न्यून, अधिक या विपरीत प्ररूपणा करना, ४. अविनय अपकीति करना, १५ विरुद्ध कार्य करना, ६. अशाता देना आदि।
पाठ ३१ इकतीसवाँ
२७. 'नमोचावीसाय' 'निग्रन्थ प्रवचन' का पाठ
जैन धर्म के २४ चौबीस प्रवर्तकों को नमस्कार
गमो चउवीसाए तित्थयराण उसभाइ-महावीर पज्जवसापा
: नमस्कार हो (इस अवसर्पिणी काल के) चौबीस तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक को। (क्योकिजिनका)
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
y.२७६]- - - सुवोध जैन पीठमीला भाग २ ..... " जैन धर्म के १४ गुण' इणमेव निग्गय . . : यही निर्ग्रन्थ (तीर्थंकरों का) पावयरणं : प्रवचन (जैनधर्म) १ सच्चं . .: सत्य (हितकर व यथार्थ) है २. अणुत्तरं : अनुत्तर (सबसे बढकर) है .३. केवलियं . . . .: केवल (अद्वितीय-वेजोड) है। - ४. पडिपुष्टणं : प्रतिपूर्ण (सर्वगुणयुक्त) है। ५ नेयाउय
: न्याय (स्याद्वाद सिद्धात) सहित है ६ संसुद्ध ' : संशुद्ध (शत प्रतिशत शुद्ध)"है T७ सल्लगत्तरणं - तीनो शल्यो को काटने वाला है । FE: सिद्धिम' . : : सिद्धिमार्ग (सिद्धिदाता) है । । TE. मुत्तिमग्ग .. मुक्तिमार्ग (८ कर्म खपाने वाला) है १० निज्जारगमग : निर्यागमार्ग (मोक्ष पहुँचाने वाला) है ११ निवारणमग्गं : निर्वाण मार्ग (सच्ची शाति देने
वाला) है १२. अवितह .: अवितथ (कभी झूठा न होने वाला
__ ' ' या एक समान रहने वाला) है। १३. मविसंधि : अविसधि . (महाविदेह.. क्षेत्र की
__- - अपेक्षा संदैव अमर) है । १४. सव्व दुक्ख : सभी दुखो का (सदा के लिए पूर्ण) प्पहीण मग्गं - - नाश करने वाला है । : . 7 + .. .. जैन धर्म के ५ पाँच फल. , . : .
इत्थं ठिया जीवा , : इसमे स्थित (इस जैन धर्म की श्रद्धा # . . . . प्ररूपणा स्पर्शना करने वाले जीव १. सिझति ): सिद्ध (कृतकृत्य-सफल). बनते हैं
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग ३१, 'नमो चउवीसाए' 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' का पाठ[ १७७ २. बुज्झति : बुद्ध (केवलज्ञानी बनते हैं) ३. मुच्चति
: मुक्त (पाठ कर्म रहित) बनते हैं ४. परिनिव्वायंति परिनिर्वाण (सच्ची शाति) पाते हैं सम्व-दुवखारण : सभी (कायिक-मानसिक) दुखो का अंत करेंति
(सदा के लिए पूर्ण) अत करते हैं। जैन धर्म की स्वीकृति
त धम्म
:: ऐसे उस (तीर्थंकर कथित्त, गुणयुक्त
__ फलवान जैन) धर्म की १. सद्दहामि : श्रद्धा ( विश्वास) करता हूँ २. पत्तियामि : (उसके प्रति) प्रीति (प्रेम) करता हूँ ३. रोएमि
: (उसे ग्रहण करने की) रुचि करता हूँ ४. फासेमि
: (प्रत्याख्यान लेकर) स्पर्श करता हूँ ५. पालेसि
: (अन्त तक विरतिचार) पालता हूँ ६ अणुपालेमि = (बार बार या पूर्व पुरुषो ने जैसे उसे
पाला तदनुसार) अनुपालता हूँ तं धम्म सद्दहतो
उस धर्म की श्रद्धा करते हुए पत्तियतो
: प्रीति (या प्रतीति) करते हुए रोयतो, फासतो : रुचि करते हुए, स्पर्श करते हुए पालतो, अणुपालंतो : पालते हुए, अनुपालते हुए
__ जैन धर्म के प्रति अभ्युत्थान तस्स धम्मस्स
: उस (जैन) धर्म की फेवलि पपणत्तस्स
: जो केवली प्ररूपित है प्रभुट्टियोनि
: उठ कर खडा होता है साराहरगाए
• अाराधना (करने) के लिए
m
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८ ।
सुर्वाध जैन पाठमाला-भाग २ विरोमि
: विरत होता (हटता) हैं विराहणाए, : विराधना (करने) मे १. प्रसंजमं : (१७ प्रकार के) असयम को त्यागर्ने परियारणामि
योग्य जानकर देश से त्यागता हूँ संजर्म
: (१७ प्रकार के) सयम को उवसपवज्जामि देश से स्वीकार करता हूँ २. प्रबंभ
: (१८ प्रकार के) अब्रह्मचर्य को त्यागने परियारणामि.
योग्य जानकर देश से त्यागता हूँ बंभ
: (१८ प्रकार के) ब्रह्मचर्य को उवसंपवज्जामि देश से स्वीकार करता हूँ ३. प्रकप्पं
: अकल्पनीय को त्यागने योग्य जानपरियारगामि
कर देश से त्यागता हूँ .
: कल्पनीय को उवसंपवज्जाम्ि
देश से स्वीकार करता हूँ ४. अण्णारणं. : अज्ञान (ज्ञानभाव व मिथ्या ज्ञान) परियारणामि
को त्यागने योग्य जानकर त्यागता हूँ नाणं उपसंपवज्जामि : सम्यग्ज्ञान को स्वीकार करता हूँ ५. अकिरियं : अक्रिया (क्रिया अभाव व मिथ्या क्रिया) परियारगामि
को त्यागने योग्य जानकर त्यागता हूँ किरिय
: सम्यक् क्रिया को उवसपवज्जामि स्वीकार करत्म हूँ मिच्छत्त
: मिथ्यात्व (श्रद्धाअभाव व मिथ्याश्रद्धा) परियारणामि
को त्यागने योग्य जानकर त्यागता हूँ सम्मत्त
: सम्यक्त्व (सम्यक्श्रद्धा) कों उवसंपवज्जामि
स्वीकार करता हूँ प्रवोहि
: आगामी भवो मे वोधि (सम्यक्त्व, परियारामि
दुर्लभ हो, ऐसी क्रिया को त्यागता हूँ
कप्पं
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
बोहि
सूत्र-विभाग-३१ नमो चउवीसाए' 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' का पाठ १७९
: आगामी भवो में बोधि (सम्यक्त्व) उवसपवज्जामि सुलभ हो, ऐसी क्रिया स्वीकारता हूँ उम्मग्ग
: उन्मार्ग (ससार मार्य और कुमार्ग) परियारणामि
को त्यागने योग्य जानकर त्यागता हूँ
: (सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र तप उवसंपवज्जामि रूप मोक्ष के सम्यग्) मार्ग करे
स्वीकारता हूँ। अशेष (सम्पूर्ण) सक्षिप्त प्रतिक्रमण
मग
जं संभरामि • जिन अतिचारो का स्मरण हो रहा है जं च न समरामि और जिन का स्मरण नहीं हो रहा है जं पडिक्कमानि : जिनका प्रतिक्रमण कर रहा हूँ ज च न एडिक्कमाईम : और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर
रहा है। तस्स सव्वस्स : उन सभी देवसियस्स अइयारस्स : दिन सबधो अतिचारो का पडिक्कमामि : प्रतिक्रमण करता हूँ
क्योकि मैं
समरणो ऽह संजय
: मैं श्रमण (श्रावक हैं) : क्योकि (पाप कर्म छोडकर) सयत
(श्रावक) बना हूँ, वह ऐसे : वर्तमान का सवर कर विरत बना हूँ : भूत का प्रतिक्रमण कर प्रतिहत बना
विरयपडिहय
पच्चखाय- .
: भविष्य का प्रत्याख्यान कर
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ पावकम्मे
: प्रत्याख्यात पापकर्म वाला बना हूँ अरिणयारणो
: मैं निदान (मोक्ष के अतिरिक्त अन्य
फल की कामना से) रहित हूँ दिदि संपन्नो : सम्यग्दृष्टिसंपन्न हूँ मायामोसं विवजियो : कपट भूठ से रहित हूँ
ऐसी दशा मे किये हुए किसी पाप को छुपाना, उसका प्रतिक्रमण न करना या विस्मृत पाप के प्रति अनादर करना मेरे लिए कैसे उचित है ? अतः मैं सभी पापो की आलोचना करके उनका प्रतिक्रमण करता हूँ।
जैन धर्म पालको को नमस्कार अडाइज्जेसु दीव : अढाई द्वीप समुद्देसु
: (और दो) समुद्रो की पण्णरससु
: पन्द्रह कम्मभूमिसु • कर्मभूमियो मे (मुझ से छोटे या वडे) जावंति केइ साहू : जितने भी कोई साधू है रयहरण-गुच्छग- : (जो वेश से) रजोहरण, गोच्छा
पूजणी (मुह पोत्तिय) : ('मुखवस्त्रिका' गुच्छग का
पाठान्तर) पडिग्गह-धारा : पात्र आदि के धारी हैं (तथा गुरण से
या कारणवश वेश रहित केवल) पंच-महत्वय-धरा : पाँच महाव्रत धारी हैं अट्ठारस-सहस्स : अट्ठारह सहस्र (हजार) सीलंग-रह-धारा : शीलाग रूप रथ के धारी हैं प्रवस्त्रयायार : अक्षत (निरतिचार) आचार वाले
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
. सूत्र-विभाग-३१ 'नमो चउवीसाए' प्रश्नोत्तरी [ १८१ चरित्ता
: चारित्रवान् है ते सव्वे
: (ऐसे वेश-गुण युक्त) उन सभी को सिरसा मरगसा : शिर (काया) से, मन से और 'मत्थएणवदामि' : वचन से 'मत्थएण वदामि' कहते ।
हए तीनो योगो से वन्दना करता हूँ।
-
'नमो चउन्वीसाए' प्रश्नोत्तरी
प्र० : श्रद्धा आदि को दृष्टान्त से समझाइए।
उ० · जैसे किसी विश्वसनीय पुरुष के इस कथन पर कि 'यह वैद्य 'सर्वश्रेष्ठ' है।' वैद्य को सर्वश्रेष्ठ मानना 'श्रद्धा' है। उस वैद्य के द्वारा सभी रोगियो को पूर्ण नीरोग होते देखकर वैद्य की सर्वश्रेष्ठता का निश्चय होना 'प्रतीति' है। स्वय नीरोग बनने के लिए उसकी औषधि लेने की भावना होना 'रुचि' है। उसकी औषधि को हाथ मे लेना और मुंह मे रखना 'स्पर्शना' है। उसकी औषधि को पेट मे उतारना 'पालना' है। पथ्य का पालन करना तथा नीरोग न होने तक औषध लेते रहना 'अनुपालना' है।
प्र० • अट्ठारह सहस्र शीलांग रथ क्या है ?
उ० : क्षमा आदि दश श्रमण धर्म (यति धर्म) है। इनके पालक साधु पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अजीव, इन दश का असयम नही करते, अत. दश को दश से गुणने पर सौ १०४१०=१०० हुए। वे पाँच इन्द्रियो को वश करके इनका असयम नही करते, अतः सौ को पांच से गुणा करने पर पांच सौ १००४५-५०० हुए। तथा वे चार सज्ञा का निरोध करके इनका असयम नही करते, अतः पाँच सौ को
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ ]
सूबोध जैन पाठमाला-भाग २
चार से गुणा करने पर दो सहस्र ५००४४%D२००० हुए। तथा साधु तीन करण व तीन योग से इनका असयम नही करते, अत. दो सहस्र को दो बार तीन-तीन गुणा करने पर अठ्ठारह सहस्र हुए २,०००४३-६,०००४३=१८,००० । । इन्ही को 'अट्ठारह सहस्र शीलांग रथ' कहते है।
प्र० : नमस्कार मत्र मे नमो लोए सव्व साहरण' द्वारा लोक के सभी साधुओ को नमस्कार किया गया है। वहाँ रजोहरणादि जैन वेश और महाव्रतादि जैन गुण वाले साधु को नमस्कार और जैन वेश और जेन गुण रहित साधु को नमस्कार नहीं करना, ऐसा भेद नही किया है। फिर यहाँ ऐसा भेद क्यो किया है ?
उ० : 'नमो लोए सव्व साहरण' मे रजोहरणादि जैनवेश और पाँच महाव्रतादि जैन गुण युक्त जैन साधूयो को तथा जैन वेश और जैनगुण रहित अजैन साधुप्रो को, सभी को नमस्कार किया गया है।' ऐसी श्रद्धा या प्ररूपणा सत्य नही है। 'नमो लोए सव्व साहूण' मे जो सभी साधु लिए है, वे रजोहरणादि जैन वेश और पॉच महाव्रत आदि जैन गुणधारी जितने भी साधु है, उन्ही सव साधुप्रो को लिया है। नमस्कार मत्र 'मत्र' है। मत्र मे भाव अधिक और शव्द अल्प होते है, अतः वहाँ शब्दो मे यह भेद नही किया हैं। परन्तु उन अल्प शब्दो मे भी भाव यही है कि 'जो जो भी जैन वेश व जैन गुरणयुक्त साधु है या कारणवश जैन वेश न भी हो, पर जैन गुरणयुक्त अवश्य हो, उन्ही सव साधुग्रो को नमस्कार हो।' अत. नमस्कार मत्र मे और इस पाठ मे कोई भेद नही है।
प्र० : ऐसे कौन से कारण हैं, जब जैन गुरण युक्त साधु जैन वेश युक्त नहीं होता?
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३२. पांच पदों की वन्दनाएँ [ १८३
उ० । १ मरुदेवी माता के समान जिन्हें भाव साधुत्व पाने - के पश्चात् मुक्तिगमन मे अधिक विलम्ब न होने के कारण वेश, पहनना आवश्यक न हो, २ भरतजी के समान जिन्हे भाव साधुत्व पाने के पश्चात् वेश पहनने मे कुछ समय लग गया हो, ३ किसी चोर ने वस्त्र चुरा लिये हो, या ४ जहाँ जैन वेशधारी का विचरण निषद्ध हो, वह प्रदेश पार करना हो, आदि कारण ऐसे हैं, जब जनगुण युक्त साधु जैनवेश युक्त नहीं होता।
प्र० : जैन साधु गुण किसे कहते है ?
उ० : सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिनेश्वरो ने वास्तविक सुसाधु के मो गुण माने हो।
पाठ ३२ बत्तीसा
विधि : पाठ ३३ मे आनेवाली 'खामेमि सव्वे जीवा' आदि गाथाएँ, भूतकाल मे श्रावक सूत्र या श्रमण सूत्र के अन्त मे दिये जाने वाले 'इच्छामि खमासमरणो' से पहले बोली जाती थीं। अब भी कई लोग उसी स्थान पर उन गाथाओ को बोलते हैं। उन गाथाओ के पश्चात् 'इच्छामि खमासमणो' देने पर चौथा प्रतिक्रमरण आवश्यक समाप्त हो जाता है। पर भूतकालीन आचार्यादिको ने वन्दना और क्षमापना का अधिक सयोजन किया है।
त इच्छा जाता का अधिक
निम्न वन्दना के लिए 'वन्दना की प्राज्ञा है। कहकर वन्दना की आज्ञा ली जाती है। फिर दोनो घुटनो को मोडकर
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४ ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
भूमि पर लगाये जाते हैं । फिर नमस्कार मंत्र पढकर निम्न वदनाएँ बोली जाती है ।
पाँच पदों की वन्दनाएँ
पहले पद में श्री अरिहन्त भगवान् । ( ये एक काल मे) जघन्य (कम से कम ) ( महाविदेह क्षेत्र मे ) वीस, उत्कृष्ट (अधिकसे अधिक) (महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा) एक सौ साठ १६० तथा ( पन्द्रह कर्म भूमि की अपेक्षा) एक सौ सित्तर देवाधिदेव तीर्थंकर होते हैं । अभी वर्त्तमान काल में बीस बिहरमान ( विचरते हुए ) तीर्थकर महाविदेह क्षेत्र मे विचरते हैं । ( अरिहन्त भगवान ) एक हजार आठ १००८ लक्षण के धारक, चौंतीस प्रतिशय व पैतीस प्रतिशययुक्त वाणी से विराजमान, चौंसठ इन्द्रों के वन्दनीय, श्रट्ठारह दोष रहित,
१. अनन्त ज्ञान
२. ग्रनन्त दर्शन
३ ग्रनन्त चारित्र
४. श्रनन्त बलवीर्य
५. दिव्यध्वनि
६. भा-मण्डल ७. स्फटिक सिंहासन
: केवलज्ञान - सम्पूर्ण ज्ञान केवलदर्शन-सम्पूर्णदर्शन
: क्षायिक सम्कक्त्व व यथास्यात चारित्र : अनन्त शक्ति (ये चार गुण श्रात्मिक और ग्राम्यन्तर हैं, जो चार घाति कर्म क्षय होने से उत्पन्न होते हैं 1 ) : जो सभी को अपनी अपनी भाषा मे परिणमती है और ४ कोस तक सुनाई देती है
: चारो ओर प्रकाश का घेराव
: जिस पर विराजने से भगवान अवर दिखाई देते हैं |
.
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग-३२ पांच पदों की वन्दनाएँ [१८५ . अशोक वृक्ष : जो भगवान के ऊपर छाया रहता है। 8. कुसुमवृष्टि : जो देव कृत, घुटने प्रसारण और अचित
होती है १०. देव दुन्दुभि : जिसे देवता विहार के समय भगवान
के आगे-आगे बजाते चलते हैं। ११ तीन छत्र : जो भगवान के एक के ऊपर एक
होते हैं १२. दो चमर : जिसे दो देव दोनों और वीजते हैं।
(ये पौगलिक और बाह्य गुण हैं, जो
तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से होते हैं। ये आठ गुरण सहित व पुरुषाकार-पराक्रम के धारक हैं। तथा सामान्य केवली जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नव करोड़ (होते हैं) जो १. केवल ज्ञान २ केवल दर्शन के धारक, सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव के ज्ञाता (३. क्षायिक सम्यक्त्व-यथाख्यात चारित्र और ४, अनन्त बलवीर्य-ये चार प्रात्मिक गुण सहित) हैं। सवैया नमो श्री अरिहन्त, करमों का किया अन्त,
. हुआ सो फेवलवत, करुणा भण्डारी है । अतिशय चौतीस धार, पैतीस वाणी उच्चार,
समझावे नर नार, पर उपकारी है। शरीर सुन्दराकार, सूरज सो झलकार,
गुण है अनन्तसार, दोष परिहारी है। कहत है तिलोकरिख, सन वच काया करी, लुली लुली(भुक-भुक कर बार बार,वन्दना हमारी है ॥शा
ऐसे श्री अरिहन्त भगक्न । अापकी दिवस सम्बन्धी श्रावनय पाशातना की हो, तो हे अरिहन्त भगवन् ! मेरा मपराध बार बार क्षमा करिये।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६ ]
सुवोध जैन पाठम ला - भाग २
हाथ जोड, मान मोड, शीश नमाकर तिक्खुत्तों के पाठ से १००८ बार नमस्कार करता
}
'तिक्खुत्तो श्रायाहिणं मत्यरण वदामि । आप मागलिक हो, उत्तम हो । हे स्वामिन् । हे नाथ ! आपका इस भव, परभव, भव भव मे सदा काल शररण हो ।
दूसरे पद से सिद्ध श्री भगवान्
१ वे तीर्थसिद्ध २. प्रतीर्थ सिद्ध
३ तीर्थङ्कर सिद्ध ४. प्रतीर्थङ्कर सिद्ध
५. स्वयं बुद्ध सिद्ध
६. प्रत्येकबुद्ध सिद्ध ७. बुद्धवोधित सिद्ध
८. स्त्रीलिङ्ग सिद्ध ६ पुरुषलिङ्ग सिद्ध १०. नपुंसक लिङ्ग सिद्ध ११ स्वलिङ्ग सिद्ध १२. धन्यलिङ्ग सिद्ध १३ गृहस्थलिङ्ग सिद्ध १४. एक सिद्ध १५. अनेक सिद्ध
जा तीर्थ के सद्भाव मे सिद्ध हुए : जो तीर्थ स्थापना के पहले या तीर्थ विच्छेद के पीछे तीर्थ के प्रभाव में सिद्ध हुए
: जो तीर्थ की स्थापना करके सिद्ध हुए : जो सामान्य केवली होकर सिद्ध हुए : जो गुरू या वृषभादि निमित्त के बिना स्वयं बोध पाकर सिद्ध हुए : जो निमित्त से बोध पाकर सिद्ध हुए : जो गुरु से बोध पाकर सिद्ध हुए : जो स्त्री का शरीर पाकर सिद्ध हुए : जो पुरुष का शरीर पाकर सिद्ध हुए । : जो नपुंसक शरीर पाकर सिद्ध हुए । : जो जैन साधु के वेष मे सिद्ध हुए : जो ग्रर्जन साधु के वेश मे सिद्ध हुए : जो गृहस्थ वेष मे सिद्ध हुए
: जो अपने समय में अकेले सिद्ध हुए : जो ग्रपने समय में स्वयं को मिलाकर तीन या यावत् १०८ सिद्ध हुए
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग - ३२ पांच पदों की वन्दनाएँ [ १८७ इन पन्द्रह भेद या अन्य चौदह भेद से अनन्त सिद्ध हुए हैं। . जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्रय नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकुर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, वहाँ (एव)ज्योति में (अन्य ) ज्योति (ज्यो, एक क्षेत्र मे अनन्त सिद्ध) विराजमान है। सकल कार्य सिद्ध करके (अर्थात्) पाठ कम खपाकर (क्षय कर) मोक्ष पहुँचे हैं। १. अनन्त ज्ञान : ज्ञानावरणीय क्षय से उत्पन्न हुना २ अनन्त दर्शन : दर्शनावरणीय क्षय से उत्पन्न हुआ ३ अनन्त सुख : वेदनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ४. क्षायिक सम्यक्त्व : मोहनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ५. अटल अवगाहना : अायुष्यकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ६. प्रमूर्ति
: नामकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ७. अगुरुलबु : गोत्रकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ८. अनन्तवीर्य : अन्त राय कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ -ये अठ (आत्मिक) गुरण सहित हैं ।
सवैया सकल करम टाल, वश कर लियो काल, मुगति मे रह्या माल (आनद मे झूलना), आत्मा को तारी है। देखत सकल भाव, हुआ है जगत राव (राजा) सदा ही क्षायिक भाव, भये अविकारी हैं। अटल अचल रूप, आवे नही भव कूप, अनूप स्वरूप ऊप, ऐसे सिद्ध (पद) धारी है। कहत है तिलोक रिख, बताओ ए वास प्रभु, सदा ही उगते सूर, वदना हमारी है ॥२॥
ऐसे श्री सिद्ध भगवन् ! . . क्षमा करिये। हाथ जोड़ मान मोड़ . .. .. नमस्कार करता हूँ।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८ ]
सूबोध जैन पाठमाला--भाग २
तिक्खुतो आयाहिण . . मत्थएण वदामि। आप मागलिक हो ... • • • सदा काल शरण हो।
तीसरे पद में श्री आचार्यजी महाराज। १-५ पांच महानत पालते हैं, ६-१० पाँच प्राचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार, वीर्याचार) पालते हैं, ११-१५ पाँच इन्द्रिय जीतते हैं १६-१६ चार कषाय टालते हैं, २०-२८ नव वाड सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य पालते हैं, २६-३६ पाँच समिति-तीन गुप्ति विशुद्ध आराधते हैं, यो छत्तीस गुरण सहित हैं।
अथका पाठ सम्पदा : सम्पत्ति, ऋद्धि, १. प्राचार सम्पदा : १ सयम मे ध्रुव योगी २ निरभिमान
३. विचरते हुए और ४. बडपन्न युक्त २. श्रुत सम्पदा : १ बहुश्रुत, २ परिचित्त श्रुत ३.
विचित्र श्रुत और ४. विशुद्धघोष युक्त, ३. शरीर सम्पदा : भरे पूरे, अलज्जनीय, स्थिर सहनन
और पाँचो इन्द्रिय युक्त शरीर वाले ४. वचन सम्पदा : आदेय वचन, मधुर वचन, निष्पक्ष
वचन और असदिग्ध वचन युक्त ५ वाचना सम्पदा : सम्यक् पढाते हैं, स्थिर कराते हैं, पूरा
पढाते है और रहस्य समझाते हैं। ६. मति सम्पदा : १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अपाय, और
४. धारणा सम्पन्न ७. प्रयोगमति सम्पदा : १. निजी योग्यता, २. परिषदा, ३.
क्षेत्र और ४ विषय, को देखकर वाद करते हैं।
पास ९
.
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग--३२ पांच पदो की वन्दनाएँ [ १८९ ६. संग्रह परिज्ञा :१ चातुर्मास योग्य क्षेत्र का,
२ पीठादि के संग्रह का,३ यथा समय कार्य का और ४. गुरुप्रो के मान का
ध्यान रखते हैं। और ६. शिष्य को : १. आचार से, २. श्रुत से, ३. धर्म योग्य बनाना
प्रभावना से और ४. दोष विशुद्धि से इन नव बोलों के प्रत्येक के चार मेद, यों छतीस गुग सहित हैं।
सवैया गुण है छत्तोसपूर, धरत धरम ऊर, मारत करम क्रूर, सुमति विचारी है। शुद्ध सो प्राचारवन्त, सुन्दर है रूप कन्त, भण्या है सब ही सिद्धान्त, वाचणी सुप्यारी है। अधिक मधुर वेण, कोई नही लोपे केण (कथन), सकल जीवो का सैण, (स्वजन) किरति अपारी है। कहत है तिलोकरिख, हितकारी देते सीख, ऐसे आचारज ताक वन्दना हमारी है ॥३॥
ऐसे प्राचार्यजी महाराज ! न्याय पक्ष वाले, भद्रिक परिणामी, परम पूज्य, कल्पनीय अचित्त वस्तु को लेने वाले सचित्त के त्यागी, वैरागी महागुणी, गुणो के अनुरागी, सौभागी
ऐसे श्री प्राचार्य जी महाराज .. .. • क्षमा करिये । हाथ जोड मान मोड .. ...... नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो प्रायाहिण • ... • " मत्थएण वदामि । आप मांगलिक हो ....... ...... सदा काल शरण हो।
चौथे पद में श्री उपाध्यायजी महाराज ग्यारह (वारह) अंग : हाथ अादि अगो के समान मुख्य सूत्र
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६० ] बारह उपांग
चररण सत्तरी
कररण सत्तरी
सुबोध जैन पाठमाला भाग - २
: अगुली यादि उपागो के समान, अंग सूत्रो के किसी एक अश के विवेचक गौरण सूत्र
: चरण ( चारित्र) के ७० सित्तर बोल | : करण (क्रिया) के ७० सित्तर बोल
ये (११+१२+१+१=२५ या १२+१२+१=२५) पच्चीस गुरग सहित हैं ।
ग्यारह अंग के पाठ अर्थ सहित सम्पूर्ण जानते हैं, १४. पूर्व (बारहवे दृष्टिवाद नामक अग* ) के ( भी ) पाठक हैं ( वर्त्तमान काल की अपेक्षा) निम्नोक्त बत्तीस सूत्रो के ज्ञाता हैं । ग्यारह अंग १. श्राचारांग २. सूत्रकृतांग
:, जिसमे आचार का वर्णन है : जिसमे विचार ( मत) का वर्णन है
पाँच महाव्रत पालते हैं, चार कषाय टालते हैं, ज्ञान दर्शन चारित्र सम्पन्न हैं, नव वाड सहित ब्रह्मचर्य पालते हैं, दस प्रकार यति (साधु) धर्म पालते हैं दश प्रकार की वैयावृत्य करते हैं, बारह भेद से तपश्चर्या करते हैं, सत्रह भेद से संयम पालते हैं। ये चररण के (५+४+३+ε+१०+१०+१२+१७=७० ) सित्तर बोल
हुए ।
पाँच इन्द्रिय जीतते हैं, पांच समिति, तीन गुप्ति विशुद्ध श्राराधते हैं, चारों प्रकार का पिण्ड ( श्राहार, शय्या, वस्त्र, पात्र,) विशुद्ध (४२ दोष टाल कर ) ग्रहण करते हैं; चार प्रकार का श्रभिग्रह ( द्रध्य से क्षेत्र से, काल से, भाव से) करते हैं, बारह साधु प्रतिमाएँ धारण करते हैं, वारह भावनाएं भाते हैं, २ पच्चीस भेद से प्रतिलेखन करते हैं । ये कररण के (५+५+३+४+४+१२÷१२÷२५= ७०) सित्तर वोल हुए ।
* जिसमे जैन श्रर्जन सभी शुद्ध प्रशुद्ध दृष्टियो का कथन था ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग - ३२ पाँच पदों की वन्दनाएं
[ १६१
३ स्थानांग (ठाणांग) : जिसमे नव तत्वो की स्थापना है : जिसमे नव तत्वो का निर्णय है
४. समवायांग
: जिसमे नव तत्वो की व्याख्या है। : जिसमे दृष्टात व धर्मकथाएँ है
: जिसमे दश श्रावकों का वर्णन है : जिसमें मोक्ष गये हुए साधुयों का वर्णन है
: जिसमे अनुत्तर विमान मे गये हुए साधु का वर्णन है ।
: जिसमे प्राश्रव सवर का वर्णन है : जिसमे शुभ-अशुभ कर्मफल का वर्णन है ।
: जिसमे देवलोक में कौन कहाँ पैदा होता है ? इसका वर्णन है
: जिसमे राजा प्रदेशी के ग्रात्मवाद सबधी प्रश्न और कैशीमुनि के उत्तर हैं ।
"
: जिसमे जीव सबधी विविध वर्णन है । : जिसमे विविध विषयो का वर्णन है । : जिसमे जम्बूद्वीप सबंधी वर्णन है । : जिसमे चन्द्र सबधी वर्णन है
: जिसमे सूर्यं सबधी वर्णन है : जिसमे नरक गये, उनका वर्णन हैं : जिसमे देवलोक गये, उनका वर्णन है।
५. भगवती
६. ज्ञाताधर्म कथा
७. उपासक दशांग ८. अंतकृत (अतगड)
६. प्रनुत्तरोप-पांतिक ( श्रणुत्तरोववाई)
१०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक सूत्र
बारह उपांग
१. श्रपपातिक
( उववाई) २. राजप्रश्नीय
३. जीवाभिगम
४. प्रज्ञापना ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति
७. सूर्यप्रज्ञति
८. निरयावलिका
5.
६. कल्पायतंसिका १०. पुष्पिका
: जिसमे सम्यक्त्व आदि की विराधना करके देवलोक मे देव बने, उनका वर्णन है ।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ ] सुबोध जन पाठमाला--भाग २ १६. वैराग्यवान् : राग द्वेष रहित होते हैं, २०. मन समाहरगता : मन वग मे रखते हैं, २१. वचन समाहरणता: वचन वश मे रखते है, २२. काय समाहरणता : काया वश मे रखते है, २३. ज्ञानसम्पन्नता : सम्यग्ज्ञान सहित होते है, २४. दर्शन सम्पन्नता : सम्यग्दर्शन सहित होते है, २५ चारित्र सम्पन्नता : सम्यक्चारित्र सहित होते है, २६ वेयरण
: (भूख, प्यास, रोग, प्रातक आदि) अहियासरगया : अशाता वेदनीय को अति सहना
करते है २७. मारणांतिय- : मरणांतिक कष्ट को भी अति सहना अहियासरगया
करते हैं या मारने वाले के प्रति भो
द्वेष नहीं करते है। पाँच प्राचार पालते हैं, छह काय की रक्षा करते हैं, सात कुव्यसन छोड़ते हैं, आठ मद छोड़ते हैं, नव वाड सहित ब्रह्मचर्य पालते हैं, दश प्रकार यति (साधु) धर्म पालते हैं, बारह भेद से तपश्चर्या करते हैं, सत्रह भेद से सयम पालते है। अट्ठारह पापों को त्यागते है, बावीस परीषह जीतते हैं, तीस महामोहनीय कर्म निवारते हैं, तैतीस प्राशातना टालते हैं, बयालीस दोष टाल कर आहार-पानी लेते है, सैतालीस दोष टाल कर भोगते हैं, बावन अनाचार टालते हैं, बुलाने से आते नहीं है, निमन्त्रण से जीमते नहीं हैं, सचित्त के त्यागी हैं, अचित्त के भोगी हैं, केशो का हाथ से लोच करना, नंगे पैर चलना आदि कायवलेश करते हैं और मोह ममता रहित हैं।
सवैया-पादरी सयम भार, करणी करे अपार, समितिगुपति धार, विक्रया निवारी है। जयणा करे. छह-काय, सावध
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३२ पांच पदों की वन्दनाएँ । १९५ न बोले वाय, बुझाई कषाय लाय, किरिया भण्डारी है। ज्ञान भरणे आठो याम, लेवे भगवन्त नाम, धरम को करे काम, ममता कू मारी है। कहत है तिलोकरिख, करमो का टाले विख, ऐसे मुनिराज ताकू वन्दना हमारी है ॥५॥
ऐसे साधु जी महाराज .... ... क्षमा करिये । हाथ जोड मान, मोड • • • नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो पायाहिण · · · मत्थएण वदामि । 'आप मालिक हो .. .. ... सदा काल शरस हो ।
विधि : पाँच पदो की वन्दना के पश्चात् कोई-कोई धर्माचार्य की और कोई-कोई पाँच परमेष्ठि की समुच्चय तथा धर्माचार्य की वन्दना निम्न पाठो से करते है।
पांचो पद मे पाँच परमेष्ठि भगवान् । १. अरिहन्त देव १२ बारह गुण सहित, २. सिद्धदेव ८ पाठ गुरण सहित, ३. प्राचार्यजी ३६ छत्तीस गुण सहित ४ उपाध्यायजी २५ पच्चीस गुण सहित और ५. साधुजी २७ गुरण सहित-यो सब १०८ गुरण सहित। सवैया-नमूं १ अरिहन्त, न{ २ सिद्ध, ३. नमूं ३ आचारज ।
नमूं ४ उवज्झाय, नमूं ५. साधु अरणगार ने। नमूं सब केवली ने, थविर ने, तपसी ने। नमूं कुल, गण, सघ, साधु गुणधार ने। नमू सब गुणवन्त, ज्ञानवन्त ध्यानवन्त । शीलवन्त तपवन्त, क्षमा गुण सार ने। ऋषि लालचद कहे, नमूं पाँचो पद हो को। श्न, २. नमू, ३ नमूं ४. नमू,५. नमूं श्री नवकारने । ऐसे श्री पच परमेष्ठि भगवान् " सदा काल शरण हो।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुबोध जैन पाठमाला भाग-२
११ पुष्पचूलिका : जिसमे देवियाँ बनी, उनका वर्णन है १२. वृष्णिदशा : जिसमे यदुवशी साधुग्रो का वर्णन है चार मूलसूत्र ६. उत्तराध्ययन : जिसमे भगवान की अन्तिम वारणी है २. दशकालिक : जिसमे संक्षिप्त साध्वाचार है ३. नन्दीसूत्र : जिसमे पाँच ज्ञान का वर्णन है ४. अनुयोगद्वार : जिसमे शास्त्र प्रवेश की पद्धति है । चार छेद सूत्र १. दशाश्रुतस्कध : जिसमें असमाधि आदि का वर्णन है। २. वृहत्कल्प : जिसमे साधुप्रो के कल्प का वर्णन है ३. व्यवहार : जिसमे साधुग्रो के व्यवहार का
_वर्णन है ४. निशीथ : जिसमे अतिचारो का प्रायश्चित्त है और बत्तीसवाँ 'आवश्यक सूत्र' तथा अन्य अनेक ग्रन्थ के ज्ञाता सात, नय
: मुख्य रूप से एक धर्म का ग्राही
विचार चार,निक्षेप : समझने के लिए विषयो का विभाग निश्चय
: भीतरी वास्तविक दृष्टि व्यवहार
: बाहरी औचित्य की दृष्टि चार प्रमाण : प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम
और स्वमत परमत के ज्ञाता मनुष्य या देवता कोई भी विवाद मे जिनको छलने मे समर्थ नहीं, जिन नहीं, पर जिन समान, केवली नहीं, पर केवली समान हैं।
सवैया पढत ग्यारह अग, करमो सू करे जग (युद्ध), पाखडी (वादी) को मान भग, करण हुशियारी है।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३२ पांच पदो की वन्दनाएँ
। १९३
चवदे पूरब धार, जानत आगमसार, भवियन (जन) के सुखकार, भ्रमता निवारी है। पढाचे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप कर ताव (तपावे) तन, ममता को मारी है। कहत है तिलोकरिख, ज्ञान भानु परतिख, (प्रत्यक्ष) ऐसे उपाध्याय तरकू चन्दना हमारी हैं ।।४।३
ऐसे उपाध्यायजी महाराज, मिथ्यात्वरूप अन्धकार के नाशक, समकित रूप उद्योत के कर्ता, धर्म से डिगते प्राणी करे स्थिर करने वाले, सारए (विस्मृत पाठ का स्मरण कराने वाले) वारए (पाठ की अशुद्धि का निवारण करने वाले) धारए (नये पाठ को धराने वाले) इत्यादि अनेक गुरण सहित हैं ।
ऐसे उपाध्यायजी महाराज ! • ... .. . क्षमा करिये। हाथ जोड मान मोड ........ नमस्कार करता हूँ। तिक्खुत्तो पायाहिरप ..... .. . मत्थएणे वदामि । आप मागलिक हो . .. ... " सदा कयल शरण हो ।
'पाँचवे पद में श्री सर्व साधूजी महाराज
अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र रूप लोक मे जघन्य दो सहल (हजार) करोड़, उत्कृष्ट नव सहल (हजार) करोड़ जयवन्त विचरते हैं।
१-५ पाँच महावत पालते हैं, ९-१० पाँच इन्द्रिय जीतते हैं २१-१४ (उदय मे प्राई हुई) चार कषाय टालते हैं
१५. भाव के सच्चे : सयम को अन्तरात्मा से पालते हैं, । १६. करण के सच्चे : तीनो करणो से पालते हैं,
२७. योग के सच्चे : तीनो योगो से पालते हैं, १८ क्षमावान् । कषाय उदय मे अाने नहीं देते हैं,
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ ] सुबोध जन पाठमाला--भाग २ १६. वैराग्यवान् : राग द्वेप रहित होते हैं, २०. मन समाहरणता : मन वश मे रखते हैं, २१. वचन समाहरणता : वचन वश मे रखते है, २२. काय समाहरणता : काया वश मे रखते है, २३. ज्ञानसम्पन्नता : सम्यग्ज्ञान सहित होते है, २४. दर्शन सम्पन्नता : सम्यग्दर्शन सहित होते है, २५ चारित्र सम्पन्नता : सम्यक्चारित्र सहित होते है, २६ वेयरण
: (भूख, प्यास, रोग, अातंक यादि) अहियासरगया : अशाता वेदनीय को अति सहना
करते हैं २७. मारगांतिय- : मरणांतिक कट को भी अति सहना अहियासण्या
करते हैं या मारने वाले के प्रति भो
द्वेष नहीं करते है। पांच प्राचार पालते हैं। छह काय की रक्षा करते हैं। सात कुव्यसन छोड़ते हैं, पाठ मद छोड़ते हैं, नव वाड सहित ब्रह्मचर्य पालते हैं, दश प्रकार यति (साधु) धर्म पालते हैं, बारह भेद से तपश्चर्या करते हैं, सत्रह भेद से सयम पालते हैं, अट्ठारह पापों को त्यागते हैं, बावीस परीषह जीतते हैं, तीस महामोहनीय कर्म निवारतें हैं, तैतीस पाशातना टालते हैं। बयालीस दोष टाल कर पाहार-पानी लेते हैं, सैतालीस दोष टाल कर भोगते हैं, बावन अनाचार टालते हैं, बुलाने से आते नहीं हैं, निमन्त्रण से जीमते नहीं है, सचित्त के त्यागी हैं। अचित्त के भोगी है, केशो का हाथ से लोच करना, नगे पर। चलना प्रादि कायक्लेश करते हैं और मोह ममता रहित हैं।
सर्वया-पादरी सयम भार, करणी करे अपार, समितिगुपति धार, विकथा निवारी है। जयणा करे. छह-काय, सावन
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - ३२. पाँच पदों की वन्दनाएँ
J १६५
ज्ञान
न बोले वाय, बुझाई कषाय लाय, किरिया भण्डारी है। भरणे आठो याम, लेवे भगवन्त नाम, धरम को करे काम, ममता कूं मारी है । कहत है तिलोकरिख, करमो का टाले विख, ऐसे मुनिराज ताकूं वन्दना हमारी है ||५||
ऐसे साधु जी महाराज हाथ जोड मान मोड
|
J
तिक्खुत्तो श्रायाहिण आप मागलिक हो
...
·
..
·
क्षमा करिये ।
नमस्कार करता
1
मत्थएण वदामि । सदा काल शरण हो ।
..
विधि : पाँच पदो की वन्दना के पश्चात् कोई-कोई धर्माचार्य की और कोई-कोई पांच परमेष्ठि की समुच्चय तथा धर्माचार्य की वन्दना निम्न पाठो से करते है ।
पाँचों पद मे पाँच परमेष्ठि भगवान् । १. अरिहन्त देव १२ बारह गुरण सहित, २. सिद्धदेव ८ आठ गुरण सहित, ३. श्राचार्यजी ३६ छत्तीस गुरण सहित ४ उपाध्यायजी २५ पच्चीस गुरण सहित और ५. साधुजी २७ गुरण सहित -यों सब १०८ गुण सहित ।
सवैया - नमूं १ अरिहन्त नमूं २ सिद्ध, ३. नमूं ३ श्राचारज । नमूं ४ उवज्झाय, नमूं ५. साघु अरणगार ने । नर्मू सब केवली ने, थविर ने, तपसी ने । नमूं कुल, गरण, सघ, साधु गुरणधार ने । नमूं सब गुणवन्त, ज्ञानवन्त ध्यानवन्त । शीलवन्त तपवन्त, क्षमा गुण सार ने । ऋषि लालचंद कहे, नमूं पाँचो पद हो को । १नर्मू, २. नमूं, ३ नमूं ४. नमूं, ५. नमूं श्री नवकार ने ॥ ऐसे श्री पच परमेष्ठि भगवान् सदा काल शररण हो ।
...
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६ ] सुबोध जन पाठमाला-माग २
अरिहन्त प्राचार्य उपाध्याय साधु या श्रावक श्राविका पद में श्री धर्माचार्यजी (अपने धर्माचार्य का नाम ग्रहण करे। धर्म उपदेश के दाता, सस्यकत्व रूप रत्न के दाता, ज्ञान रूप नेत्र के दाता, संसार सागर से तिराने वाले, मोक्ष मार्ग में लगाने वाले, हृदय के हार के समान, मस्तक के मुकुट के समान, कान के कुण्डल के समान, आँख की कोकी के समान, रत्त की पेटी के समान, कल्पवृक्ष के समान, चिन्तामरिग के समान, आदि अनेक उपमा सहित अनन्त अनन्त उपकारी महापुरुष ।
गुरु मित्र गुरु मात, गुरु सगा गुरु तात, गुरु भूप गुरु भ्रात, गुरु हितकारी हैं। गुरु रवि, गुरु चंद्र, गुरु देव गुरु इन्द्र, गुरु दिया चिदानद, गुरु पद भारी है ।। गुरु दिया ज्ञान ध्यान, गुरु दिया दान मान, गुरु देवे मोक्ष स्थान, सदा उपकारी है। कहत है तिलोक रिख, भली भली दिवी सीख, पल पल गुरुजी को, वन्दना हमारी है।
ऐसे श्री धर्माचार्यजी ... ... ... • सदाकाल शरण हो।
विधि : श्रावक सूत्र पढने वाले निम्न दोहे सीधे पल्यंकादिक ग्रासन से वैठ कर पढते हैं तथा श्रमण सूत्र पढ़ने वाले खड़े होकर पढते है।
॥ दोहे ॥ अनन्त चोवीसी जिन नम, सिद्ध अनन्त करोड़। केवल ज्ञानी गणधरा, वन्दू युग कर जोड़ ॥१॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३२ वन्दना प्रश्नोत्तरी [ १९७ दो करोड केवल धरा, विहर-मान जिन वीस । सहस्र युगल कोटि तथा साधु नमं निश-दीस ॥२॥ धन धन साधु साध्वी, धन धन है जिन धर्म । जो सुमरण पालन करे, क्षय हो आठो कर्म ॥३॥ अरिहन्त सिद्ध समरू सदा, प्राचारज उवज्झाय । साधु सकल के चरण को, वन्, शीश नमाय ॥४॥
वंदना प्रश्नोत्तरी
प्र० अरिहन्त उपकार की दृष्टि से ही बड़े हैं, आत्मिक गुणो की दृष्टि से तो सिद्ध बडे है, फिर अरिहन्त के गुण अधिक क्यो? और सिद्ध के गुण कम क्यों ?
उ० : अरिहन्त के जो बारह गुण है, उसमे, पहले के चार गुरण ही आत्मिक गुण हैं, शेष बारह गुरण तो उपकार सबधी हैं। और सिद्ध के सभी पाठो ही गुण, आत्मिक गुण हैं, अतः अरिहन्त के आत्मिक गुणो से, सिद्धो के आत्मिक गुण अधिक ही हैं, कम नही।
प्र०: प्राचार्य श्री के जो पहले छत्तीस गुण बताए हैं, वे सामान्य साधुनो मे भो मिलते हैं, फिर उनमे विशेषता क्या है ? -
उ० : आचार्य श्री मे वे गुण, सभी सामान्य साधुओ की अपेक्षा प्राय अधिक विशुद्ध रूप मे मिलते हैं, अत वे विशेषतायुक्त होते हैं। दूसरी प्रकार के जो छत्तीस गुण बताए हैं, उनसे तो उनमे स्पष्टतया विशेषता दिखायी देती ही है।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८ ] सुवोध जन पाठमाला-भाग २
प्र० उपाध्याय श्री, जव सामान्य साधुओ से विशिष्ट होते है, तव उनमे साधुओ से गुण कम क्यो ?
उ० · चरण सत्तरी, करण सत्तरी मे, बहुत गुणो को संग्रहित कर दिया है। उन वोलो को पृथक् रूप मे गिनने पर उपाध्याय श्री मे साधुश्रो से गुण कम नहीं रहते।
प्र० : सिद्ध धर्माचार्य क्यों नहीं होते हैं ?
उ० : क्योकि, वे, शरीर रहित, मोक्ष मे पधारे हुए होते हैं, अतः वे किसी को धर्म उपदेश नही देते; इस कारण वे किसी के धर्म आचार्य नहीं होते।
प्र०: श्रावक श्राविका धर्माचार्य कैसे हो सकते हैं ?
उ० : जो भी धर्म का उपदेश देकर सम्यक्त्व प्रदान करे, उन्हे यहाँ धर्माचार्य कहा है। धर्म उपदेश, श्रावक श्राविका भी अन्य को देते हैं, इसलिए वे भी धर्माचार्य हो सकते हैं।
प्र० : श्रावक धर्माचार्य का शास्त्रीय उदाहरण दीजिए।
उ० : औपपातिक सूत्र मे अंबड (सन्यासी) श्रावक के शिष्यों ने अपने धर्मोपदेशदाता अबड को 'धर्माचार्य' कहा है।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
' सूत्र-विभाग-३३ 'खामेमि सव्वे जीवा' खमाने का पाठ [ १६६
पाठ ३३ तैतीसवाँ विधि : पिछले दोहे पढने के पश्चात् आगे भी श्रावक सूत्र पढ़ने वाले बैठे-बैठे ही 'पायरिय उवज्झाए' आदि तीन गाथाएँ, श्रावक-श्राविकारो को खमाने का पाठ, चौरासी लाख जीव-योनि खमाने का पाठ, 'खामेमि सव्वे जीवा' आदि दो गाथाएं और अट्ठारह पापस्थानक कहते हैं, तथा श्रमण सूत्र पढने वाले खड़े-खड़े ही निम्न पाठो को क्रमबद्ध पढते हैं।
'खामेमि सन्चे जीवा' खमाने का पाठ
फुल
[प्रायरिय उवज्झाए : आचार्य उपाध्याय (आदि बडों पर) सीसे
: शिष्य (आदि छोटो पर) साहम्मिए
: (तथा) स्वधर्मी (समान पुरुषो पर)
: कुल (जो एक आचार्य परम्परा के) गरणे ।
: या गण (अनेक आचार्य परम्परा के
हैं उन) पर जे मे केई
: जो मेने कोई भी कसाया
: क्रोध आदि कषाये की हो (तो) सवे
: (उसके लिए मैं उन) सभी को तिविहेण
: (मन वचन काया इन) तीनो योगो से खामेमि ॥१॥
: खमाता हूँ (क्षमायाचना करता हूँ) सव्वस्स
: (इसी प्रकार) सम्पूर्ण समरण
: श्रमण (साधु-साध्वी श्राविक
श्राविका) संघस्स; भगवो : संघ भगवान् को अंजलि करिम सीसे। : अजलि करके सिर पर
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
सुवोध जैन पाठमाला--भाग २ सवे खमावइत्ता, सभी को खमाकर, खमामि
: खमता हूँ (क्षमा प्रदान करता हूँ) सव्वस्स
: सभी (आचार्य से संघ पर्यन्त) को अहयपि ॥२॥ : मैं भी ॥२॥ सव्वस्स जीवरासिस्स, : (इसी प्रकार) सम्पूर्ण जीवराशि को भावो
: भाव सहित धम्म-निहिय : (क्षमा) धर्म मे रखकर नियचित्तो॥ : अपने चित्त को सव्वे खमावइत्ता, : सभी को खमाकर खमामि
: खमता हूँ (क्षमा प्रदान करता हूँ) सव्वस्स अहय पि ॥३॥] : सभी (जीव राशि) को में भी ।।३।। खामेमि सवे जीवा : खमाता है, सभी जीवो को (इसलिए) सव्वे जीवा खमंतु मे : सभी जीव खमे मुझे (मुझे क्षमा दें) मित्ती में
: (क्योकि) मैत्री है मेरी सव्व भूएसु
: सभी जीवों से (परन्तु। वेर मज्भं रण केरगई॥४॥: वैर मेरा नही है किसी से भी ।।४।। एवमह, आलोइय- : इस प्रकार मै अपनी आलोचना, निदिय- गरहिय- : निन्दा, गर्हा और दुगुंछिय सम्म । : जुगुप्सा (घृणा) सम्यक् प्रकार से करके तिविहेण
: (मन वचन काया इन) तीनो योगो से पडिक्कतो
: पापो से प्रतिक्रमण करके वदामि
: वन्दना करता हूँ, जिणे चउन्चीस ॥५॥ : चौवीसो जिनेश्वरो को ॥५॥
श्रावक-श्राविकाओं को खमाने का पाठ
अढाई द्वीप पन्द्रह क्षेत्र मे मनुष्य तिर्यञ्च श्रावक-श्राविका, वाहर तिर्यञ्च श्रावक-श्राविका दान देते हैं, शील पालते हैं।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र - विभाग - ३३ कुलकोटि खमाने का पाठ
[ २०१
तपस्या करते हैं, शुद्ध भावना भाते हैं, संवर करते हैं, पौषध करते हैं, प्रतिक्रमरण करते है, तीन मनोरथ चिन्तवते हैं, चौदह नियम चितारते हैं, जीवादिक नव पदार्थ जानते हैं, श्रावक के इक्कीस गुरण करके युक्त, एक व्रतधारी, यावत् बारह व्रतधारी, भगवान् की प्राज्ञा में विचरते हैं, ऐसे बड़ो से हाथ जोड़, पैरों में पड करके क्षमा माँगता हूँ, श्राप क्षमा करें, आप क्षमा करने योग्य हैं और शेष सबसे समुच्चय क्षमा मांगता हूँ ।
चौरासी लाख जोवयोनि खमाने का पाठ
सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख प्रकाय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख नारकी, चार लाख तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, चार लाख देवता, चौदह लाख मनुष्य -- ऐसे चार गति में (७+७+७+७+१०+१४+२+२+२+४+४ +४+१४ = ८४) चौरासी लाख जीव-योनि के सूक्ष्म बादर,
पर्याप्त पर्याप्त जीवो मे से किसी जीव का हिलते-चलते, उठतेबैठते, सोते-जागते हनन किया हो, कराया हो, करते हुए का अनुमोदन किया हो, तो अठारह लाख चौवीस हजार एक सौ बीस [१८,२४,१२० ] प्रकार से तस्स मिच्छामि दुक्कडं 4
कुल कोटि खमाने का पाठ
पृथ्वीकाय के बारह लाख, प्रकाय के सात लाख, तेजस्काय के तीन लाख, वायुकाय के सात साख, वनस्पतिकाय के अट्ठाईस लाख, द्वीन्द्रिय के सात लाख, त्रीन्द्रिय के आठ लाख, चतुरिन्द्रिय के नव लाख, जलचर के साढ़े बारह लाख, स्थलचर
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२ ]
सुवोध जैन, पाठमाला – भाग २
के दश लाख, खेचर के बारह लाख, उरः परिसर्प के दश लाख, भुज परिसर्प के नव लाख, नारक के पच्चीस लाख, देवता के छब्बीस लाख, मनुष्य के बारह लाख, ऐसे (१२+७+३+७+ २८;+७+८+६; + १२ ॥ +१०+१२+१०+२५+२६+ १२' = १,६७,५०,०००) एक करोड़ साढ़े सत्यानवें लाख, कुल्ल कोटि जीवों की विराधना की हो, तो दिन मवधी तस्सा मिच्छामि दुवकडं ।
चौथा आवश्यक सना
'प्रश्नोत्तरी'
प्र० : यहाँ वन्दना किसे कहा है
उ० : अरिहन्त ग्रादि गुणवान् जीवों के गुर्गों क स्मरण और स्तुति करते हुए नमस्कार करने को ।
-
प्र० : वन्दना और क्षमापना में क्या अन्तर है 7
उ०- यहाँ विशेष कोई अन्तर नहीं है । क्योकि दोनों में क्षमायाचना का भाव ही मुख्य है ।
प्र० : तब दोनों को पृथक क्यो किया गया ?
उ०- : इसलिए कि, वन्दना में प्राय वन्दना के शब्द अधिक हैं और क्षमापना के शब्द अल्प हैं तथा क्षमापना
मे प्रायः क्षमापना के ही शब्द विशेष हैं ।
प्र० जब कि वन्दना में 'क्षमापना का ही भाव मुख्या है', तब उसमे 'क्षमापना के शब्द कम क्यों और वन्दना के शब्द अधिक क्यो ?'
·
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र विभाग - ३३ 'क्षमापना प्रश्नोत्तरी'
२०३
उ० : 'अपने से 'बडे पूज्य पुरुषो से क्षमायाचना, उनके गुणगान करते हुए और उनका विनय करते हुए करनी चाहिए ।' यह बताने के लिए
प्र० : 'क्षमापना ' प्रतिक्रमरण आवश्यक में क्यों रक्खी
गई ?
उ० : हमने १. जो दूसरे जीवों का प्रचिनय ग्रपराध करके हिंसा का पाप किया तथा २ दूसरो के द्वारा हमारे प्रति अपराध किये जाने पर हममे जो कोध कषाय उत्पन्न हुई, वे दोनो पाप क्षमापना से दूर होते है, इसलिए ।
प्र० : ये दोनो पाप तो अट्ठारह पाप के प्रतिक्रमण से ही दूर हो जाते हैं, तब पृथक् क्षमायाचना क्यो की जाती है ? उ० १. हिसा से हटना और कषाय का उपशम करना'
1
ये दोनो जैन धर्म के प्रचार मे मुख्य हैं । इसलिए इन दोनो की प्राप्ति के लिए विशेष प्रतिक्रमण करना इष्ट है । क्षमापना मे, जीवो के हृदय से हिंसा से हटाने की और कषाय उपशम करने की अद्भुत शक्ति है 1 अतः उक्त दोनो की प्राप्ति के लिए पृथक् क्षमायाचना की जाती है ।
-प्र० : हम क्षमा याचना करे, पर सामने वाले क्रोधो जीव क्षमा न दे, तो १
उ० : हार्दिक क्षमायाचना और बार-बार क्षमायाचना से प्रायः सामने वाले का क्रोध उपशान्त हो जाता है और वह क्षमा प्रदान कर देता है । कदाचित् वह क्षमा प्रदान न भी करे, तो क्षमायाचना करने वाला तो क्षमायाचना करने से पापमुक्त बनता ही है ।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
प्र० : नित्य क्षमायाचना करे, पर वैर विरोध करना, न छोड़ें, तो ?
'उ० : स्थूल (वडे) वैर विरोध तो छोडने ही चाहिएँ । अन्यथा क्षमायाचना का 'चाहिए उतना लाभ' नही हो सकता । यदि कदाचित् कर्म उदयवश न छूट सके, तो हार्दिक क्षमायाचना से लाभ ही है, क्योकि ऐसी क्षमायाचना करने वाले को वैर विरोध का पाप बँधेगा, पर चिकना पाप नही बँवेगा ।
प्र० : जीव-योनि किसे कहते हैं ?
उ० : जीवो के उत्पत्ति स्थान को ।
प्र० : पृथ्वी - कायादि के मूल भेद कितने हैं ?
उ० : चार स्थावर के ३५०-३५०, प्रत्येक वस्म्पति के ५००, साधारण वनस्पति और मनुष्य के ७००-७००, तीन विकलेन्द्रिय के १०० - १०० तथा शेष नारक, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय श्रोर देवता के २००-२००, मूल भेद है ।
प्र० : मूल भेद ध्यान मे रखने का सरल उपाय क्या है ? उ० : 'एक लाख के पीछे ५० मूल भेद होते हैं ।' 'यह स्मरणं रखना ।
प्र० : पृथ्वीकाय आदि के ३५० आदि मूल भेद ७,००,००० आदि उत्तरभेद कैसे बनते हैं ?
उ० : इन मूल ३५० यादि भेदों को क्रमशः ५x२×५X २०००, से गुना करने पर, या इनके परस्पर गुरणन से होने वाली ८५ संख्या से गुरणन करने पर बनते है ।
प्र० : इस प्रकार गुरणन क्यों किया जाता है ?
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३३ 'क्षमापना प्रश्नोत्तरी' [२०५ उ० : क्योकि, प्रत्येक मूल भेद के पाँच वर्ण, दो गध, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच सस्थान के भेद से नाना उत्तर भेद होते है।
प्र० : १८,२४, १२० प्रकार कैसे बनते है ?
उ० : ससारी जीवो के ५६३ भेदो को क्रमश. १०४ २४३४३४३४६ से गुना करने पर या इनके परस्पर गुणन से होने वाली ३२४० सख्या से गुरगन करने पर बनते हैं। (५०६३४३२४०=१८,२४,१२००)
प्र० इस प्रकार गुणन क्यों किया जाता है ?
उ० : क्योकि, जीवो की विराधना अभिया इत्यादि दस प्रकारो से होती है, राग-द्वेष इन दो कारणो से होती है। तीन करण तीन योग से होती है और भूत, भविष्यत् वर्तमानइन तीन काल मे होती है तथा इनकी विराधना अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु और आत्मा इन छह की साक्षी से 'मिच्छा मि दुक्कड दिया जाता है।
प्र० : कुलकोटि किसे कहते है ?
उ० : नाना जीव-योनियो मे होने वाले जीवो के कुल (वश) के प्रकारो को।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ २०६ ]
मुबोध जन पाठमाला-भाग २
पाठ ३४ चौतोसवा
पाँचवाँ आवश्यक
विधि : चौथा आवश्यक पूरा होने पर पहला सामायिक दूसरा चतुर्विगतिस्तव, तीसरी बन्दना, चीथा प्रतिक्रमण-ये चार आवश्यक पूरे हुए, पाँचवे आवश्यक की पाना है।' यह कहकर पांचवे श्रावश्यक की याज्ञा ले । दो प्रतिक्रमण करने वाले चतुर्मासी और सवत्सरी के दिन पहले प्रतिक्रमण मे चार श्रावश्यक पूरे हो जाने पर पांचवां और छठा आवश्यक नही करते, सीधे ही दूसरा प्रतिक्रमण प्रारम्भ करते हैं।
फिर निम्न कायोत्सर्ग प्रतिज्ञा का पाठ पढ़ें। फिर नमस्कार मंत्र, करेमि भंते, इच्छामि ठामि काउसग्गं पीर तस्स उत्तरी पढकर लोगस्स का कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग मे कुछ की मान्यता अनुसार देवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण मे चार, पाक्षिक प्रतिक्रमगा में पाठ, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण मे वारह तथा सावत्सरिक प्रतिक्रमण मे बीस लोगस्स का ध्यान करना चाहिए। और कुछ की मान्यतानुसार देवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण में चार, पाक्षिक प्रतिक्रमण मे वारह, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण मे वीस पीर सावत्सरिक प्रतिक्रमण मे चालीस लोगस्स पीर दो नमस्कार मत्र का ध्यान करना चाहिए।
इस विषय मे वर्धमान श्रमण संघ के नियम के पालने वालों को ४, ८, १२, २० लोगस्स का ध्यान करना चाहिए।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३४ कायोत्सर्ग प्रतिज्ञा का पाठ [२०७ फिर नमस्कार मन्त्र गिन कर कायोत्सर्ग पाले और पुनः एक प्रकट नमस्कार मंत्र और लोगस्स पढे। पीछे पहले बताई हुई विधि के अनुसार दों 'इच्छामि' खमासमणो पढ़े।
॥ पांचवा आवश्यक समाप्त ॥
कायोrसर्ग प्रतिज्ञा का पाठ
इच्छामि गं भते तुन्भेहि : चाहता हूँ, हे भगवन् ! आपके द्वारा अब्भणुण्गाए समारणे : प्राज्ञा मिलने पर देवसिय
: दिन सबधी पायच्छित्त
: प्रायश्चित्त (स्थान, अतिचारो) की विसोहणत्यं- : विशुद्धि करने के लिए करेमि, काउसग्गं । : करता हूँ, कायोत्सर्ग ।
'कायोत्सर्ग' प्रश्नोत्तरी प्र० : कायोत्सर्ग आवश्यक में सदा समान संख्या में __लोगस्स का ध्यान क्यो नही किया जाता?
उइसलिए कि 'देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में पिछले लगभग १५ मुहूर्त (१२ घण्टे) जितने अल्प समय मे लगे अतिचारो की ही शुद्धि करनी होती है, अत उस शुद्धि के लिए मात्र चार लोगम्स का ही छोटा ध्यान पर्याप्त होता है। पर पाक्षिक प्रतिक्रमण मे पन्द्रह दिनो मे लगे अनिचारो की शुद्धि करनी होती है, अत चार लोगस्स से तीगुने या दूने (१२ या ८) लोगस्स- का बडा ध्यान आवश्यक होता है तथा चातुर्मासिक प्रतिक्रमण मे चार महीने मे लगे अतिवारो की शुद्धि करनी
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८ ]
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
होती है, अत चार लोगस्य से पाँच गुने या तिगुने (२० या १२) लोगस्स का विशेष बडा ध्यान श्रावश्यक होता है तथा सावत्सरिक प्रतिक्रमण मे वर्ष भर मे लगे प्रतिचारो की शुद्धि करनी होती है, अत चार लोगस्स से दश गुने (दो नमस्कार मंत्र रूप शिखर सहित ) या पाँच गुने (२० या ४० ) लोगस्स का बहुत बड़ा ध्यान प्रावश्यक होता है ।
*
पाठ ३५ पैंतीसवाँ
छठा आवश्यक
पाँचवाँ ग्रावश्यक समाप्त हो जाने पर वन्दन करके पहला सामायिक, दूसरा चउवीसत्थव, तीसरी वन्दना, चौथा प्रतिक्रमण, पाँचवा कायोत्सर्ग - ये पाँच आवश्यक पूरे हुए । छठे आवश्यक की आज्ञा है ।' यह कह कर छठे आवश्यक की प्राज्ञा ले ।
फिर मन में सूर्योदय उपरांत नमस्कारसहित (नवकारसी) प्रादि जो बन सके, उसे करने की धारणा करे । जहाँ तक हो सके, सम्पूर्ण रात्रि के लिए चतुविधाहार ( चउविहाहार) की धारणा करें। यदि न बने, तो ग्रल्प-से-अल्प आधी रात तक त्रिविधाहार (तिविहाहार ) ग्रौर शेष रात्रि के लिए चतुविधाहार की धारणा करे । प्रातःकाल के 'रात्रिक प्रतिक्रमण' मे, सध्या के 'देवसिक प्रतिक्रमण' मे जो प्रत्याख्यान धारण किये थे, उनमें भावना और अवसर के अनुसार वृद्धि करे तथा १४ नियम या प्रहिंसादि सक्षेप के नियमो को धारण करे |
1
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग - ३५. 'समुच्चय प्रत्याख्यान' का पाठ [२०६
फिर यदि मुनिराज विराजते हो, तो----'मत्थएण वदामि ।' पच्चक्खारण कराइये।' यह कहकर, प्रत्याख्यान माँगे। यदि चे न हो और बड़े श्रावकजी हो, तो 'बडे श्रावकजी ! प्रत्याख्याच कराइये।' यह कहकर प्रत्याख्यान मागें। यदि दोनो ही न हो, तो फिर 'परिहत सिद्ध की साक्षी से तथा गुरुदेव की आज्ञा से' यह कहकर समुच्चय प्रत्याख्यान' के पाठ से स्वयं प्रत्याख्यान करें।
मुनिराज आदि प्रत्याख्यान करावे, तो जब वे प्रत्याख्यान के अन्त में 'वोसिरे' कहे, तब स्वय 'चोसिरामि' शब्द का उच्चाररए करें। फिर 'तहत्' (तथेति= वैसा ही स्वीका है।) यह कहकर पहली सामायिक आदि अन्तिम पाठ पढे। फिर नीचे दाहिना घुटना भूमि पर और बाया घुटनर खड़ा रखकर विधि सहित दो 'नमोत्थुरण' दे।
छठा प्रावश्यक समाप्त ॥ फिर मुनिराज बिराजते हो, तो बडे श्रावक वन्दना करने, उसके पश्चात् क्रम से विधि सहित उन्हे चन्दना करे, सुखसाता पूछे और क्षमायाचना करें। यदि न हो, तो पूर्व या उत्तर दिशा मे मुह करके महावीर स्वामी यर सीमधर स्वामी को तथा अपने वर्माचार्य को वन्दना करे। फिर सभी स्वधर्मी बन्धुओ से हाथ जोड शीश झुका क्षमापना करे। चाट में चौबीसी आदि स्तवन का उच्चाररए करे।
"समुच्चय प्रन्यारवान' का पाठ
जग्गए सूरे
: (रात्रि को तिविहाहार, चउ विहाहार प्रादि जो किया, उस
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१० ।
सुवीध जैन पाठमाला-भाग २
पश्चात् अगला पिछला काल मिला
कर) सूर्य उदय से लेकर १. गठि-सहिये : जब तक मैं अपने कपड़े डोरी आदि की (ग्रन्थिसहित) गाठ बधी रक्खू, या २. मुट्टि-सहियं (मुष्टिसहित) मुट्ठी को वधी रक्खू या ३. नमुझार-सहियं : एक मुहूर्त और उसके उपरांत एक (नमस्कार सहित) नमस्कार मंत्र न गिन या ४. पोरिसियं (पौरुषी) : एक प्रहर दिन न आवे या ५. साड-पोरिसियं • डेढ प्रहर दिन न आवे, तब तक तिविह पि
(पानी को छोड शेप) तीनो प्रकार के चउन्विह पि आहार : (या) चारो प्रकार के आहार१. असरण २. पारणं अशन (अन्न विगय) पानी (जल) ३ खाइमं ४. साइमं : खाद्य (फल,मेवा,ौपधि) और स्वाध अपनी अपनी धारणा प्रमारणे (ये या अन्य) पच्चरखारण (पच्चवखामि) :(का प्रत्याख्यान करता हू) अन्नत्थरणाभोगेरणं : इन श्राकारों (पागारो) को छोडकर (अन्यत्र अनाभोग) : प्रत्याख्यान की स्मृति न रहे या सहसागारेरणं : अकस्मात् मुह मे वर्षा की बूद आदि (सहसाकार) चली जाय या कोई बलात् मुह में
हंस दे या महत्तरा-गारे : महत्तर अर्थात किये हुए प्रत्याख्यान (महतराकार) से विशेप निर्जरा का अवसर उपस्थित
होने पर महत्तर अर्थात् बडे को
आज्ञा हा जाय, या सव्व-समाहि- * शीघ्र प्राणनाशकारी विभूचिका यत्तियागारेण (हेजा) आदि रोग या सर्पदश आदि
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३५ समुच्चय का पाठ [२११ (सर्व-समाधि
हो जाब, उसे मिटाकर समाधि पाने प्रत्यायाकार)
के लिए औषधि आदि लेना पडे (या अन्य किसी कारण से आहार करना पडे, तो मेरा प्रत्याख्यान भय नही
होगा, इस प्रकार मै) वोसिरनि
: (अपनो अाहार प्रात्मा को) वोसि
राता हूँ।
समरचय का पाठ
पहली सामायिक, दूसरा चतुविशतिस्तव, तीसरी वन्दना, चौथा प्रतिक्रमरप, पांचवाँ कायोत्सर्ग, छठा प्रत्याख्यान-इन छह यावश्यको में जानते अनजानते जो कोई अतिचार दोष लगा हो और पाठ उच्चारण करते अक्षर, व्यञ्जन, मात्रा, अनुस्वार, पद प्रादि आगे-पीछे, उलट-पलट, न्यून-अधिक कहा हो, तो दिन सबधी तस्स मिच्छा मि दुवकड ३
१. मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, २. अव्रत का प्रतिक्रमण. ३. प्रमाद का प्रतिक्रमण, ४, कषाय कर प्रतिक्रमण, ५. 'अशुभयोग का प्रतिक्रमण, इन पांच प्रतिक्रमण में से कोई प्रतिक्रमरण न किया हो, तथा चलते, फिरते, उठते, बैठते, पढ़ते, गुग्गते, जानते, अजानते, १. ज्ञान, २. दर्शन, ३. चारित्र, ४. तप सम्बन्धी कोई दोष लगा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
१. गये काल का प्रतिक्रमण, २. वर्तमान काल की सामायिक और ३ आगामी काल का पच्चवखारण, इनमे जो कोई दोष लगा हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कड ।
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२ ] सुबोध जैन पाठमाला भाग २
१. शम, २. संवेग, ३. निर्वेद, ४ अनुकम्पा और ५. प्रास्तिकता (आस्था)-ये पाँच व्यवहार समकित के लक्षण है। इनको मै धारण करता हूँ।
'प्रश्नोत्तरी प्र० : 'मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण' किन पाठो से होता है।
उ० : मुख्यतया 'दर्शनसम्यक्त्व' के पाठ से, अठारह पाप के 'मिथ्यादर्शन शल्य' इस पाठ से तथा पच्चीस मिथ्यात्व' आदि के पाठ से होता है।
प्र० : 'अन्नत का प्रतिक्रमण' किन पाठो से होता है ?
उ० : मुख्यतया 'इच्छामि ठाएमि' के पचण्हमणुव्वयारण' आदि पाठ से, पाँच अणुव्रतो के पाठ से तथा अद्वारह पाप के हिसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह' के पाठ से होता है।
प्र० : 'प्रमाद और अशुभयोग का प्रतिक्रमण' किन पाठो से होता है ?
उ०: मुख्यतया 'इच्छामि ठाएमि' के 'तिण्ह गुत्तीरण' आदि पाठ से, गुणवतो के और शिक्षावतो के पाठ से, अट्ठारह पाप के 'कलह' आदि पाठ से, १४. समूच्छिम के पाठ से तथा पगाम सिज्जाए, गोयरग्ग-चरियाए, चाउक्काल सज्झायस्स, आदि के पाठ से होता है।
प्र० : 'कषाय का प्रतिक्रमण' किन पाठो से होता है ?
उ० : मुख्यतया 'इच्छामि ठाएमि' के 'चउण्ह कसायाण' के पाठ से, तथा अट्ठारह पाप के 'क्रोध, मान, माया, लोभ, इत्यादि के पाठ से होता है।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३५ 'रात्रि-भोजन त्याग' निबन्ध
[ २१३
प्र० : आगामी काल के प्रत्याख्यान का प्रतिक्रमण कैसे होता है ?
उ० यदि आगामी काल के प्रत्याख्यान श्रद्धा के साथ, विनय के साथ, सम्यकतया पाठोच्चारण के साथ तथा शुद्ध भाव आदि से साथ धारण न किये हो, तो उसका प्रतिक्रमण होता है।
'रात्रि-भोजन त्याग' निबंध
छठे प्रत्याख्यान आवश्यक मे जो 'नमस्कार सहित' . (नवकारसी) आदि प्रत्याख्यान बताये है, उनके पूर्व मे रात्रि भोजन का त्याग मुख्य रूप से समाया हुआ है, अतः रात्रि भोजन के त्याग पर विचार किया जाता है।
१. सूक्त : १. 'अहो निच्च तवोकम्म, एगभत्त च भोयण' जो रात्रि भोजन न करके केवल एक (दिन) भक्त ही करता है, अहो, वह धन्य है।' क्योकि उसकी प्रत्येक अहोरात्रि तपयुक्त व्यतीत होती है। -वश०। २. रात्रि भोजन न करने वाले का, प्रतिवर्ष मे छह मास जितना समय तपोमय बन कर सार्थक हो जाता है। ३. वैष्णव मतानुसार जो रात्रि भोजन का नित्य त्याग करता है, उसे तीर्थ यात्रा करने जितना फल होता है।
२. उद्देश्य : रात्रि भोजन से मुह के द्वारा जीवो की विराधना के कारण होने वाली भाव महा हिंसा को टालना और तपोमार्ग में प्रवेश करना ।
३. स्थान : प्राचार्यों ने, रात्रि भोजन के त्याग का स्थान 'सातवें उपभोग परिभोग व्रत' मे बताया है। उनका कथन है कि
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४ ] सुवोध जैन पाठमाला- भाग २ 'जैसे भोजन मे काम आने वाले द्रव्यो की जाति, सख्या, भार आदि से प्रमाण करना, सातवे व्रत मे आता है, वैसे ही 'मै उन द्रव्यो को रात्रि मे नही खाऊँगा' इस प्रकार काल से प्रत्याख्यान करना, भो सातवे व्रत मे पाता है।'
४ प्रकार : रात्रि भोजन का त्याग नाना प्रकार से हो सकता है, जैसे-१. यावज्जीवन के लिए रात्रि को चारो आहार का त्याग या २ पानी को छोडकर शेष तीन पाहार का त्याग या ३. पानी और स्वाद्य को छोडकर शेप दो आहार का त्याग । अथवा वर्ष मे पर्व तिथियो को या . .. " इतने दिनो तक रात्रि को ४. चार, ५ तीन या ६. दो आहार का त्याग ।
५. लाभ : १. रात्रि भोजन करने वाले, गरम-गरम भोजन करने की इच्छा यादि के कारण प्राय रात्रि को भोजन वनाते है या वनवाते है। उस समय दीपक के मन्द प्रकाश सेदिखाई न देने वाले, अर्थात् सूर्य के तीव्र प्रकाश से दिखाई देने वाले सूक्ष्म जीव-जन्तु कई बार मर जाते हैं। कुछ वार पूरे अन्धेरे मे भोजन बनाने पर तो बडे-बडे जीव-जन्तु भी मर जाते हैं । रात्रि भोजन के त्याग से रात्रि मे भोजन कम बनता है, जिससे अहिंसा का लाभ होता है। २. ३. रात्रि भोजन के त्याग से, माता-पिता, साथी-स्वजन आदि से चोरी-छिपे रात को होटल आदि मे चाय-पकौडो, मिठाई यादि खाने का स्वभाव तथा उस सवव मे उनके सामने झूठ बोलने का स्वभाव छूटता है। ४ रात्रि भोजन से होने वाले अब्रह्मचर्य सम्बधी विकार, जसेभोग भावना, अति भोग, दु.स्वप्न, आदि नहीं होते। ५. सारे दिन भर तथा रात्रि को भी बहुत अधिक समय तक धन कमाने की तृपणा मन्द पड़ती है। ६ रात्रि भोजन के अभाव मे जो
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३५ 'रात्रि-मोजन त्याग' निबन्ध [२१५ लम्बी या बार बार यात्राएँ असम्भव या कठिन होती हैं, वे रुकती हैं। ७. १० भोजन के काम में आने वाले द्रव्यो का काल से यावज्जीवन के लिए या प्रतिदिन के लिए परिमारण होता है। ८ दिन मे भोजन बनाने और करने की अनुकूलता होते हुए भी, रात्रि भोजन के व्यसन के कारण जो रात्रि में भोजन बनाया और किया जाता है, और इस प्रकार अनर्थ दण्ड लगाया जाता है, वह छूटता है। ६ जब घर का एक प्राणी रात्रि भोजन करता है, विशेषतया मुखिया प्राणी रात्रि भोजन करता है, तो धीरे धीरे अन्य प्राणो भी रात्रि भोजन की ओर झुकते हैं। इससे उसके स्वय के और अन्य के जीवन मे से सायकाल की सामायिक प्रतिक्रमण आदि की क्रियाएँ दूर होती हैं और कुछ भावना वाले जीवो को अन्तराय पडती है। ये दूषण दूर होते है। ११. रात्रि भोजन के व्यसन से उपवास, पौषध, सवर आदि मे पाने वाली असमर्थता नही आतो। १२ सायकाल मे भी साधुदान का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार रात्रि भोजन के त्याग से बारह ही 'व्रतो को लाभ पहुँचता है।
लौकिक लाभ-वैद्यक ग्रन्थों मे बताया है कि १ रात्रि को पाचक ग्रन्थियाँ आदि सकुचित हो जाती हैं, अतः रात्रि भोजन से भोजन बराबर पचता नहीं है। २ बार बार रात्रि भोजन करने से अजीर्ण रोग हो जाता है। ३ रात्रि भोजन करने से . वीर्यपात होकर शक्ति घटती है। ४ सूर्य प्रकाश मे भोजन करने से जो पुष्टि मिलती है । रात्रि भोजन मे सूर्य प्रकाश नही मिलने से, वह पुष्टि नहीं मिलती। ५ रात्रि भोजन करते समय मक्खी आदि स्पष्ट और शीघ्र दिखाई नहीं देती और खाने मे अा जाती है। मनखी खाने मे आ जाने से वमन, कीडी से
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६ ] . सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ बुद्धिनाश और पित्ती, मकडी से कोढ, जूमो से जलोदर, बाल से स्वर भग, इस प्रकार विभिन्न वस्तुएँ रात्रि-भोजन के साथ मे खाने मे आ जाने पर विभिन्न रोग उत्पन्न होते है। इत्यादि रात्रि भोजन मे कई हानियां हैं, जो रात्रि भोजन त्याग से टल जाती है।
पोरलौकिक लाभ--विना कारण रुचिपूर्वक रात्रि भोजन करने वाले, अगले जन्मो मे कौना, उल्लू, बिल्ली, गीध, सूअर, साँप, बिच्छू, गोह आदि रात्रि-भोजी, अभक्ष्य भोजी और घृणित भोजी पशु-पक्षी आदि बनते है। तथा नियमपूर्वक दृढ रहकर रात्रि-भोजन का त्याग पालने वाले देव और वहाँ से आर्य मनुष्य बनते है।
६. कर्त्तव्य 'सूर्य उदय नही हा या अस्त हो चुका है।' इसका विशेष ध्यान रखना। सूर्योदय के पश्चात् नमस्कार सहित तथा सूर्यास्त के ५-१० मिनिट पूर्व 'दिवस चरम' का प्रत्याख्यान करना, जिससे रात्रि-भोजन त्याग मे दोष लगने की सभावना न रहे। सायकाल भोजन अति मात्रा में नही करना, जिससे रात्रि को विशेष प्यास न लगे। तथा पानी अतिमात्रा मे नही पीना, जिससे भविष्य में रात्रि को अवास्तविक प्यास न लगे तथा स्वास्थ्य विकृत न हो। जहाँ दिन रहते भोजन मिलने की सभावना न हो, वहाँ के लिए पहले से विवेक रखना तथा, यथा शक्य रात्रिनिर्मित न खाना ।
७. सावना • सूक्तादि पर विचार करना 'मुनियो के समान रात को लाया हुया और रात्रि में रक्ग्वा हया भोजन भी न करने वाला कत्र वनगा।' वह मनोरथ करना। रात्रि
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३६ दश प्रत्याख्यानों के पृथक्-पृथक् पाठ [:२११
भोजन त्याग की अपूर्णता का खेद करना। निरन्तर मास-माम का तप वाले तपस्वियो के जीवन चरित पर ध्यान देना । ।
पाठ ३६ छत्तीसवा
दश प्रत्याख्यानों के पृथक-पृथक पाठ
१. 'नमस्कार सहित' का प्रत्याख्यान पाठ उग्गए सूरे
: सूर्य उदय से लेकर १. नमोक्कार सहियं : १. मुहर्त दिन और एक नमस्कार पच्चवखामि
उच्चारण काल तक पच्चक्खता हूँ चउन्विह पि आहार-१. प्रसरणं २. पारणं ३. खाइम ४. साइमं। १. अन्नत्थरणा-भोगेरणं २० सहसागारेरणं । वोसिरामि।
२. 'पौरुषी' का प्रत्याख्यान पाठ उग्गए सूरे
सूर्य उदय से लेकर पोरिसि (पौरुषी) : एक प्रहर अर्थात् १ दिन तक या सड-पोरिसिं (सार्द्ध) : डेढ प्रहर अर्थात् ३ दिन तक
पच्चक्खामि । चउन्विहं पि आहार-१० अस॥ २. पारणं ३. खाइमं ४. साइमं। १. अन्नत्थरणर-भोगेरणं ५ २. सहसा-गारे
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८ ]
३. पच्छन्न-कालेरणं (प्रच्छन्न-काल )
४. दिसामोहरणं (दिशां - मोह)
सुवोध जैन पाठमाला - भाग २
५. साहु-वयरगं ( साधु- वचन )
वोसिरामि ।
: मेघ, ग्रांची, पर्वत ग्रादि के कारण सूर्य ग्रहश्य होने से, या घडी आदि के अभाव से
६. महत्तरा - गारेणं ७ सव्व-समाहि-वत्तिया - गारेणं B
: या अन्य दिशा में पूर्व दिशा की भ्रान्ति के कारण 'सूर्य बहुत ऊपर चढ गया' इस समझ से, या घडी , आदि देखने मे भ्रान्ति हो जाने से : या प्रामाणिक पुरुष के कथन मे भ्रान्ति रह जाने से या घडी आगे होने से काल का ज्ञान शुद्ध न होने पर काल से पहले प्रहार ग्रहरण हो जाय तो ग्राकार (ग्रागार) तथा
उग्गए सूरे पुरिम (पूर्वार्ध)
श्रव (पार्व)
३. 'पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान पाठ
: सूर्य उदय से लेकर
: दो प्रहर ग्रर्थात् दिन तक या : तीन प्रहर ग्रर्थात् दिन तक पच्चक्खामि चउव्विह पि श्रहारं - १. प्रसरण २. पा ३. साइमं ४. साइमं । १. अन्नत्यरणा - भोगेणं २. सहसा - गारेग ३- पच्छन्न-कालें ४ दिसा-मोहरणं ५. साहु-वयरणे ६० महत्तरा-गारे ७ः सव्व-समाहि-वत्तिया गारेणं । चोनिरामि ।
'पौषी' और 'पूर्वार्ध' के प्रत्यास्थान का पाठ प्रायः समान है । 'पूर्वार्ध' का प्रत्याख्यान विशेष काल का होने से,
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३६ दश प्रत्याख्यानों के पृथक्-पृथक् पाठ [ २१९ उसमे 'महत्तर-आकार' विशेष रक्खा है तथा 'पौरुपी' का काल अल्प होने से उसमे 'महत्तर-आकार' नही रक्खा है। 'नमस्कार सहित' का काल अति अल्प होने से उसमे 'प्रच्छन्न-कालादि' चार आकार भी नही रक्खे है।
४. 'एकाशन' का प्रत्याख्यान, पाठ
एगासरणं
दोनो पुत (नितब; कटि और जघा (एकाशन) - के मध्य भाग) को बिना हिलाए एक
प्रासन से एक बार भोजन उपरात पच्चक्खामि । तिविह पि प्राहारं-१. असरणं २. खाइम ३. साइम (अथवा) चउन्विह पि आहार-१ असरण २ पारणं ३. खाइमे ४ साइमं । १ अन्नत्थरणाभोगेणं २ सहसागारेरण ३ सागारियागारेरण- : (साधु के लिए सभी गृहस्थ, तथा (सागारिका-कार) - गृहस्थो के लिए क्रूर दृष्टि वाले,
लोभी, जुगुप्सनीय आदिपुरुष, जिसके सामने भोजन नही किया जाता, उसके लिए स्थान परिवर्तन करना
पडे। ४. पाउंटरण. पसारणेग : दोनो पुतो के अतिरिक्त अगो को (आकुचन प्रसारण) सिकौडू, प्रसारू, हिलाऊँ, ५. गुरु अम्भुट्ठारोग : (साधु के लिए बड़े या पाहुने साधु, (गुरु अभ्युत्थान) तथा गृहस्थ के लिए कोई भी) साधु
ग्राने पर उनके विनय के लिए उठना
पड़े। ' पारिठावरिणयागारेण : लाया हुअा अाहार बच जाय तो,
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२० ] ( परिस्थापनिकाकार)
सुवोध जैन पाठमाला- -भाग २
७. महत्तरागारेणं
वोसिरामि ।
परठने की विराधना को टालने के लिए उसे भोगना पडे, तो आगार तथा ८. सव्व-समाहि-वत्तिया-गारेणं ।
५. 'एकस्थान' का प्रत्याख्यान पाठ
एक्कासरणं ( एकाशन ) : भोजन के लिए हाथ और मुंह जितना एगट्ठा (एकस्थान) हिलता है, उसके अतिरिक्त अन्य अगो को हिलाये बिना एक वार भोजन उपरात
पच्चक्खामि । तिविह पि श्राहारं - १. श्रसरणं २ साइमं ३. साइमं । ( अथवा ) चउव्विहं पि श्राहारं - १. असणं २. पा ३. खाइमं ४ साइमं । १. अन्नत्थरणा - भोगेणं, २. सहसागारेणं ३. सागारिया - गारेण, ४. गुरु- श्रब्भुट्ठाण, ५. पारिट्ठावलियागारेणं, ६. महत्तरागारेणं, ७ सव्वसमाहि-वत्तिया-गारेां । वोसिरामि ।
श्रायंविलं ( आचाम्ल)
'एकाशन' और 'एक-स्थान' का प्रत्याख्यान पाठ प्रायः समान है। भोजन के समय अगो के सिकोडने पसारने का आगार 'एकाशन' मे है और 'एक-स्थान' मे नही ।' यही दोनो प्रत्याख्यानो मे अन्तर है ।
६. 'आयंबिल' का प्रत्याख्यान पाठ
: लवरण- मिर्च यादि सस्कार तथा दूध आदि विगय रहित, एक चित्त धान्य का एक वार भोजन उपरात
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग - ३६. दश प्रत्याख्यानो के पृथक्-पृथक् पाठ [ २२१
पच्चक्खामि ।
: तीन या चारो आहार का 'एकाशन' या 'एकस्थान' सहित त्याग करता हूँ ।
१. अन्नत्थरणा भोगेणं २. सहसागारेग ३. लेवा-लेवेण ( लेपालेप)
४. उक्त्ति - विवेगेरणं ( उत्क्षिप्त - विवेक)
५ गिहत्य-ससट्ट गं (गृहस्थ- ससृष्ट)
निव्विगइयं ( निविकृतिक )
: पात्र, कुडछी, हाथ आदि, जो पहले लेप युक्त थे, उन्हे निर्लेप करते हुए भी उनमे कुछ लेप रह जाय, ऐसे अल्प लेप वाले पात्रादि से दिया हुआ आहार करू
1
: गुडादि के ऊपर या नीचे रक्खी रोटी आदि को गुडादि से भिन्न करके दे, उसमे गुड आदि का अल्प लेप रह जाय, वह ग्रहार करूँ
६. पारिट्ठावरिया - गारेणं ७. महत्तरागारेणं ८. सव्वसमाहि-वत्तिया - गारेण । वोसिरामि ।
७. 'निर्विकृतिक' का प्रत्याख्यान पाठ
: गृहस्थ ने आहार बनाने के पहले या पीछे जिस आहार मे नमक आदि मिला दिया हो, या अति अल्प मात्रा मे विगय लगा दी हो, वह ग्राहार करूँ, तो श्रागार तथा
: १ पिण्ड या धार की या २. अवगाहिम ( कडाई) की पाचो विगय रहित या इच्छित विगय रहित एक बार भोजन उपरात
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२ ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ पच्चवखामि : तीन या चारो आहार का 'एकाशन,
या 'एकस्थान सहित' त्याग करता हूँ। १. अन्नत्थरणाभोगेरण २. सहसागारेरणं ३. लेवा-लेवेरणं ४. गिहत्थ-संसट्ठरणं ५. उक्खित्त-विवेगेरणं ६. पडुच्च-मक्खिएणं : सर्वथा रूखी न रहे, इसलिए रोटी (प्रतीत्य-म्रक्षित) आदि पर साधारण लेप लगा हों,
दाल मे छमका हो, शाक मे खटाई हो, उसका या छाछ आदि का
आहार करू, तो आगार तथा ७. पारिद्वावरिगया-गारेग ८. महत्तरा-गारेण ६. सवसमाहि-वत्तिया-गारेरणं। वोसिरामि ।
'पायबिल' और 'निविकृतिक' का प्रत्याख्यान पाठ प्रायः समान है। 'निर्विकृतिक' मे लवण-मिर्च आदि सस्कार का तथा विगय के साधारण लेप का उपयोग हो सकता है, परन्तु प्रायबिल 'मे नहीं हो सकता।' यही दोनो प्रत्याख्यानो में अन्तर है। वैसे 'निर्विकृतिक' मे सामान्यतया लूखी रोटी और छाछ ही खाई जाती है।
८ 'उपवास' का प्रत्याख्यान पाठ उग्गए सूरे : सूर्योदय से लेकर अभत्तट्ठ (अभक्तार्थ) : चतुर्थ भक्त या उपवास
पच्चक्खामि । तिविहं पि अाहार १. असरण २. खाइम ३. साइमं (अथवा) चउविहं पि आहार १. प्रसरणं २ पारण ३. खाइमं ४. साइमं । १. अन्नत्थरणाभोगेरणं २. सहसागारेग ३. पारिद्वावरिणयागारेगः
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३६ दश प्रत्याख्यानो के पृथक्-पृथक् पाठ [ २२३ । ४. महत्तरा-गारेणं ५. सव्व-समाहि-वत्तिया-गारेणं । घोसिरामि।।
8 'अभिग्रह' का प्रत्याख्यान पाठ
गठिसहियं, मुट्ठिसहियं : गाठ न खोलं, मुट्ठी न खोलू या अभिग्गहं (अभिग्रह) : अमुक द्रव्य, अमुक क्षेत्र मे, अमुक
काल मे, अमुक रीति से न मिले, तब तक मन में निर्धारित समय तक
पच्चक्खामि । तिविह पि प्राहारं-१. प्रसरणं २. खाइम ३ साइमं (अथवा) चउविह पिपाहार-१.असरगं २. पारणं ३. खाइम ४. साइमं । १. अन्नत्थरणा-भोगेरगं । २. सहसागारेरणं ३. महत्तरा-गारेणं ४. सन्च-समाहिवत्तिया-गारेणं । वोसिरामि।
'उपवास' और 'अभिग्रह' का प्रत्याख्यान पाठ प्रायः समान है। 'उपवास' मे 'पारिद्वावरिणयागार' है और अभिग्रह मे नही है। दोनों प्रत्याख्यानो मे आगार सम्बन्धी यही अन्तर है।
१ लेवा-लेवेण २ उक्खित्त-विवेगेणं ३. गिहत्थ-सस?ण और ४. पारिढावरिणया-गारेण'-ये चारो आगार १. साधु के लिए, २ प्रतिमाधारी श्रावक के लिए तथा ३. दो करण तीन योग से गौचरी की दया करने वाले श्रावको के लिए है। घर मे भोजन बन जाने के पश्चात् या ऐसी ही अन्य परिस्थितियो मे 'आयंबिल-निविगइय' का भाव उत्पन्न होने पर, सामान्य गृहस्थ के लिए भी 'लेवा-लेवणं' आदि तीन आगार होते हैं, अतः उन्हे 'पायबिल-निविगई' के लिए नया प्रारभ न करने का विवेक रखना चाहिए।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्र-विभाग-३६. दश प्रत्याख्यानों के पृथक्-पृथक् पाठ [ २२५
प्रत्याख्यान पारने का पाठ विधि : एक नमस्कार मत्र का उच्चारण करके जिस प्रत्याख्यान को पारना हो, उसका नाम बोलते हुए निम्न पाठ
पढे।
....... पच्चक्खारणं कर्य' : जो प्रत्याख्यान किया तं, पच्चक्खाणं : उस, प्रत्याख्यान का सम्मं काएरणं : सम्यक् रूप मे,'काया से १. फासियं
: (आरभ मे प्रत्याख्यान का पाठ पढ
__कर) स्पर्श किया २. पालियं
: (मध्य मे पाहार छोड कर) पालन
किया
३. सोहिये
(लगे हुए अतिचारों की आलोचना
करके) शुद्ध किया ४. तीरियं
: (अन्त में नमस्कार मत्र का उच्चारण
___करके) तीर पर पहुँचाया ५. किट्टियं : (गुण का) कीर्तन किया (इस प्रकार) पाराहिय .: (यथाशक्य) आराधन किया प्रारणाए अणुपालियं : आज्ञा के अनुसार अनुपालन किया भव
(फिर भी यदि कोई त्रुटि रही हो, जं च न भवद : और जो अनुपालन न हुआ हो, तो तस्स मिच्छामि दुवकर्ड : उसका मिथ्या हो मेरा पाप। मर्थ, मावार्य, प्रश्नोत्तर, निबंध और प्रासगिक जानकारी सहित
-श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र समाप्त
इति १: सूत्र-विभाग समरप्त
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. तत्व-विभाग पच्चीस बोल के स्तोक (थोकड़े) के
शेष बोल सार्थ
१, २, ३, ४, ५, ६, १०, १४, १५, १६, २२ और २३ वा -यो बारह बोल 'सुबोध जंन पाठमाला-भाग १ मे दिये जा चुके हैं। इसमे शेष रहे हुए
६, ७, ८, ११, १२, १३, १५, १६, १७, २०, २१, २४ और २५वा वोल-यो तेरह बोल दिये हैं।
छठा बोल : 'दश प्रारण प्रारण : जिनके मिलने से जीव जन्मे, जिनके रहने से जीव जीवित रहे और जिनके बिछुड़ने से जीव मर जाय ।
१. श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण, २. चक्षुरिन्द्रिय बलप्रारण, ३. घ्राणेन्द्रिय बलप्रारण, ४. रसेन्द्रिय बलप्राण, ५. स्पर्शेन्द्रिय बलप्रारण, ६. मनोवल-प्रारण, ७. वचनबल-प्रारण, ८. काय वलप्राप, ६. श्वासोच्छ्रवास बल-प्रारण और, १०. आयुष्य बल-प्रारण।
इनमें से १. स्पर्शेन्द्रिय बलप्रारण, २. काग-बल-प्राण, ३. श्वासोच्छवास बलप्राण और ४ प्रायुष्य बल-प्रारण-ये चार प्रारणएकेन्द्रियों को होते हैं। द्वीन्द्रिय को रसेन्द्रिय बल-प्राए और धन
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व विभाग-साता चोल • 'पाँच शरीर' । २२७ बल-प्रारस मिलाकर छह, त्रीन्द्रिय को प्रारपेन्द्रिय बलप्राण मिलाकर सात, चतुरिन्द्रिय को चक्षुरिन्द्रिय बल प्रारण मिलाकर पाठ असंही पञ्चेन्द्रिय को श्रोत्रेन्द्रिय बल-प्राण मिलाफर नव, तथा संज्ञरे पचेन्द्रिय को मनोवल-प्रारण मिलाकर दश 'घले-प्राण' होते हैं।
सातवाँ बोल : 'पाँच शरोर'
शरीर : उत्त्पत्ति समय से ही प्रतिक्षरण जीर्णशीर्ण होने वाला।
१. प्रौदारिक शरीर : १. दुर्गंधमय तथा सडने वाले रक्त, मास, हड्डी आदि से बना शरीर। २ सर्वश्रेष्ठ सार पुद्गलो से बना उदार (उत्तम) शरीर, जैसे-तीर्थंकरो का शरीर, गणधरो का शरीर । ३ वैक्रिय और आहारक की अपेक्षा असार पुद्गली से बना शरीर, जसे-सामान्य तिर्यञ्च-मनुष्यो का शरीर। ४. अवस्थित रूप से सबसे बडी अवगाहना (कद, लम्बाई, चौडाई ऊँचाई) वाला उदार-(मोटा) शरीर; जैसे वनस्पति का शरीर । ५. 'प्रदेश अल्प किन्तु अवगाहना बड़ी' ऐसर शरीर, जैसे भिण्डी का शरीर।
२. वैक्रिय शरीर । १. सुरूप, कुरूप, एक, अनेक, छोटा, बडा, हल्का, भारी, दृश्य, अदृश्य प्रादि अनेक रूपो मे परिणत होने वाला (बदलने वाला) शरीर। २. दुर्गंधमय तथा सड़ने वाले रक्त, मास, हड्डी आदि से रहित शरीर ।
३. प्राहारक शरीर : १. अन्यत्र विराजमान केवली भगवान् की सेवा मे भेज कर प्रश्न पूछने के लिए या उनका भतिशय देखने के लिए बनाया जाने वाला या प्राणी-रक्षा तथा ऐसे ही अन्य प्रयोजनो से बनाया जाने वाला शरीर ३ स्फटिक
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ के समान अत्यन्त स्वच्छ उत्तम पुद्गलो से बना और मूंड हाथ से लेकर एक हाथ तक की अवगाहना वाला शरीर ।
४. तेजस शरीर : १. 'आहार को पचाने वाला व शरीर मे उष्णता रखने वाला शरीर २. तेजोलब्धि से तेजोलेश्या निकालने मे कारणभूत शरीर।
५. कार्मण शरीर : १. आत्मा के साथ बँधे हुए कर्मो से बना हुआ कर्म-रूप शरीर, २. पचे हुए भोजन के रसादि को यथां स्थान पहुँचाने वाला शरीर ।
___ इनमे से 'औदारिक शरीर' सभी तिर्यश्च व मनुष्यों को होता है। 'वैक्यि शरीर' सभी नरक देवो को होता है, कुछ तिर्यञ्चो व मनुष्यो को भी होता है। 'पाहारक शरीर' मात्र चौदह पूर्व धारी पुरुष साधु मनुष्यों को ही होता है। और 'तेजस' तथा 'कार्मरण' शरीर सभी ससारी जीवों को अनादिकाल से होता है ।
पाठवाँ बोल : 'पन्द्रह योग' मन के चार, वचन के चार, काया के सात । योग १५ ।
योग : १. मन वचन और काया। २. मन वचन और काया का व्यापार (-प्रवृत्ति)। ३. मन वचन और काया के व्यापार से आत्मा मे होने वाला परिस्पन्दन (हलन चलन, कम्पन) विशेष।
मन के चार योग १. सत्य मनोयोग : १. जीवादि नव तत्वों के या जीवादि छह द्रव्यो के विषय में सत्य (=यथार्थ) विचार करना।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग- श्राठवाँ बोल : 'पन्द्रह योग'
[ 'PRE
२. मोक्ष की ओर ले जाने वाले हित-साधक विचार करना । ३ निरवद्य ( = हिंसादि पाप रहित ) विचार करना ।
२. असत्य मनोयोग : १. जीवादि नव तत्त्वो के या जीवादि छह द्रव्यो के विषय मे असत्य ( = प्रयथार्थ, मिथ्या ) विचार करना । २ ससार बढाने वाले हित-विरोधी विचार करना । ३ सावद्य ( हिंसादि पाप सहित ) विचार करना । ४ क्रोधादि कषाय मे आकर विचार करना ।
३ मिश्र ( सत्यामृषा ) मनोयोग : जिसमे सच झूठ दोनो हो, ऐसा मिश्र विचार करना । जैसे किसी वन मे आम के वृक्षो की अधिकता हो और उसमे जामुन, कबीठ आदि वृक्षो की अल्पता हो, तो उसके विषय मे 'यह आम का 'ही' वन है । ऐसा एकान्त विचार करना । उस वन मे आम के वृक्ष होने से यह विचार सत्य भी है और जामुनादि के भी वृक्ष होने से यह विचार असत्य भी है। यदि उदाहरण के लिए दिये गये 'विचारो में 'ही' नही होता तो, वह विचार सत्य मनोयोग मे
माना जाता ।
४. व्यवहार ( सत्यामृषा ) मनोयोग : जिस मे सच झूठ दोनो न हो या किसी विषय को सत्य या असत्य सिद्ध करने की भावना न हो, ऐसा विचार करना । जैसे-याचना, पृच्छना, आमन्त्रण आदि का विचार करना ।
वचन के चार योग
१. सत्यवचन योग (सत्य भाषा) २. असत्यवचन योग (असत्य भाषा) ३. मिश्र वचन योग (मिश्र भाषा) श्रौर ४. व्यवहार वचन योग ( व्यवहार भाषा )
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३० ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
इन चारो वचनयोगो का अर्थ (भाषाओ का अर्थ) क्रमश: चारो मनोयोगो के अर्थ के समान है। केवल 'विचार' के स्थान पर 'वचन' समझना चाहिए।
काया के सात योग १. औदारिक-योग : औदारिक शरीर का व्यापार । २. औदारिक मिश्र-योग : वैक्रिय, आहारक या कार्माण से मिला हुआ औदारिक शरीर का व्यापार। ३ वैक्रिय योग : वैक्रिय शरीर का व्यापार। ४. वैक्रिय मिश्र-योग : औदारिक या कार्मण से मिले हुए वक्रिय शरीर का व्यापार। ५. श्राहारकयोग : प्राहारक शरीर का व्यापार। ६. श्राहारक मिश्र-योग : औदारिक से मिले हुए आहारक शरीर का व्यापार। ७. कार्मरणयोग : कार्मण शरीर का व्यापार ।
इन पन्द्रह योगो मे से चार स्थावर-काय और प्रसज्ञी मनुष्य जीवो को १ औदारिक २ श्रौदारिक मिश्र और ३ कार्मरण-ये तीन योग होते है। वायुकाय को '४ वैक्रिय और ५ वैक्रियमित्र' मिलाफर पांच योग होते हैं। द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, और असज्ञी तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय । को १ व्यवहार भाषा २ औदारिक ३ प्रौदारिक मिश्र और ४ फार्मरण-ये चार योग होते हैं। संज्ञो तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियो को पौर साधुओं को छोड़कर शेष सभी मनुष्यो को, 'पाहारक और श्राहारक मिश्र' छोडकर शेष तेरह योग होते हैं। नारक और देवो को प्रौदारिक और प्रौदारिक मिश्र~ये दो योग और भी छोड कर शेष ग्यारह योग होते हैं। साधुओं मे १५ ही योग प्राप्त होते हैं ।
ग्यारहवाँ बोल : 'चौदह गुणस्थान ।'
गुरणस्थान : मोहनीयादि पाठ कर्मों के कारण आत्मा के सम्यक्त्व आदि गुणो की न्यूनाधिक शुद्धि-अशुद्धि की अवस्था ।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-ग्यारहवाँ बोल : 'चौदह गुणस्थान' [ २३१
१. मिथ्यात्व गुणस्थान : मोहनीयकर्म के तीव्र उदय से होनेवाली मिथ्यादृष्टि अवस्था ।
२. सास्वादन गुणस्थान : अविरत सम्यग्दृष्टि की अवस्था से मिथ्यादृष्टि अवस्था की ओर गिरती हुई अवस्था ।
३. मिश्र गुरणस्थान : कुछ मिथ्यादृष्टि और कुछ सम्यग्दृष्टि, -इस प्रकार मिलीजुली अवस्था । ____४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुण स्थान : चारित्र रहित सम्यग्दृष्टि अवस्था।
५. देशविरति (श्रावक) गुणस्थान : देश (=कुछ) चारित्र सहित श्रावक अवस्था ।
६. प्रमत्तसंयत (अप्रमादी साधु) गुणस्थान : सर्व (=सम्पूर्ण) चारित्र सहित, किन्तु प्रमादयुक्त, ऐसी साधु अवस्था ।
७. अप्रमत्तसयत (= अप्रमादी साधु) गुणस्थान : प्रमादरहित साधु अवस्था ।
८. निवृत्ति (=नियट्टि) बादर सम्पराय गुरणस्थान : बादर कषाय सहित ऐसी साधु अवस्था, जिसमे सम समयवर्ती सभी जीवो के अध्यवसाय विषम भी हो सकते हो।
६. अनिवृत्ति (=अनियट्रि) बादर सम्पराय गुणस्थान : बादर कषाय सहित ऐसी साधु अवस्था, जिसमे सम समयवर्ती सभी जीवो के अध्यवसाय समान ही होते हो।
१०. सूक्ष्म-सम्पराय गुरण-स्थान : सूक्ष्म लोभ सहित साधु अवस्था।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ 1 सुवोध जैन पाठमाला भाग २
११. उपशान्त-मोहनीय गुरग-स्थान : दवे हुए मोहनीय कर्म वाली साधु अवस्था।
१२ क्षीण-मोहनीय गुरण-स्थान : नष्ट हुए मोहनीय कर्म वाली साधु अवस्था।
१३ सयोगी केवली गुण-स्थान : मन वचन काया के योग भी है तथा केवल ज्ञान भी है-ऐसा घातिकर्म रहित तथा अघाति कर्म सहित साधु अवस्था ।
१४. अयोगी केवली गुण-स्थान : मन वचन काया के योगो को रोक दिये है-ऐसी केवल ज्ञान बाली, घाति कर्म रहित तथा अघाति कर्म सहित साघु अवस्था ।
एक समय मे एक जीव को एक ही गुण स्थान होता है। एकेन्द्रिय को मात्र मिथ्यात्व गुण स्थान ही होता है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था मे पूर्वमव से साय प्राया हुमा सास्वादान गुरणस्थान भी हो सकता है। नारक ,तथा देवों को पहले के चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यच्च पचेन्द्रियों को पहले के पाँच गुणस्थान होते हैं। मनुष्यों मे सभी -गुरणस्थान हो , सक्ते हैं। अभी इस युग मे मात्र सात गुणस्थान हो सकते हैं। १४ वें गुरणस्थान फे पश्चात् जीव मोक्ष में चला जाता है।
बारहवाँ बोल : 'पांच इन्द्रियों के २३ विषय और
. २४० विकार विषय : जिसको इन्द्रिय जाने । १. श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द के तीन भेद : १. जीव शब्द : जीव के मुह से निकला हुया शब्द ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्त्व-विभाग-बारहवां बोल : '५ इन्द्रिय के २३ विषय' [ २३३ २. अजीव शब्द : अजीव का शब्द, जैसे वीणा आदि का शब्द और ३ मिश्र शब्द =जीव के मुंह के द्वारा अजीव का निकला हुआ शब्द। जैसे बांसुरी आदि के शब्द। श्रोत्रेन्द्रिय के ये तीन मूल विषय। ये तीन शुभ तथा ये तीन अशुभयों श्रोत्रेन्द्रिय के उत्तर विषय १२ बारह। .
२ 'चक्षुरिन्द्रिय का विषय वर्ण है। वर्ण के पाँच भेद - १. कृष्ण (काला)२ नील (नीला) ३ रक्त (लाल) ४. पीत (पोला) और ५. श्वेत (सफेद)। चक्षुरिन्द्रिय के ये पांच मूल विषय। ये तीन सचित्त, तीन अचित्त और तीन मिश्रये पन्द्रह। ये पन्द्रह शुभ और पन्द्रह अशुभ- यो श्रोत्रेन्द्रिय के उत्तर विषय ३० तोस । -
३. घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है। गन्ध के दो भेद-१ सुरभिगन्ध (सुगन्ध) और २. दुरभिगन्ध (दुर्गन्ध)। घ्राणेन्द्रिय के ये दो मूल विषय। ये दो सचित्त, दो प्रचित और दो मिश्र-यो घ्राणेन्द्रिय के उत्तर विषय ६ छह ।
४. रसेन्द्रिय का विषय रस है। रस के पाँच भेद - १. तिक्त (=तीखा, जिसे आज कडुवा कहते हैं) २. कटु (कडुवा, जिसे आज तीखा कहते हैं) ३. कषाय (कषायला) ४. अम्ल (=खट्टा) और ५. मधुर (मीठा)। रसेन्द्रिय के पाँच मूल विषय। ये पाँच सचित्त, पाँच प्रचित्त और पाँच मिश्र-ये पन्द्रह। ये पन्द्रह शुभ और पन्द्रह अशुभ-यों रसेन्द्रिय के , उत्तर विषय ३० तीस।
५. स्पर्शेन्द्रिय का विषय स्पर्श है। स्पर्श पाठ हैं१. कर्कश (खरदरा, जैसे पैर की ऐडी) २ मृदु (कोमल, मुहॉला, जैसे गले का तालु) ३. गुरु (भारी, जैसे हड्डी) ४. लघु (हलका,
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ जैसे केश) ५. शीत (ठण्डा, जैसे कान की लोल) ६. उष्ण (गरम, जैसे हृदय) ७. स्निग्ध (चिकना, जैसे आँख की कीकी)
और ८. रूक्ष (रुखा, जैसे जीभ)। स्पर्शेन्द्रिय के आठ मूल विषय । ये पाठ सचित्त, पाठ अचित्त और पाठ मिश्र-ये २४ ॥ ये चौवीस शुभ और चौवीस अशुभ-यों स्पर्णेन्द्रिय के उत्तर । विषय ४८।
श्रोनेन्द्रिय के तीन, चक्षुरिन्द्रिय के पाँच, धारणेन्द्रिय के दो, रसेन्द्रिय के पाँच, और स्पर्शेन्द्रिय के पाठयों सब मूल विषय २३ तथा श्रोत्रेन्द्रिय के छह, चक्षरिन्द्रिय के तीस, प्रारणेन्द्रिय के छह, रसेन्द्रिय के तीस और स्पर्शेन्द्रिय के अड़तालील-यों सब उत्तर विषय १२० ।
विकार : प्रात्मा की विकृत (= अशुद्ध) अवस्था का परिणाम।
इन उक्त (कहे हए) १२० विषयों पर राग तथा १२० ही विषयों पर द्वेष-यों विकार के २४० भेद ।
ये पांच इन्द्रियों के २३ विषय पुद्गल द्रव्य में ही होते हैं। अन्य पांच द्रव्यों में नहीं। इनमें से श्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषय छोड़कर शेष वीस विषयों का ही मुख्य रूप से पुद्गलों मे व्यवहार होता है। पुद्गलों के बादर स्कन्ध में ये वीसों विषय (बीस वोल) मिल सकते हैं। किन्तु पुद्गलों के सूक्ष्म स्कघ में पहले के चार १ कर्फश, २ मृदु, ३ गुरु, ४ लघु -ये स्पर्श छोडकर शेष १६ विषय (१६ वोल) ही मिल सकते हैं । जिनमे बीसों विषय मिल सकते हैं, उन्हें रूपी अष्टस्पर्शी (आठफरसी) कहा जाता है। तथा जिनमे १६ विषय मिल सकते हैं, उन्हे रूपी चतुःस्पर्शी (धारफरसी) कहा जाता है। रूपी चतु स्पर्शी और प्ररूपी पांच द्रव्य, इन्द्रियो के विषय नहीं हैं। वे प्रात्मा और मन के विषय हैं।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-तेरहवां बोल : 'दश मिथ्यात्व'
२३५
१३ वॉ बोल : 'दश मिथ्यात्व' मिथ्यात्व : देव, गुरु, धर्म के सम्बन्ध मे सम्यक्प्रद्धा का प्रभाव।
१. जीव को अजीव श्रद्धे तो मिथ्यात्व . जीव तत्व न माने या जड से उत्पन्न माने, या स्थावर जीव न माने, तो मिथ्यात्व लगता है।
२. अजीव को जीच श्रद्धे तो मिथ्यात्व : विश्व को भगवद्रूप माने, सूर्यादि को, मूर्ति-चिनादि को भगवान माने, तो मिथ्यात्व लगता है।
_धर्म को अधर्स श्रद्धे तो मिथ्यात्व : जैन धर्म को धर्म, अर्थात् केवलो भाषित शास्त्र को सुशास्त्र न माने तो, मिथ्यात्व लगता है।
४. अधर्म को धर्म श्रद्धे तो मिथ्यात्व : अन्य धर्मों को धर्म अर्थात् अज्ञानी भाषित शास्त्र को सुशास्त्र माने, तो मिथ्यात्व लगता है।
५. साधु को असाधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व : ५ महाव्रत, ५. समिति ३ गुप्ति धारी साधु को सुसाधु न माने तो, मिथ्यात्व लगाता है।
६. असाधु को साधु श्रद्धे तो मिथ्यात्व : महावतादि रहित, स्त्री परिग्रह सहित, असाधु को साधु माने तो, मिथ्यात्व लगता है।
७ मोक्ष के मार्ग को ससार का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व : सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप को या सवर-निर्जरा को या दान शील तप भाव को ससार का मार्ग माने तो मिथ्यात्व लगता है।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुवोध जैन पाठमाला भाग-२
८. ससार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग श्रद्धे तो मिथ्यात्व : मिथ्याश्रुत, मिथ्यावृष्टि, अन्नत और बाल तप को या प्राश्रव-बन्ध को मोक्ष का मार्ग माने, तो मिथ्यात्व लगता है।
९ मुक्त को अमुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व : अरिहन्त-सिद्ध को कर्ममुक्त सुदेव न माने या मोक्ष तत्व को न माने, तो मिथ्यात्व लगता है।
१०. अमुक्त को मुक्त श्रद्धे तो मिथ्यात्व : कुदेवो को सुदेव माने, मोक्ष से पुनरागमन या अवतार माने तो, मिथ्यात्व लगता है।
पन्द्रहवाँ बोल : 'पाठ आत्मा'
आत्मा : १ ज्ञानादि पर्यायो मे सतत गमन करने वाला। २ जीव, चैतन्य, प्राणी।
१. द्रव्यात्मा : भूत, भविष्यत् वर्तमान-तीनो कालवर्ती असख्य प्रदेशी, द्रव्य रूप आत्मा।
२. कषायात्मा : क्रोध, मान, माया, लोभ रूप, 'कषाय विशिष्ट' आत्मा।
३. योगात्मा : मन, वचन, काया रूप, 'योग विशिष्ट' अात्मा।
४. उपयोगात्मा : साकार (=पाँच ज्ञान तीन अज्ञान), अनाकार (=चार दर्शन) रूप, 'उपयोग विशिष्ट' प्रात्मा।
५. ज्ञानात्मा : मतिज्ञानादि रूप; 'ज्ञान विशिष्ट' आत्मा। ६. दर्शनात्मा : चक्षुदर्शनादि रूप , 'दर्शन विशिष्ट' आत्मा।
७. चारित्रात्मा : सामायिक चारित्र आदि रूप, 'चारित्र विशिष्ट' आत्मा।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-सोलहवां बोल : 'चौवीस दण्डक' [२३७
८. वीर्य प्रात्मा : उत्थान (= कार्य करने के लिए उठ खडा होना) अादि रूप, 'वीर्य विशिष्ट आत्मा।
पहले और तीसरे गुणस्थान मे ज्ञानात्मा और चारित्रात्मा छोडकर छह प्रात्माएं, दूसरे, चौथे और पांचवें गुणस्थान मे ज्ञानात्मा मिलाकर सात प्रात्माएँ तथा छठे गुणस्थान से दशवें गुरणस्थान तक चारित्रात्मा मिलाकर पाठो ही प्रात्माएँ होती हैं। ग्यारहवें, बारहवें, और तेरहवें मे कषायात्मा छोडकर सात प्रात्माएं. चौदहवें मे योगात्मा भी छोडकर छह प्रात्माएं तथा सिद्धो मे चारित्रात्मा और वीर्यात्मा भी छोडकर शेष चार प्रात्माएँ होती हैं ।
सोलहवाँ बोल : 'चौवीस दण्डक'
दण्डक : १ व्याख्या करके समझाने के लिए विषय के बनाये गये विभाग। २. अपने किये गये कर्मों का जहाँ दण्ड भोगा जाता है, वे स्थान ।
१. सात नारक का एक दण्डक। सात नरक के नाम१ घर्मा (धम्मा), २ वंशा, ३. शैला, ४. अञ्जना, ५. रिष्टा (रिट्ठा), ६. मघा, ७. माघवती। सात नरक के गोत्र (गुणयुक्त नाम) १. रत्नप्रभा, २. शर्करा प्रभा, ३. वालुका प्रभा, ४. पक प्रभा, ५. धूम प्रभा, ६. तमःप्रभा, ७ तमः तम. प्रभा (महातमः प्रभा)।
२-११. दश भवन पतियो के दश दण्डक। दश भवन पतियो के नाम-१. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुवर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. विशाकुमार, ६. पवनकुमार, १०. स्तनितकुमार।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२३८ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
१२-१६. पांच स्थावरो के पांच दण्डक । पाँच स्थावरों के नाम-१. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेजस्काय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय ।
१७-१६. तीन विकलेन्द्रिय के तीन दण्डक। तीन विकलेन्द्रियो के नाम-१. द्वीन्द्रिय, २. त्रीन्द्रिय, ३. चतुरिन्द्रिय ।
२०. तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय का एक दण्डक। २१. मनुष्य का एक दण्डक । २२. वान व्यन्तर देवता का एक दण्डक । २३. ज्योतिषी देवता का एक दण्डक । २४. वैमानिक देवता का एक दण्डक । इस प्रकार चौवीस दण्डक हुए। (१+१०+ ५+३+१+१+१+१+१=२४)
नारक : नरकगति वाले जीव, जो अधोलोक मे 'नरक' नामक स्थान मे रहते हैं।
भवनपति : अधोलोक के भवन नामक स्थान मे रहने वाले देवता, जो सदा कुमारी के समान कातिमान और क्रीड़ा मे तल्लीन रहते है।
विकलेन्द्रिय : जिनको पाँचो इन्द्रियां पूरी न मिली हो । कही-कही एकेन्द्रिय को भी विकलेन्द्रिय माना गया है।
तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय : तिर्यञ्च गति वाले ऐसे जीव, जिन्हे पाँचो इन्द्रियां पूरी मिली हो। जैसे--मछली, पशु, पक्षी, सर्प, नोलिया।
‘सत्रहवाँ बोल : 'छह लेश्या' लेश्या : १. मन, वचन, काया रूप योग के अन्तर्गत कषायो को उभारने वाला द्रव्य विशेष २. आत्मा पर कर्मों को चिपकाने वाली।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-सत्रहवां बोल : 'छह लेश्या' [२३९
१. कृष्णलेश्या : काजल के समान काले वर्ण वाली लेश्या। कृष्णलेश्यावाला, हिंसा झूठ आदि पाँच पाश्रवो मे सदा लगा रहने वाला, मन वचन काया और पाँचो इन्द्रियो को विषयविकारो मे फंसाये रखने वाला, निर्दय होकर छह कायो की तीनपरिणाम से हिंसा करने वाला, सबका शत्रु, गुण-दोष बिचारे बिना काम करने वाला और इस भव, परभव मे लगने वाले दुष्कर्मों के फल से न डरने वाला होता है।
२. नीललेश्या : नीलमणि के समान नोले वर्ण वाली लेश्या। नीललेश्या वाला, दूसरो के गुणो को सहन न करने वाला कदाग्रही, तप-रहित, कुविचार और कुआचार वाला, पापो मे निर्लज्ज और गृद्ध, तथा सद्वोध देने पर द्वष करने वाला और झूठ बोलने वाला होता है ।
३ कापोतलेश्या : कबूतर के समान भूरे वर्ण वाली लेश्या। कापोतलेश्या वाला, विचारने, बोलने और काम करने मे बांका, बनावटी बाते आदि बनाकर अपने दोषो को ढकने वाला, द्वेषपूर्ण कठोर वचन बोलने वाला और दूसरो की उन्नति न सहने वाला होता है।
४. तेजोलेश्या : अग्नि के समान लाल वर्ण वाली लेश्या। तेजोलेश्या वाला, अभिमान, चपलता, असत्य भाषण और कौतुहल रहिन, विनय करने वाला, पाँच इन्द्रियो और तीनो योगो को वश मे रखने वाला, तपस्वी, प्रियधर्मा, दृढधर्मा, पाप से भय खाने वाला और मोक्ष चाहने वाला होता है।
५. पालेश्या : हल्दी के समान पीले वर्ण वाली लेश्या । पद्मलेश्या वाला, थोडी कषाय वाला, इन्द्रियो और योगो को वश मे रखने वाला, तपस्वी और थोडा बोलने वाला होता है।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४० ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २
६. शुक्ललेश्या : दूध के समान श्वेत वर्णवाली लेश्या। शुक्ल लेश्या वाला, शुक्ल ध्यान ध्याने वाला, प्रशातचित्त, आत्मा का दमन करने वाला और वीतराग होता है।
छहलेश्या का दृष्टान्त __ यदि जामुन वृक्ष के फल खाने की इच्छा हो, तो कृष्णलेश्या वाला वृक्ष की जड़ काट कर खाना चाहेगा। नीललेश्या वाला बडी-बडी शाखाएँ काटकर खाना चाहेगा । कापोतलेश्या वाला छोटी-छटी शाखाएँ काट कर खाना चाहेगा। तेजोलेश्या वाला फलो के गुच्छे तोडकर खाना चाहेगा। पद्मलेश्या वाला गुच्छो से फल तोड कर खाना चाहेगा। शुक्ललेश्या वाला धरती पर पडे फल खाकर ही सतोष करेगा।
इन छह लेश्यानों में पहले की तीन अशुभ व अधर्म लेश्याएँ हैं । इन लेश्यानो मे अशुभ गति का बघ पडता है और मरते समय इन लेश्याओं के आने पर जीव अशुभ गति मे जाता है। छह लेश्यानो मे पिछली तीन लेश्याएं शुभ द धर्म लेश्याएं है। इन लेश्यानो मे शुभगति का वय पडता है और मरते समय इन लेश्याप्रो के आने पर जीव शुभ गति मे जाता है ।
एकेन्द्रिय, भवनपति व वान व्यन्तर मे पहले की चार लेश्याएँ पाती हैं। विकलेन्द्रिय मे पहले की तीन पाती हैं। ज्योतिष में तेजोलेश्ण मिलती है। वैमानिक मे पिछली तीन मिलतीहैं । तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तथा मनुष्य में छहो मिलती हैं ।
बीसवाँ बोल : 'षट् (छह) द्रव्यके ३० भेद'
द्रव्य : १. भूत भविष्य वर्त्तमान-तीनो काल मे रहने रहने वाला २. गुणो और पर्यायो का आधार ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्व-विभाग-बीसवाँ बोल : '६ द्रव्य के ३० भेद' २४१
१ धर्मास्तिकाय के पांच भेद अर्थात् धर्मास्तिकाय पाँच बोलों से (= द्वारो से) जाना जाता है। १ द्रव्य से-एक द्रव्य । २. क्षेत्र से -सम्पूर्ण लोक प्रमारण। ३ काल से-प्रादि अंत रहित। ४ भाव से-- वर्ण रहित, गन्ध रहित, रस रहित और स्पर्श रहित, अर्थात् अरूपी है और असख्य प्रदेशी है। ५. गुरण से गति गुरण (लक्षण से चलन गुरण) पानी में मछली का दृष्टान्त । जैसे--गति करती हुई मछली को पानी, गति करने में सहायक है, वैसे ही गति करते हुए जीव तया पुद्गलों को, धर्मास्तिकाय गति मे सहायक है।
२. अधर्मास्तिकाय के पाँच भेद अर्थात् अधर्मास्तिकाय पाँच बोलो से ( = पाँच द्वारो से) जाना जाता है। १. द्रव्य से~-एक द्रव्य। २. क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक प्रमारण। ३. काल से -प्रादि अंत रहित। ४. भाव सेवर्ण रहित, गंध रहित, रस रहित और स्पर्श रहित अर्थात् अरूपी है और असख्य प्रदेशी है। ५ गुण से - स्थिति गुरण (लक्षण से स्थिर गुण) पथिक को छाया का दृष्टान्त। जैसे ठहरते हुए पथिक को छाया ठहरने में सहायक है, वैसे ही स्थित्ति करते हुए जीव तथा पुदलो को, अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक है।
३. आकाशास्तिकाय के पाँच भेद अर्थात् अाकाशास्तिकाय पाँच बोलो से जाना जाता है। १. द्रव्य से-एक द्रव्य । २ क्षेत्र से-लोकालोक प्रमाण । ३. काल से-प्रादि अंत रहित। ४. भाव से-वर्ण रहित, गंध रहित, रस रहित और स्पर्श रहित अर्थात् अरूपी है और अनंत प्रदेशी हैं। ५. गुरण से--(लक्षण से) स्थान देने का गुरण, भौंत मे खंटी का ट्रान्त। जैसे-भीत मे स्थान बनाती हुई
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२ ] सुबोध जन पाठमाला--भाग २ खूटी को भीत स्थान देने में सहायक है; वैसे ही धर्मास्तिकायादि पाचो द्रव्यो को, आकाशास्तिकाय स्थान देने में सहायक है।
४. काल के पाँच भेद १ द्रव्य से-अनंत द्रव्य। २. क्षेत्र से पढ़ाई द्वीप प्रमारण। ३. काल से -- आदि अंत रहित। ४. भाव से-वर्ण रहित, गंध रहित, रस रहित और स्पर्श रहित अर्थात् अरूपी है अप्रदेशी है। ५. गुरण से-वर्तना गुग (लक्षण से-नई को जूनी बनावे, जूनी को नई बनावे) कपड़े को कैची का दृष्टान्त । जैसेपरिवर्तन पाते हुए कपडे को कैची परिवर्तन मे सहायक है, वैसे ही धर्मास्तिकायादि पाँचो द्रव्यो के परिवर्तन मे, काल सहायक है । प्रदेश रहित होने से काल अस्तिकाय नही है।
५. जीवास्तिकाय के पाँच भेद अर्थात् जीवास्तिकाय पाच बोलों से जाना जाता है। १. द्रव्य से--अनंत जीव द्रव्य । २ क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक प्रमारण। ३. काल से--प्रादि अन्त रहित । ४ भाव से-वरण रहित, गंध रहित, रस रहित, और स्पर्श रहित, अर्थात् अरूपी है और अनत प्रदेशी है। ५. गुरण से-उपयोग गुरा (लक्षण से चेतना गुण)। चन्द्रमा की कला का दृष्टान्त । जैसे-आवरण के कारण चन्द्रमा न्यूनाधिक प्रकाशित होता है, वैसे ही ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय के कारण प्रात्मा का उपयोग (चेतना) गुण न्यूनाधिक प्रकट होता है ।
६. पुद्गलास्तिकाय के पाँच मेद अर्थात् पुद्गलास्तिकाय पाच वोलो से जाना जाता है ! १ द्रव्य से-अनन्त द्रव्य । २. क्षेत्र से सम्पूर्ण लोकप्रमाण ।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-इक्कीसवाँ बोल : 'दो राशि' २४३ ३. काल से-पादि अन्त रहित । ४. भाव से-वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् और स्पर्शवान् है, अर्थात् रूपी है और अनन्त प्रदेशी है। ५. गुग से-पूरण गलन गुरण (सयोग वियोग लक्षण) बादल का दृष्टान्त । जैसे-बादल मिलते-बिखरते है, उसी प्रकार पुद्गल मिलते-बिखरते हैं।
इक्कीसवाँ बोल : 'दो राशि राशि : ढेर, समूह, वर्ग, पुञ्ज १ जीव राशि और २. अजीव राशि
जीवराशि के ५६३ भेद नारक : के चौदह । सात्त के अपर्याप्त और सात के पर्यास (७४२%=१४)।
तिर्यञ्च : के अड़तालीस । जिसमे एकेन्द्रिय के बावीसपृथ्वीकाय के चार-१ सूक्ष्म पृथ्वीकाय और २ बादर पृथ्वीकाय, दो के अपर्याप्त और दो के पर्याप्त (२x२=४) । इसी प्रकार अप्काय के चार ४, तेजस्काय के चार ४ और वायुकाय के चार ४, वनस्पत्तिकाय के छह-१. सूक्ष्म २. साधारण और ३. प्रत्येक, तीन के अपर्याप्त और तीन के पर्याप्त (३४२-६) चिकलेन्द्रिय के छह-१. द्वीन्द्रिय २. त्रीन्द्रिय ३. चतुरिन्द्रिय, तीन के अपर्यास और तीन के पर्याप्त । (३४२-६)। पञ्चेन्द्रिय के बीस-१ जलचर २ स्थलचर ३ खेचर ४. उर. परिसर्प और ५. भुज परिसर्प, पांच के सज्ञी और पाँच के असज्ञी दश (५४२-१०)-दश के अपर्याप्त और दश के पर्याप्त, वीस (१०४२-२०) ये तिर्यञ्च के अडतालीस (२२+६+२०=४८)।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
एक करण दो योग के नव भंग
जैसे '१२' मे पहला अड एक है और उसके पीछे दो का अङ्क जुडा है, वैसे ही पहले एक एक करण लेकर उसके पीछे दोदो योग जोडने से ६ भग बनते हैं। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं; मन से, वचन से; २ करूँगा नहीं, मन से, काया से; ३. करूँगा नही, वचन से, काया से। ४. कराऊँगा नहीं; मन से, वचन से;: ५. कराऊँगा नहीं; मन से, काया से, ६. कराऊंगा नहीं; वचन से, काया से। ७. अनुमोदूंगा नही; मन से, वचन से; ८ अनुमोदूंगा नहीं; मन से, काया से; ६. अनुमोदूंगा नहीं, वचन से, काया से ।
एक करण तीन योग के तीन भंग
जैसे १३' मे पहला अडु एक है और उसके पीछे तीन का अङ्क जुडा है, वैसे ही पहले एक-एक करण लेकर उसके पीछे तीन-तीन योग जोड़ने से ३ भग बनते है। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं; मनसे, वचनसे, काया से । २. कराऊँगा नहीं; मन से, वचन से, काया से । ३. अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से।
दो करण एक योग के नव भंग
जैसे २१ मे पहला अड, दो है और उसके पीछे एक का अक जुडा है; वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे एकएक योग जोड़ने से ६ भग बनते है। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा नही; मन से; २. करूँगा नहीं, कराऊँगानहीं, वचन से; ३ करूँगा नहीं, कराऊंगा नहीं; कायासे।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-चौबीसा बोल : 'करण-योग के ४६ भग' [ २४७
४. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से; ५ करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से; ६. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; काया से। ७. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं, मन से, ८ कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, ६. कराऊँगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं; काया से ।
दो करण दो योग के नव भग -
जैसे '२२' मे पहला अक दो है और उसके पीछे भी दो का ही अक जुड़ा है, वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे भी दो-दो योग जोड़ने से ६ भग बनते हैं। वे इस प्रकार से हैं--
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा । ; मन से, वचन से; २. करूंगा नहीं, कराऊँगा नहीं, मन से, काया से; ३. करूँगा नही, कराऊँगा नहीं, वचन से, काया से। ४. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नही; मन से, वचन से; ५. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, काया से; ६. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, काया से । ७. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से; ८. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, काया से; ६. कराऊँगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, काया से।
दो करण तीन योग के तीन भंग
जैसे '२३' मे पहला अक दो है और उसके पीछे तीन का अक जुडा है, वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे तीनतीन योग जोड़ने से ३ भग बनते है। वे इस प्रकार है
१. करूँगा नहीं, कराऊंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से; २. करूँगा नहीं, अनुमोदंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से; ३. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से ।
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
सुवोध जैन पाठमाला--भाग २
.
मनुष्य : के तीन सौ तीन । पन्द्रह कर्म भूमि, तीस अकर्म भूमि और छप्पन अन्तर्वीप, ये एक सौ एक (१५+३०+ ५६=१०१) । एक सौ एक गर्भज मनुष्य के अपर्याप्त और पर्याप्त, ये दो सौ दो हुए (१०१-२-२०२) और एक सौ एक समूच्छिम मनुष्य के अपर्याप्त, ये तीन सौ तीन (२०२+१०१ = ३०३)।
देवताओं : के एक सौ प्रदानवे। दश भवनपति, पन्द्रह परमाधार्मिक, सोलह वान-व्यन्तर, दश त्रिज़म्भक, दश ज्योतिषी, तीन किल्विषी, बारह देवलोक, नव लोकान्तिक, नव अवेयक और पाँच अनुत्तर विमान-ये निन्यानवे, (१०+१+१+१० +१०+३+१२+8+8+५=६९) इनके अपर्याप्त और पर्याप्त-ये सब एक सौ अट्ठानवे (९६+६६-१९८)।
अजीवराशि के ५६० भेद अरूपी अजीव के तीस भेद-धर्मास्तिकाय के तीन भेद १ स्कध, २. स्कध देश, ३. स्कध प्रदेश। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के तीन-तीन भेदये नव तथा दशवाँ काल। -(३+३+१=१०).। ,एव धर्मास्तिकाय के पाँच भेद - १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल, ४ भाव और ५. गुरग। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के पाँच, श्राकाशास्तिकाय के पांच और काल के पाँच-यो बीस भेद और हुए (५४४-२०)। इस प्रकार सब तीस भेद (१०+२०=३०) रूपी अजीव के पांच सौ तीस भेद-वर्ण के पॉच --१. काला, २. नीला, ३ लाल, ४. पीला और ५. सफेद। एक-एक के वीस-बीस भेद, यो वर्ण के सौ भेद हुए (५४२० = १००) गन्ध के दो-१ सुरभिगन्ध और २ दुरभिगन्ध । एक-एक के
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-चौबीसवां बोल : 'करण-योग के ४६ भंग' [ २४५ तेवीस-तेवीस भेद, यो गन्ध के छयालीस भेद हुए (२x२३ -- ४६) । रस के पाँच-१. तीखा, २. कडवा, ३ कषेला, ४. खट्टा, ५ मीठा। एक-एक के बीस-बीस भेद-यो रस के सौ भेद हुए (५४२०% १००)। स्पर्श के आठ-१ खरदरा, २ सुहाला, ३. भारी, ४. हल्का, ५ शीत, ६. उष्ण, · चिकना, ८. रूखा। एक-एक के तेवीस-तेवीस भेद-यो स्पर्श के एक सौ चौरासी भेद हुए (८४२३= १८४)। सस्थान के छह-१. परिमण्डल (चूडी या गेद के समान खाली गोल), २. वृत्त (थाली या लड्डू के समान भरा हुआ गोल) ३. व्यस (तिकोना), ४ चतुरस्र (चौकोन), ५. प्रायत (लम्बा)। एक-एक के बीस-बीस भेद-यो सस्थान के सौ भेद हुए (५४२० = १००) ।
२४ वाँ बोल : 'करण-योग के ४६ भंग' भग-विकल्प, भेद, प्रकार । एक करण एक योग के नव भंग
जैसे '११' मे पहला अङ्क एक है और उसके पीछे भी एक का ही अङ्क जुडा है, वैसे ही पहले एक-एक करण लेकर उसके पीछे भी एक-एक योग जोडने से ६ भग' बनते हैं। वे इस प्रकार हैं
१. करूंगा नहीं, मन से; २. करूँगा नही, वचन से; ३. करूँगा नहीं, काया से। ४. कराऊँगा नहीं, मन से, ५. कराऊँगा' नही, वचन से; ६. कराऊँगा नहीं, काया से। ७. अनुमोदूंगा नहीं, मन से; ८ अनुमोदूंगा नहीं, वचन से; ६. अनुमोदूंगा नहीं, काया से ।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
एक करण दो योग के नव भंग
जैसे '१२' मे पहला अडू एक है और उसके पीछे दो का अङ्क जुडा है, वैसे ही पहले एक एक करण लेकर उसके पीछे दोदो योग जोड़ने से ह भग बनते हैं। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं; मन से, वचन से; २ करूँगा नहीं; मन से, काया से; ३. करूँगा नहीं, वचन से, काया से। ४. कराऊँगा नहीं; मन से, वचन से; ५. कराऊँगा नहीं; मन से, काया से; ६. कराऊँगा नही; वचन से, काया से। ७. अनुमोदूंगा नही; मन से, वचन से; ८. अनुमोदंगा नहीं; मन से, काया से; ६. अनुमोदूंगा नहीं, वचन से, काया से ।
एक करण तीन योग के तीन भंग
जैसे'१३' मे पहला अडु एक है और उसके पीछे तीन का अङ्क जुड़ा है, वैसे ही पहले एक-एक करण लेकर उसके पीछे तीन-तीन योग जोडने से ३ भग बनते हैं। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं; मनसे, वचनसे, काया से । २. कराऊँगा नहों; मन से, वचन से, काया से । ३. अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से।
दो करण एक योग के नव भंग
जैसे २१ मे पहला अङ्क दो है और उसके पीछे एक का अक जुड़ा है वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे एकएक योग जोड़ने से ६ भग बनते है। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं; मन से; २. करूँगा नहीं, कराऊँगानहीं; वचन से; ३ करूँगा नहीं, कराऊंगा नहीं; काया से।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-- चौबीसवां बोल : 'कररण-योग के ४६ भग' [ २४७
४. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से; ५ करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से; ६. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; काया से 1 ७. कराऊँगा नहीं, प्रमोदूंगा नहीं, मन से, ८ कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, ६. कराऊँगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं, काया से ।
दो करण दो योग के नव भग
।
जैसे '२२ ' में पहला क दो है और उसके पीछे भी दो का ही क जुडा है; वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे भी दो-दो योग जोड़ने से ६ भग बनते हैं । वे इस प्रकार से है१. करूँगा नहीं, कराऊँगा ; मन से, वचन से; २. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं; मन से, काया से; ३. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं; वचन से, काया से । ४. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से; ५. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, काया से; ६. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, काया से । ७. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से, ८. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं, मन से, काया से; ६. कराऊँगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, काया से ।
->>
दो कररण तीन योग के तीन भंग -
जैसे ‘२३' मे पहला श्रक दो है और उसके पीछे तीन का क जुडा है, वैसे ही पहले दो-दो करण लेकर उसके पीछे तीनतीन योग जोडने से ३ भाग बनते हैं। वे इस प्रकार हैं
१. करूँगा नहीं, कराऊंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से, २. करूँगा नहीं, अनुमोदूंगा नही; मन से, वचन से, काया से; ३. कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, वचन से, काया से ।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८ ]
सुवोध जन पाठमाला--भाग २
तीन करण एक योग के तीन भंग
जैसे '३१ मे पहला अक तीन है और उसके पीछे एक का अक जुडा है, वैसे ही पहले तीन-तीन करण लेकर उसके पीछे एक-एक योग जोडने से ३ भग बनते है। वे इस प्रकार है
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदंगा नही, मन से, २. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं, वचन से; ३. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं, काया से ।
तीन करग दो योग के तीन भंग
जैसे ३२ मे पहला तीन का अक है और उसके पोछे दो का अक जुड़ा है। वैसे ही पहले तीन करण लेकर पीछे दो योग जोडने से ३ भंग बनते है वे इस प्रकार है
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदंगा नहीं; मन से, वचन से, २. करूंगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन से, काया से, ३ करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं; अनुमोदूंगा नहीं; वचन से, काया से।
तीन करण तीन योग का एक भंग
जैसे ३३ मे पहले तीन का अक है और उसके पीछे भी तीन का ही अक जुडा है, वैसे ही पहले तीन करण लेकर पीछे तीन योग जोडने से १ भग बनता है। वह इस प्रकार है
१. करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं; मन मे, वचन से, काया से।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-पच्चीसवाँ बोल : 'पाँच चारित्र' [२४६
एक करण एक योग से भंग ६, एक करण दो योग से भग ६, एक करण तीन योग से भंग तीन, दो करण एक योग से भग ९, वो करण दो योग से भंग ९, दो करण तीन योग से भंग ३, तीन करण एक योग से भंग ३, तीन करण दो योग से भग तीन, तीन करण तीन योग से भग १-यों सब भग ४६ हुए। (E+६+३+ &+8+३+३+३+१%=४६)
यत्र
سے اس
किर
Mor Mu
योग
mr wr
mm man
| २ | ३ | १२३
ا س
२५ वाँ बोल : 'पाँच चारित्र' चारित्र-१. चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाला विरति परिणाम २ सम्पूर्ण सावद्ययोगो का (= अट्ठारह पापो का) प्रत्याख्यान ३. जिससे कर्म आते रुके ४ कही-कहीं जिससे सचित कर्मों का क्षय हो, उसे भी चारित्र माना गया है।
१. सामायिक चारित्र चार महानत (१ सर्व प्राणातिपात विरमण २ सर्व मृषावाद विरमण ३ सर्व अदत्तादान विरमरण ४ सर्व बहिद्धा-दान विरमण) वाला चारित्र ।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र-जिसमे पहले की चार महाव्रत वाली दीक्षा पर्याय छेदकर (काट कर) पाँच महावत वाली दीक्षा दी जाती है, ऐसर चारित्र ।
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
३ परिहार विशुद्ध चारित्र-जिसमे परिहार नामक तप करके आत्मा को विशेष शुद्ध बनाई जाती है, ऐसा चारित्र ।
४. सूक्ष्म संपराय चारित्र-जहाँ केवल सूक्ष्म लोभ ही उदय मे रहता है, ऐसे दशवे गुणस्थान में होने वाला चारित्र।
५. यथा-ख्यात चारित्र-जहाँ मोहनीय कर्म उपशात या क्षीण हो जाता है, ऐसे ग्यारहवे से १४ वे गुणस्थान , . तक मे होने वाला चारित्र ।
अर्थ, भावार्थ और प्रासंगिक टिप्परण सहित
पच्चीस बोल का स्तोक समाप्त
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
* रणमो गारणस्त #
५ समिति ३ गुप्ति का स्तोक (थोकड़ा) सार्थ
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २४ चौबीसव अध्ययन मे पाँच समिति-तीन गुप्ति का अधिकार चला है। उस प्राधार से पांच समिति-तीन गुप्ति का स्तोक कहते हैं।
__ पांच समिति के नाम-१. ईर्या समिति २. भाषा समिति ३. एषणा समिति ४. आदान-भाण्ड मात्र-निक्षेपणा समिति, ५. उच्चार-प्रश्रवण, खेल-सिंघारण-जल-परिस्थापनिका । समिति ।
तीन गुप्ति के नाम-१. मनो गुप्ति, २. वचन गुप्ति, ३. काय गुप्ति ।
___ इन पांच समिति-तीन गुप्सि को 'प्रवचन माता' बताई गई है। क्योकि इन के पालन के उपदेश के लिए ही 'द्वादशागी वाणी' (या 'चौदह पूर्व') तीर्थंकरो ने प्रकट की है।
कही पांच समिति-तीन गुप्ति को 'द्वादशांगी वाणी' (या चौदह पूर्वो) का सार वताया गया है। क्योकि द्वादशाग (या चौदह पूर्वो के ज्ञान का फल यही है कि 'जीव' पाँच समिति-तीन गुप्ति का पूर्णतया सम्यक् पालन करे।
भूतकाल मे अनन्त भव्य जीव द्वादशागी मे से केवल पांच समिति-तीत गुप्ति ही जानकर तथा उसकी पूर्णतया सम्यक् पालना
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ करके मोक्ष चले गये हैं और भविष्य काल मे भी इसी प्रकार अनन्त जीव मोक्ष मे चले जायेगे।
इसलिए भव्य जीवो को 'पाँच समिति-तीन गुप्ति' के स्वरूप प्रादि को भली भाँति अवश्य जानना चाहिए और उसकी पूर्णतया सम्यक अाराधना करनी चाहिए।
अथ समिति का स्वरूप
समिति : विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना अर्थात् प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए, आत्मा के उत्तम परिणामो से मन वचन काया की सम्यक् प्रवृत्ति करना।
'समिति मे सम्यक् प्रवृत्ति करना, मुख्य माना है।' अतएव 'समिति' की यह परिभाषा की है। अन्यथा मन, वचन, काया को असम्यक् प्रवृत्ति रोकना और कायोत्सर्ग, मौन, उपवास आदि के द्वारा 'सम्यक्-मिथ्या' दोनो प्रवृत्तियाँ रोकना भी 'समिति' है।
अथ पहली ईर्यासमिति का स्वरूप ईर्या समिति : विवेकपूर्वक चलना अर्थात् 'किसी जीव की विराधना न हो, इसका उपयोग रख कर चलना।
ईर्या समिति के चार कारण हैं-१. प्रालंबन २. काल ३. मार्ग और ४. यतना।
१ आलंबन से-१. ज्ञान २. दर्शन और ३. चारित्र के लिये चले। अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा के लिए पुष्टि के लिए और वृद्धि के लिए ही चले, किन्तु अकारण या
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २५३ इनसे भिन्न पर्यटन, इन्द्रियपोषण आदि किसी भी प्रयोजन के लिए एक पैर भी ऊपर न उठावे ।
___ २ काल से रात्रि को वर्जकर दिन को चले। ईर्या समिति का काल तीर्थंकरो ने दिन का ही, इसलिए बताया है कि दिन मे प्रकाश के कारण जीवो को देखते हुए और उनकी रक्षा करते हुए चलना सम्भव है। रात्रि को अन्धकार के कारण जीवो का दीखना और उनकी रक्षा करना सम्भव नही, इसलिए तीर्थंकरो ने रात्रि को चलने का निषेध किया है। उच्चार-प्रश्रवण आदि परटुवना हो, शय्यातर (स्थानदाता) ने स्थान छोड देने के लिए कहा हो,या शीलभंग का भय, आदि हो, तो इन अत्यन्त आवश्यक प्रयोजनो से रात्रि मे भी मर्यादित गमन किया जा सकता है।
३. मार्ग से उत्पथ को छोड़कर सुपथ मे चले। ईर्या समिति का मार्ग तीर्थंकरो ने सुपथ ही इसलिए बताया है कि सुपथ मे पृथ्वीकाय (=मिट्टी) प्राय अचित्त (=निर्जीव) रहती है, वनरपतिकाय और त्रसकाय का प्राय अभाव रहता है, जिससे १. सयम विराधना नहीं होती तथा सुपथ मे काँटे, कॅकर, पत्थर नहीं होते, जिससे २ आत्मविराधना (अपने शरीर की विराधना) भी नही होती। उत्पथ मे १. सयम विराधना और २ आत्म विराधना दोनो की सम्भावना रहती है, अतः तीर्थकरो ने उत्पथ में चलने का निषेध किया है।
यतना से चार प्रकार की यतना से चले। १. द्रव्य यतना में-प्रांखो से छह काय के जीव तथा कांटे प्रादि अजीव पदार्थों को देखकर चले। २ क्षेत्र यतना में शरीर प्रमाण (या युग प्रमारण, धूसरा प्रमारण) अर्थात् चार हाथ प्रमारण आगे की भूमि देखता हुआ चले। ३. कालयतना में जब तक गमनागमन करे
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४ 1 सुवोध जन पाठमाला-भाग २ तब तक । ४ भाव यतना मे-इन्द्रियों के पाँच विषय-१ शब्द, २. रूप, ३ गंध, ४. रस, ५. स्पर्श तथा स्वाध्याय के पाँच भेद-१. वाचना, २ पृच्छना, ३ परिवर्तना, ४ अनुप्रेक्षा, ५. धर्मकथा, इन दश बोलों को वर्जकर उपयोग सहित चले अर्थात् शब्दश्रवण, वाचनाग्रहण आदि न करता हुआ चले।
ये दश ही वोल ईर्या समिति का उपघात (=नाश) करने वाले है, इसलिए तीर्थंकरो ने ईर्या समिति में इनका निपेध किया है। ईर्या समिति मे साधू श्रावक को तन्मूति (तम्मुत्ति) और तत्पुरस्कार (तप्पुरवकारे) होकर चलना चाहिए अर्थात् अपनी काया और मन के उपयोग को ईर्या मे ही लगाते हुए चलना चाहिये।
दूसरी भाषा समिति का स्वरूप भाषा समिति : विवेकपूर्वक बोलना अर्थात् 'किसी जीव की विराधना न हो तथा असत्य या मिश्र भाषा का दोष न लगे', इसका उपयोग रखकर बोलना।
भाषा समिति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल और ४. भाव।
१. द्रव्य से-असत्य और मिश्र भाषा सर्वथा न बोले । तथा सत्य और व्यवहार भाषा भी १. सावध (पाप सहित), २. सक्रिय (और क्रिया सहित, जैसे-) ३. कर्कश (कोमलता रहित), ४. कठोर (स्नेह रहित), ५. निश्चयात्मक (सन्देहयुक्त विषय मे तथा निश्चययुक्त विषय में सन्देहात्मक), ६. छेद करी (छिद्र डालने वाली) ७. भेदकरी (भेद डालने वाली)
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्व विभाग - 'पाँच समिति तीन गुप्ति का स्तोक'
[ २५५
तथा ८. क्लेशकरी ( वचन - युद्ध तथा मानसिक खेद पैदा करने वाली) इन आठ प्रकार को न बोले
२. क्षेत्र से - मार्ग मे चलता हुआ न बोले । 'मार्ग में चलते हुए बोलने से ईर्यासमिति पूर्वक (नीचे जीव प्रजीव देखकर ) चलने मे सम्यक् उपयोग नहीं रहता।' इसलिए तीर्थंकरो ने मार्ग मे चलते हुए बोलने का निषेध किया है ।
-
३. काल से एक प्रहर रात्रि हो जाने के बाद सूर्योदय तक ऊँचे स्वर से (जोर से ) न बोले । ऊँचे स्वर से बोलने से दूसरो की निद्रा मे बाधा पडती है तथा ऊंचे स्वर से कुछ लोग प्रात कालादि मे शीघ्र जागृत होकर जीव हिंसादि अट्ठारह पापो मे लग जाते है । इसलिए तीर्थंकरो ने एक प्रहर रात्रि हो जाने के बाद सूर्योदय तक ऊँचे स्वर से बोलने का निषेध किया है ।
४. भाव से - १ क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. हास्य, ६. भय, ७: मौखर्य (= वाचालता) और ८. विकथा ( = स्त्रीकथां श्रादि) इन आठ बोलों को वर्जकर राग-द्वेष रहित तथा उपयोग सहित भाषा बोले । क्योकि क्रोध आदि मे ना जाने पर जीव सत्य और व्यवहार भाषा का ध्यान नही रख पाता तथा असत्य और मिश्र भाषा बोल जाता है - जैसे १. क्रोध मे पिता पुत्र को कह देता है कि 'तूं' मेरा पुत्र नही है' । २. मान मे गुणहीन मनुष्य भी कह देता है कि 'गुणो मे मेरी समता करने वाला कोई नही है ।' ३. माया मे पुरुष, अपरिचित स्थान पर अपने पुत्रादिको के विषय मे कह देता है कि 'न तो मेरा यह पुत्र है और न मै इसका पिता हूँ । बरिकादि, पराई वस्तु को भी अपनी कह देते है ।
४. लोभ में
५. हास्य में
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६ 1 सुबोध जैन पाठमाला भाग-२ मनुष्य, मूर्ख को भी पण्डित कह देता है। ६ भय में, मनुष्य अकार्य करके भी कह देता है कि-'मैंने वह अकार्य नही किया।' ७. मौखर्य मे मनुष्ये, सत्पुरुषो की भी निन्दा कर देता है। ८. विकथा मे मनुष्य, कुरूप स्त्री को भी अद्वितीय सुन्दरी कह देता है। इसलिए तीर्थंकरो ने भाषा समिति मे इन क्रोधादि आठ वोलो का निषेध किया है।
तीसरी एषणा समिति का स्वरूप एषरणा समिति : विवेकपूर्वक आहार लाना तथा करना अर्थात् किसी जीव की विराधना न हो और आधा-कर्म प्रादि ४७ दोषो मे कोई दोष न लगे, इसका उपयोग रखकर आहार लाना तथा करना।
एषरणा समिति के चार भेद-१ द्रव्य २ क्षेत्र ३ काल और ४ भाव। १ द्रव्य से-उद्गम के सोलह दोष, उत्पादन के सोलह दोष और एषणा के दस दोष, यो बयालीस (१६+ १६+१० = ४२) दोषो को टालकर १. आहार २. उपधि (वस्त्र) :. शय्या (वसति) और ४. पात्र प्रादि की गवेषणा करें। २. क्षेत्र से-दो कोस के उपरान्त ले जाकर (या लाया हुआ) प्रशनादि न भोगे । ३. काल से प्रथम प्रहर मे लाया हुआ प्रशनादि चौथे प्रहर मे न भोगे। अाहार को अधिक क्षेत्र तक तथा अधिक काल तक अपने पास रखने से और भोगने से साधु मे १ आहार के प्रति परिग्रह वृत्ति और २ देह के प्रति ममता वढती है तथा आहार को अधिक क्षेत्र तक ले जाने मे और अधिक काल तक रक्षण करने मे ३ ज्ञान दर्शन चारित्र की पाराधना में मन्दता आती है। इत्यादि कारणो से तीर्थकरो ने आहार को दो कोस उपरात ले जाकर तथा
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग- पाँच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [२५७ प्रथम प्रहर का चौथे प्रहर तक रख कर भोगने का निषेध किया है। ४ भाव से-मण्डल के (=परिभोग के) ५. पाँच दोष वर्जकर, राग द्वेष रहित तथा उपयोग सहित अशनादि
भोगे।
पाहार के सैंतालीस ४७ दोष और उनको परिभाषाएँ
उद्गम के १६ सोलह दोष की मूल गाथाएँ पाहाकम्मु-देसिय२, पूइकम्मे य मीसजाए य। उवरणार पाहुडियाए, पामोअर' कोय' पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए१० अभिहडे', उब्भिन्ने१२ मालोहडे'3 इ य । अच्छिज्जे १४ अनिसि? १५, अझोयरए१६ य सोलसमे ॥२॥ आधाकर्म' प्रौद्देशिकर, पूतिकर्म मिश्रजात च । स्थापना' प्राभृत्तिका, प्रादुष्करण", क्रीत प्रामृत्य ॥१॥ परिवर्तित' अभिहत'', उद्भिन्न २ मालापहृत च । प्राच्छिद्य४ अनिसृष्ट५ अध्यवपूरक १६ सोलहवाँ ।।२।।
उद्गम दोष : साधु आहार आदि ग्रहण करे, उससे पहले ही, मुख्यतया गृहस्थ की ओर से साधु के लिए अग्रहार बनाने देने में लगने वाले दोष ।
१. श्राहाकम्म (प्राधाकर्म) • जो आहार ग्रादि ले रहा है, उस साधु द्वारा अपने लिए बनाया हुअा अाहार आदि लेना (और भोगना)।
२. उद्देसिय (ौशिक) : अन्य साधु के लिए बनाया हुमा आहारादि लेना।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८ ]
सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
३. पूइकम्मे (पूतिकर्म) : शुद्ध आहारादि मे सहर घर के अन्तर से भी'आधाकर्मी अशुद्ध आहारादि का अश मात्र भी मिला दिया हो, उसे लेना।
४. मीसजाए (मिश्रजात) : गृहस्थ के लिए और (साधु के लिए) सम्मिलित बनाया हुआ आहारादि लेना।
'आघाकर्म' आदि इन चारो आहार में साधु के लिए प्रारम्भ होता है, इसलिए ये चारो आहार आदि सदोष हैं।
५. ठवरणा (स्थापना): साधु के लिए रवखा हुआ (बालक, भिखारी आदि के मागने पर भी जो उन्हें न दिया जाय, वैसा) आहारादि लेना।
इस ‘स्थापित' आहार से वालक आदि को अन्तराय पडती है, इसलिए यह आहार सदोष है।
६. पाहुडिया (प्राभृतिका) : 'साधुओं को भी जीमनवार का आहारादि दान में दिया जा सके', इसलिए गृहस्थ ने जिस जीमनवार को समय से पहले या पीछे किया हो, उस जीमनवार का आहारादि लेना।
इस आहार की निष्पत्ति में साधु भी निमित्त बना, इसलिए यह आहार सदोप है।
७. पानोपर (प्रादुष्करण) : अयतना से कपाट आदि खोलकर या दीपक आदि जलाकर प्रकाश करके दिया जाता हुआ आहार आदि लेना।
अयतना तथा अग्निविराधना आदि के कारण यह आहार सदोष है।
८. कीय (क्रीत): साधु के लिए खरीदा हुमा आहार आदि लेना।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक [ २५६
६. पामिच्चे (प्रामृत्य) : साधु के लिए उधार लिया हुआ आहार आदि लेना।
१०. परियट्टिए (परिवर्तित): साधु के लिए (कोई वस्तु देकर उसके ) बदले मे लिया हुआ आहार आदि लेना।
'कीतादि' इन तीनो आहारो को लेने से भविष्य मे उस दाता की तथा अन्य दाता की दान भावना मन्द पड़ सकती है और साधू की लालसर तीव्र हो सकती है, इसलिए ये तीनों आहार सदोष हैं।
११. अभिहडे (अभिहत): साधु के लिए तीन घर से अधिक अतर से (दूरी से) सामने लाया हुअर आहार नादि लेना।
"पाहार कहाँ से लाया जा रहा है ?' यदि यह दिखाई न देता हो, तो तीन घर की दूरी से भी आहार लेना वयं है।
'इस अभिहत' आहार मे भो अनन्तर उक्त दोष सभव है तथा 'साधु के लिए गृहस्थ-मार्ग मे अयतना से चले' यह दोष भी सभव है; अतः यह आहार सदोष है ।
१२. उन्भिन्ने (उद्धिन्न) : लेपन ढक्कन आदि अयत्तना से खोल कर दिया हया (या पोछे जिसका लेपन ढक्कन आदि अयतना से लगाया जाय, वैसा) आहार आदि लेना।
पृथ्वीकाय आदि की विराधना के कारण, यह अाहार सदोष है।
१३. मालोहडे (मालापहृत): ऊँचे माले आदि विषम स्थान से कठिनता से निकाला हा आहार आदि लेना।
ऐसा 'मालापहृत' आहार देता हुआ दाता कभी गिर कर
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ अपग हो सकता है, तथा उसके गिरने से त्रस-स्थावर जीवो की विराधना हो सकती है; अतः यह आहार सदोष है ।
१४. अच्छिज्जे (आच्छेद्य) : साधु के लिए निर्बल से छीना हुमा आहार आदि लेना।
निर्बल को दुःख पहुँचने के कारण यह आहार सदोष है।
१५. परिणसिट्ठे (अनिःसृष्ठ) : जिस आहार आदि के अनेक स्वामी हो, उसके अन्य स्वामियो की स्वीकृति न हुई हो, या उसका बंटवारा न हुमा हो, ऐसी दशा मे उस आहार आदि को लेना।
अन्य स्वामियो की चोरी के कारण यह पाहार सदोष है।
१६. अझोयरए (अध्यवपूरक) : पहले बनते हुए जिस आहारादि मे, साधुओ के लिए नई सामग्री मिलाई हो (ऊरी हो), वैसा आहार आदि लेना।
यह 'अध्यवपूरक' आहार भी आधाकर्मादि के समान प्रारभ वाला होने से सदोष है।
उत्पादना के १६ सोलह दोष की मूल गाथाएँ धाई दुई निमित्ते आजीव वरणीमगे५ तिगिच्छाय। - कोहे" मारणे माया, लोभे१० य हवंति दस एए॥ पुच्विं-पच्छा-संथव११, विल्ला१२ मंत'३ चण्ण'४ जोगे'५ य । उप्पायरणाई दोसा, सोलसमे मूलकम्मे१६ य॥ धात्री' दूति२ निमित्त, आजीव वनीपक चिकित्सा च । क्रोध' मान,८ माया, , लोभ'' ये सब हुए दश ॥१॥ पहले पीछे सस्तव'१, विद्या मत्र १३ चूर्ण१४ योग१५ च । सोलहवा मूलकर्म१६ ये सब है उत्पादना दोष ।।२।।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग--'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २६१
उत्पादना दोष : आहार आदि ग्रहण करते समय मुख्यतया साधु की ओर से साधु को लगने वाले दोष।
१. धाई (धात्री) : धाय का काम करके अर्थात् बच्चो को खिलाने पिलाने आदि का काम करके आहार आदि लेना।
२. दूई (दूति) : दूति का काम करने अर्थात् सन्देश को पहुँचाने-लाने का काम करके आहार आदि लेना।
धाय आदि काम करने से १. साधु के भिक्षुकपन मे और २ साधुत्व मे कमी आती है तथा ३. उतने समय तक ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना मे बाधा पडती है, अत ये दोनो आहार सदोष है।
३. निमित्ते (निमित्त) : बाह्य निमित्तो से १ भूत २. भविष्य ३. वर्तमान काल के १ लाभ २. अलाभ ३ सुख ४. दुख ५ जीवन ६ मरण को बतलाकर या निमित्त सिखलाकर आहार आदि लेना।
लाभादि बता कर आहार लेने मे १ भिक्षुकपन मे कमी आती है, २ ससार प्रवृत्ति बढती है, ३ जीव विराधना सभव है और ४ बताया हुआ निमित्त मिथ्या होने पर गृहस्थ को रोषादि सभव है, इसलिए यह आहार सदोष है।
४. प्राजीव : अपने जाति कुल सम्बन्ध आदि को प्रकट करके आहार आदि लेना।
इसमे भी भिक्षुकपन मे कमी आती है ।
५ वरणीमगे (वनीपक): रक-भिखारी के समान काया से दीनता प्रकट करके, वचन से दीन भाषा बोल कर तथा मन मे दीनता लाकर आहार आदि लेना।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀
सुबोध जैन पाठमाला
साधु 'भिक्षु' अवश्य है, पर 'दीन' नही ।
२६२ ]
करके आहार लेना दोष है ।
-भाग २
――
श्रत दीनता
६. तिगिच्छे ( चिकित्सा ) चिकित्सा करके आहार आदि लेना ।
चिकित्सा करने से भी ९ भिक्षुकपन मे कमी आती है २ जीव विराधना सभव है तथा ३. नीरोग न होने पर गृहस्थ को शेष सभव है, अतः यह आहार सदोष है ।
७ कोहे (क्रोध) : क्रोध करके गृहस्थ को शाप आदि का भय दिखला कर आहार लेना ।
८. मारणे (मान) : मान करके गृहस्थ को अपनी लब्धि आदि दिखला कर, आहार आदि लेना ।
६. माया : कपट करके अन्य रूप वेश आदि दिखलाकर आहार आदि लेना ।
१० लोहे (लोभ) : लोभ करके मर्यादा से अधिक तथा श्रेष्ठ आहार आदि लेना ।
कषाय करके श्राहार लेने के कारण, ये चारो प्रहार सदोष हैं ।
११. पुव्विं पच्छा - संथव ( पूर्व पश्चात् संस्तव) : अधिक प्रहार प्राप्ति के लिए दाता को दान से पहले या पीछे भाट के
समान प्रशसा करना ।
इससे भिक्षुकपन मे कभी श्राने से, यह ग्राहार सदोष है ।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व विभाग-'पाँच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [२६३
१२ विज्जा (विद्या): जिसको अधिष्ठात्री देवी हो, या जो साधना से सिद्ध हो, उपका प्रयोग करके या उसे सिखला करके आहार आदि लेना।
१३. मते (मन्त्र) : जिसका अविष्ठाता देव हो या जो बिना साधना अक्षर विन्यास मात्र से मिद्ध हो, उसका प्रयोग करके या उसे सिखला करके आहार आदि लेना।
१४ चुगरण (चूर्ण) : अदृश्य होना, मोहित करना, स्तभिन करना आदि बातें जिससे हो सके, ऐसे अञ्जनादि का प्रयोग करके या सिखला करके आहार आदि लेना ।
१५ जोग (योग) : जिसका लेप करने पर, आकाश में उडना, जल पर चलना, आदि बाते हो सके, ऐसे पदार्थ का प्रयोग करके या सिखला कर के आहार आदि लेना।
१६. मूलकम्मे (मूलकर्म) : गर्भ स्तभन, गर्भाधान, गर्भपात आदि बाते जिससे हो सके, ऐसी जडी बूटी, या सामान्य जडी बूंटी दिखला करके आहार आदि लेना।
इन 'विद्या' आदि पाचो मे भी निमित्त के समान दोष सभव होने से, ये पाचो आहार भी सदोष है ।
__ एषणा के १० दश दोष की गाथा संकिय ' मविखय निदखत्त, पिहिय साहरिय५६दायगुम्मीसे ॥ अपरिरणय लित्त छड़िय,१० एसरण दोसा दस हवंति ॥१॥ शकित' म्रक्षित निक्षिप्त3, पिहित सहत' दायको मिश्रा। अपरिगत लिप्त छदित१० दश है एपणा दोष ॥१॥
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ ] सुबोध जैन पाठमाला भाग २
एषणा दोष : साधु और गृहस्थ दोनो की अोर से गौचरी मे लगाने वाले दोष।
१ संकिय (शंकित): 'यह प्राहार आदि प्रासुक-एषणीय है या नही ?' ऐसी शंकावाला आहार आदि (जब तक शका दूर न हो, उससे पहले) लेना।
'शकित' आहार 'अप्रासुक-अनेषणीय' भी हो सकता है; इसलिए यह आहार सदोष है।
२. मक्खिय (म्रक्षित): १. दाता २ दान के-पात्र या ३ दान के द्रव्य, सचित पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति से सघट्ट युक्त (स्पर्श युक्त, छुए हुए हो) तो १ उस दाता से या २ उस दान के पात्र से या ३. वे द्रव्य लेना।
३. निक्खिय (निक्षिप्त) : १ या दान के पात्र या दान के द्रव्य, सचित पृथ्वी आदि पर हो, तो १. उस दाता से या २. उस दान के पात्र से या ३ वे द्रव्य लेना।
४. पिहिय (पिहित) : १. दाता या २. दान के पात्र या ३ दान के द्रव्य के ऊपर सचित्त पृथ्वी आदि हो, तो १ उस दाता से या २ उस दान पात्र से या ३. वे द्रव्य लेना।
५. साहिरिय (साहत) : १. दाता सचित्त पृथ्वी आदि के सघट्ट को दूर करके या सचित्त पृथ्वी आदि से उतर कर या सचित्त पृथ्वी आदि को उतार कर दान दे, या दान के पात्र या दान के द्रव्यो को संघ से हटाकर या सचित्त पृथ्वी श्रादि पर से उठाकर या उन पर रहे सचित्त पृथ्वी आदि को उतार कर दे तो आहार लेना।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व विभाग-~-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २६५
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, और वायुकाय की विराधना के कारण ये म्रक्षितादि चारो आहार सदोष हैं।
६. दायग (दायक): जो दान देने योग्य न हो, उनसे आहार लेना, जैसे-घर मे अकेला अबोध बालक हो, उससे आहार लेना या अन्धे, लूले, लगडे अन्य की सहायता के बिना दान दें, उनसे आहार लेना या, छह मास से अधिक काल की गर्भवती स्त्री बैठी हुई उठकर या खडी हुई बैठकर दान दे तो, उससे दान लेना। • घर के बडे, कृपग-लोगो को खेद, षट्काय की विराधना तथा गभस्थ जीव को पीडा आदि की सभावना के कारण यह आहार सदोष है। . .
- ७.-उम्मीसे (उन्मिश्र): सचित्त मिश्रित आहार आदि लेना।
८.-अपरिपय (अपरिणत): पूरा प्रचित्त न बना हुआ पाहार आदि लेना।
पूर्ण प्रासुक - (निर्जीव, अचित्त) न होने के कारण ये दोनो आहार सदोष हैं।
६. लित्त (लिप्त) : सचित्त मिट्टी जल आदि से तत्काल लोपी हुई भूमि पर चलकर दिया हुआ आहारादि लेना ।
पृथ्वीकाय और प्राप्काय की विराधना के कारण यह प्राहार सदोष है।
१०. छड्डिय (छदित) : घुटने से अधिक ऊपर से बूद आदि गिराते हुए दिया जाता हुया आहार आदि लेना।
वायुकाय को विराधना तथा गिरने से पटकाय की विराधना संभव होने से यह अाहार सदोष है ।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६ ]
सुबोध जैन पाठमाला – भाग २
४
3
मण्डल के ५ पाँच दोष इंगाले' घूमे संजोयरगाउ पमाणे कारणे । अंगार' घूमर सयोजना प्रमारण कारण । मण्डल दोष : आहार करते समय लगने वाले दोष । १. इंगाले ( श्रंगार ) : प्रासुक एषणीय अशनादि में रागी बनकर उसकी सराहना करते-करते उसे भोगना ।
२. घूमे ( घूम ) : प्रासुक एषणीय अशनादि मे द्वेषी बन कर उसकी निन्दा करते हुए उसे भोगना ।
क्रमशः राग और द्वेष के कारण ये दोनो दोष माने गये हैं । ३. संजोयरा (संयोजना) : किसी द्रव्य मे मनोज्ञ रूप, गंध, रस (स्वाद), या स्पर्श उत्पन्न करने के लिए, उसमें अन्य द्रव्यों को मिलाकर भोगना । विषय- लोलुपता के कारण यह दोष माना गया है ।
४. पमाणे (प्रमाण) : जितनी भूख हो, उस प्रमारण से उपरान्त भशनादि भोगना ।
3
सामान्यतः स्वस्थ, सबल और युवावस्था वाले पुरुष के लिए ३२ बत्तीस कवल, स्त्री के लिए २८ कवल और नपुसक के लिए २४ कवल, यह आहार का प्रमाण माना गया है। प्रमारण उपरान्त प्राहार, प्रमाद और विकार का कारण होने से दोष माना है ।
५. कारणे (कारण) : बिना कारण प्रहार करना या बिना कारण प्रहार छोड़ना ।
आहार त्याग के छ. कारण की गाथा
बेयरण' बेयावच्चे', इरियट्टाए' य संजमट्ठाए । तह पारण वत्तियाए, छट्ठ पुरण धम्मचिताए ॥१॥
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग---'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २६७ वेदना' वैयावृत्य२ ईयार्थ३ सयमार्थ' च ।'
तथा प्राण धारणार्थ धर्मचिन्तार्थ है छठा ॥१॥ १. धेयरण (वेदना) : क्षुधा वेदनीय को शांत करने के
लिए आहार करे। २. वैयावच्चे (वैयावृत्य): आचार्य, उपाध्याय, शैक्ष, ग्लान,
तपस्वी स्थविर (वृद्ध) आदि की
वैयावृत्य के लिए आहार करे। ३. इरिय (इया) : इर्या शोधकर चलने के लिए आहार
करे। ४. संजम (संयम) : सयम निर्वाह के लिए पाहार करे। ५. पारण (प्रारण) : १० दश प्रारणो की रक्षा के लिए
पाहार करे। ६. धम्मचिता : स्वाध्याय ध्यान प्रादि' करने के लिए (धर्मचिन्ता)
आहार करे। आहार त्याग के ६ छह कारण की गाथा मायके' उवसग्गे२, तितिक्खया बंभचेर गुत्तीसु। पारिणवया तवहेउ', सरीर वोच्छेयरगट्ठाए' ॥१॥ प्रातक' उपसर्ग ब्रह्मचर्य-रक्षा तथा ।
प्रारिणदया तपहेतु, तथा अनशन' हेतु ॥११॥ १. मायके (अातंक) : शरीर मे रोगादि उत्पन्न हो जाने से
आहार त्यागे। २. उपसग्गे (उपसर्ग) . उपसर्ग या परीषह उत्पन्न हो जाने
से आहार त्यागे। ३. बंमेचरगुती : ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए पाहार (ब्रह्मचर्य गुमि.) स्थागे।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८ 1
- सुवोध जन पाठमाला-भाग २
४. पारण (प्रारण) : प्रारण भूत जीव सत्व की दया के लिए
आहार त्यागे। ५ तव (तप) : उपवासादिक तप करने के लिए
आहार त्यागे। ६. सरीर वोच्छेय ' : सलेखना सथारा सहित समाधि मरण (शरीर व्यवच्छेद) के लिए आहार त्यागे। 'चौथी आदान निक्षेपणा समिति का स्वरूप .
आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेपणा समिति : विवेकपूर्वक वस्त्रपात्रादि को उठाना रखना अर्थात् किसी जीव की विराधना न हो, इसलिए विधि सहित प्रतिलेखना प्रमार्जना का उपयोग रखकर वस्त्र पात्रादि उठाना रखना। आदान-भाण्ड-मात्रनिक्षेपरणा समिति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव।
१. द्रव्य से-भाण्डादि उपकरण यतना से उठावे और यतना रक्खे। अर्थात् दिन मे पहले उपकरण देखकर और आवश्यकता हो, तो पूज कर फिर शीघ्रता रहित उठावे तथा भूमि को पहले देखकर और आवश्यकता हो, तो पूजकर फिर उपकरण को शीघ्रता रहित, शब्द न हो इस प्रकार भूमि पर रक्खे तथा रात्रि को उपकरण पूजकर उठावे और भूमि को पूजकर भूमि पर रक्खे । देखने की प्राज्ञा इसलिए है कि'बस स्थावर जीव दिख जाने पर उपकरण उठाते-रखते हुए उन जीवो की पूजकर रक्षा की जा सकती है तथा पूंजने की प्राज्ञा इसलिए है कि उन्हे पूजकर दूर करने से उनकी रक्षा हो जाती है। शीघ्रता न करने की आज्ञा इसलिए है कि १. शीघ्रता न करने से सहसा किसी नये जीव की नीचे आकर
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २६६ मरने की सभावना नही रहती। २ अपने शरीर पर भी अकस्मात् चोट पहुँचने की सभावना नही रहती तथा वायुकाय की अयतना नही होती। ।
२. क्षेत्र से-भाण्डादि उपकरण इधर उधर बिखरा हुप्रा न रक्खें तथा गृहस्थी के घर पर भी न रखें। उपकरणो को इधर उधर बिखरा हुआ रखने से १. उनमे शीघ्र जीव प्रवेश की सम्भावना रहती है, २. पैरो से वार-वार अयतना का प्रसग प्राता है तथा ३. अधिक स्थान की आवश्यकता पडती है, इत्यादि कई दोषो के वर्जन के लिए तीर्थंकरो ने उपकरणो को बिखरे हुए रखने का निषेध किया है। गृहस्थ के घर उपकरण रखने से साधुता मे ममता, प्रमाण उपरात परिग्रह और गृहस्थ वृत्ति उत्पन्न होने की आशका रहती है, इत्यादि कई कारणो से तीर्थंकरो ने गृहस्थो के घर पर रखने का निषेध किया है।
३. काल से-सभी उपकरणों की यथा समय उभयकाल प्रतिलेखन करें। रात्रि मे जोवो को हुई विराधना की आलोचना के लिए तथा उपकरण में प्रविष्ट हुए जीवो की रक्षा के लिए प्रातः काल सूर्योदय होने के पश्चात् प्रतिलेखना करे तथा दिन मे हुई विराधना की आलोचना के लिए तथा प्रविष्ट जीवो की रक्षा के लिए सूर्यास्त होने के पहले प्रतिलेखन करे।
४. भाव से-राग द्वेष उत्पन्न करने वाली उपधि तथा प्रमारण उपरांत उपधि न रक्खे और प्रमाणोपेत उपधि को रॉगद्वेष रहित तथा उपयोग सहित भोगे । १. बहुमूल्य, २. श्वेत वर्ण को छोडकर अन्य वर्ण वाले, ३. धातु-निर्मित आदि उपकरण रागद्वेष उत्पन्न करने मे निमित्त हैं। अतः इन उपकरणो को रखने का निषेध किया है।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
___२७० ] मुबोध जैन पाठमाला-भाग २
साधु के लिए ७२ हाथ तथा साध्वी के लिए ६६ हाथ वस्त्र का प्रमाण माना है। पात्र का प्रमाण ४ चार माना है। इसके उपरान्त वस्त्र पात्र रखना तीथंकरो ने ममता का कारण व परिग्रह कहा है।
उपधि अर्थात् उपकरण के दो भेद ।
१. प्रोधिक : जिन्हे सामान्यत सभी साधु साध्वियाँ अपने पास सदा ही रखते है, जैसे मुखवस्त्रिका, रजोहरण प्रादि ।
२ प्रौपग्रहिक : जिन्हे यतना और वृद्धावस्था मादि कारणों से कुछ ही साधु'साध्वियां रखते हैं, जैसे दण्ड, पाट प्रादि ।
पांचवो परिस्थापनिका समिति का स्वरूप
उच्चार-प्रश्रवण - खेल - सिंघारण -जल्ल -परिस्थापनिका समिति : विवेकपूर्वक उच्चारादि. परवना ('फिर से ग्रहण न करे' इस प्रकार त्यागना) अर्थात् किसी जीव की विराधना हो, इसलिए स्थंडिल के दश दोष टालने का उपयोग रखकर न उच्चारादि परटुवना।
उच्चारण-प्रश्रवण - खेल -सिंघाण-जल्ल- परिस्थापनिका समिति के चार भेद-१' द्रव्य २ क्षेत्र ३ काल और ४. भाव ।
१. द्रव्य से-उच्चारावि परिस्थापन योग्य द्रव्य, अस स्थावर जीव देखकर और पूंजकर परिस्थापन करे- परिस्थापना योग्य पाठ द्रव्यो के नाम-१ उच्चार=मल, २. प्रश्रवण-मूत्र, ३. खेल-मुंह से निकलने वाला श्लेष्म, ४. सिधारण नाक से निकलने वाला श्लेष्म, ५. जल्ल=शरीर का मल, ६.माहार.. अप्रासुक अनेषणीय शरीर प्रतिकूला अशनादि. ७. उपषि--
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक [२७१ जीर्ण पात्रादि, ८. देह =निर्जीव शरीर, तथा ऐसे ही अन्य लोच किए हुए केशादि ।
२. क्षेत्र से-अनापात प्रादि दश बोल शुद्ध स्थण्डिल में (परिस्थापना भूमि में) उच्चारादि का परिस्थापन करे ।
स्थण्डिल के दश बोल की गाथाएँ
प्रणावाय' मसंलोए परस्सणुवघाइए। समे प्रभुसिरे वा व, प्रचिर काल' कयम्मिय । विच्छिन्ने दूरमोगाढे", रणासन्ने बिलवजिए। तसपारण'' बीय रहिए, उच्चाराइरिण वोसिरे ।
अनापात' असलोक, पर अनुपघातिक' । सम' अशुषिर तथा अचिर कालकृत मे । विस्तीर्ण दूरावगाढ, आसन्न-बिल वजित | प्रस प्राण'' बीज रहित, मे मलादि त्याग करे।
१. अरणावायमसंलोए (प्रनापात प्रसंलोक): जहां लोगो का माना जाना न होता हो, तथा लोगो की दृष्टि न पड़ती हो, वहाँ परिस्थापन करे।
२. परस्सणुवघाइए- (परानुपघातिक ) : जहाँ परिस्थापन करने से १. संयम का उपघात (छह काय विराधना) २. प्रात्मा का उपघात (शरीर विराधना) तथा ३ प्रवचन उपधात (शासन की निन्दा) न हो, वैसी भूमि मे वहां परिस्थापन करे।
३. समे (सम) : जहाँ ऊंची-नीची विषम भूमि न हो, वहाँ परिस्थापन करे।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२ ] सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
४. अझुसिरे (अशुषिर) : जहाँ कीटजन्य पोली भूमि न हो तथा घास पत्ते आदि से ढंका भूमि न हो, वहाँ परिस्थापन करे।
५. अचिरकाल कयम्मिय (अचिर काल कृत): जिसे प्रचित्त हुए इतना अधिक समय नहीं हुया हो कि वह पुन. सचित्त बन जाय, ऐसी भूमि हो; वहाँ परिस्थापन करे।
६. विच्छिन्ने (विस्तीर्ण) : जो परिस्थापन योग्य भूमि कम-से-कम एक हाथ लम्बी-चौड़ी हो वहाँ, परिस्थापन करे।
७. दूरमोगाढे (दूरावगाढ़): जो भूमि कम-से-कम चार अंगुल नीचे तक अचित्त हो, वहाँ परिस्थापन करे ।
८. रणासन्ने (अनासन्न) : जहाँ ग्राम नगर आराम उद्यानादि निकट न हो, वहाँ परिस्थापन करे।
. बिलवजिए (बिल वजित): जहाँ चूहे आदि के बिल न हो, वहाँ परिस्थापन करे ।
१०. तसपारण बीय रहिए (त्रसप्रारणबीज रहित)= जहाँ द्वी न्द्रयादि त्रस प्राणी तथा बीज और उपलक्षण से सभी एकेन्द्रिय स्थावर प्राणी न हो, वहाँ परिस्थापन करे। . ३. काल से-दिन में देखकर और रात्रि को पूंजकर परिस्थापन केरे। तथा मात्रक (= मल-मूत्र के पात्र) और परिस्थापन भूमि की सायंकाल दिन रहते प्रतिलेखना करे।
सायकाल दिन रहते मात्रक और परिस्थापना भूमि की प्रतिलेखना करने से मात्रक मे यदि जीव आ गये हो, तो उन्हे
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग- पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७३ दूर किया जा सकता है तथा परिस्थापना भूमि मे यदि जीव हो गये हो, तो परिस्थापना भूमि बदली जा सकती है।
प्रतिलेखन न करने पर १. उनमे रहे जीवो की विराधना हो सकती है, २ उन जीवो से आत्म विराधना हो सकती है एव परिस्थापना भूमि की विषमता से तथा काटे आदि से भी आत्म विराधना हो सकती हैं इसलिए तीर्थंकरो ने सायकाल दिन रहते हुए ही दोनो की प्रतिलेखना करने का आदेश दिया है।
४. भाव से-परिस्थापन के लिए जाते समय प्रावस्सिया २ (= आवश्यकी, मैं आवश्यक कार्य से जा रहा हूँ) यो कहकर जावे। परिस्थापन भूमि की शकेन्द्र महाराज की आज्ञा ले। फिर दिन हो, तो परिस्थापन भूमि को देखे और रात्रि हो, तो परिस्थापन भूमि को पूंजे (=प्रमार्जन करे)। फिर चार अंगुल ऊँचे से यतना सहित परिस्थापन करे। परिस्थापन करके 'वोसिरामि वोसिरामि' (=त्यागता हैं) यो कहे। फिर उपाश्य मे प्रवेश करते समय निसीहिया २ (नषेधिकी, मैं आवश्यक कार्य करके आ गया है) यो कहे । अन्त मे परिस्थापना के निमित्त इर्यापथिक का कायोत्सर्ग करे ।
॥ इति समिति स्वरूप समाप्त ॥
अथ गुप्ति का स्वरूप गुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए आत्मा के उत्तम परिणामो से मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना। _ 'गुप्ति मे अशुभ प्रवृत्ति रोकना मुख्य माना है।' अतएव -गुप्ति की यह परिभाषा की है। अन्यथा मन-वचन-काया को
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० ]
सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
१०. विरणय ( विनय ) : ( प्रभ्युत्थान = वडो के आने उठकर खड़ा होना यादि दश प्रकार की ) विनय करता हु करता है ।
जीव
LOGO
११. श्रावस्सए (आवश्यक) : उभय काल उपयोग स दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमरण करता हुआ जीव
करता
***...
१२ सीलव्वए ( शील- व्रत) : लिए हुए ( महाव्रत प्ररणुव्रत रूप ) मूलगुरण प्रत्याख्यान तथा ( समिति-गुप्ति गुरणव्रत- शिक्षाव्रत अथवा नमस्कार सहित ग्रादि रूप ) उत्तर प्रत्याख्यान अतिचार रहित शुद्ध ( निर्मल) पालता हुआ जीव करता है ।
१३. खरग लव ( क्षरण लव) : थोड़ा भी प्रमाद न कर हुग्रा (अर्थात् प्रतिक्षणं वैराग्यभाव रखता हुआ, धर्म-शु ध्यान ध्याता हुना तथा आर्त- रौद्र ध्यान वर्जता हुग्रा) जीव करता है।
१४. तव ( तप ) : एकान्तर, मास-मास क्षमरण (तप) अ विकृष्ट (बडी ) तपश्चर्या करता हुआ जीव करता है ।
..
१५. चियाए (त्याग) : (द्रव्य से गौचरी मे आधा श्रादि आये हुए अशुद्ध श्राहार आदि को परिटूबता हुआ भाव से क्रोध आदि को त्यागता हुआ और ) द्रव्य से प्रा एषणीय आहार आदि तथा 'भाव' से ज्ञान प्रादि सुपात्र को
...... ...
हुआ जीव
करता है ।
१६. वेयावच्चे ( वैयावृत्य ) : ( अरिहन्त दश प्रकार की ) वैयावृत्य करता हुआ जीव
वैयावृत्य ग्र करता है
**********
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-तीर्थङ्कर नाम गौत्र उपार्जन के २० बोल [ २८१
१७. समाहि : छह काय जीवो को अभयदान देकर समाधि उत्पन्न करता हुआ जीव ..... " करता है।
१८. अपुव नारण गहरणे (अपूर्व ज्ञानग्रहरण) नित्य नया-नया सूत्रज्ञान कण्ठस्थ करता हुआ तथा अर्थज्ञान धारण करता हुआ जीव " ....... करता है।
१६. सुयभुत्ती (श्रुतभक्ति): जिनवाणी की (१. हृदय से' श्रद्धा आदि बहुमान, २. वचन से गुणकीर्तन तथा, ३ काया से नमस्कार आदि) भक्ति करता हुआ जीव करता है।
२०. पवयरण पभावरणयाँ (प्रवचन प्रभावना) : धर्मकथा वाद आदि से प्रवचन प्रभावना (ग्राम नगर आदि मे मिथ्यात्व की उत्थापना और सम्यक्त्व की स्थापना) करता हुआ जीव ......." करता है।
॥ इति २ तत्व विभाग समाप्त ॥
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ शुभ प्रवृत्ति करना और एकाग्रता, मौन, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा 'शुभ-अशुभ' दानो प्रवृत्तियाँ रोकना भी 'गुप्ति हैं।
अथ मनोगुप्ति का स्वरूप मनोगुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए अात्मा के उत्तम परिणामो से मन की अशुभ प्रवृत्तियो को रोकना।
मनोगुप्ति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव ।
१. द्रव्य से-असत्य और मिश्र इन दोनो अशुभ संक्लिष्ट मनोयोगो को रोके और सत्य प्रोर व्यवहार इन दो शुभ विशुद्ध मनोयोगो की प्रवृत्ति करे।
२. क्षेत्र से सब क्षत्र मे। अशुभ मनोयोग रोके और शुभ मनोयोग मे प्रवृत्ति करे।
३ काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय मनोयोग में प्रवृत्ति करे, उस समय अशुभ मनोयोग रोके और शुभ मनोयोग मे प्रवृत्ति करे।
४. भाव से-१. सरम्भ (सारम्भ), २. समारम्भ और ३. प्रारम्भ वाले मनोयोग को वर्ज (छोड़) कर राग द्वेष रहित तथा उपयोग सहित अनारंभी मनोयोग की प्रवृत्ति करे।
१. सरभ (सारंभ): किसी प्राणी को परितापना (पीडा) देने या मारने का अध्यवसाय (सकल्प) करना ।
चारों मनोयोग की परिभाषा इस पुस्तक के पृष्ठ २८८ पर देखिये ।
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्त्व-विभाग-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७५ २. समारंभ : किसी प्राणी को परितापना देना। ३. प्रारंभ : किसी प्राणो को मार देना।
४: अनारंभ : किसी भी प्राणी को परितापनों न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी विशुद्ध शुभ प्रवृत्तिं करना।
१ मन का सरंभ : 'मैं इसे परितापना दूं या मारूँ।' ऐसा मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान करना।
२. मन का समारंभ : किसी प्राणी को मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान द्वारा परितापना देना।
३. मन को प्रारंभ : किसी प्राणी को मानसिक सक्लिष्ट (अशुभ) ध्यान द्वारा मार देना ।
४. मन का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापना न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी मन की विशुद्ध (शुभ) प्रवृत्ति करना।
दूसरी वचन गुप्ति का स्वरूप
वचन गुप्ति • प्राणातिपात आदि पापो से बचने के लिए, आत्मी के उत्तम परिणामो से, वचनं की अशुभ प्रवृत्तियां रोकना।
वचन गुप्ति के चार भेद-१ द्रव्य २ क्षेत्र ३ काल ४ भाव।
१ द्रव्य से-असत्य और मिश्र इन दोनो अशुभ वचन योगों को रोके एवं सत्य और व्यवहार इन दो शुभ वचन योगो की प्रवृत्ति करे।
धारो वचन योगो की परिभाषा, इसी पुस्तक के २३० पृष्ठ पर देखिये ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ .
२. क्षेत्र से सब क्षेत्र मे (अशुभ वचन योग रोके । शुभ वचन योग मे प्रवृत्ति करे ।)
३. काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय । योग में प्रवृत्ति करे, उस समय (अशुभ वचन योग रोके शुभ वचन योग मे प्रवृत्ति करे।)
४. भाव से -१ संरंभ २. समारंभ और ३ प्र वाले वचन योग को वर्ज (छोड़) कर राग-द्वेष रहित उपयोग सहित अनारंभी वचन योग की प्रवृत्ति करे ।
१. वचन का संरंभ 'मैं इसे परितापना' दूंगा मारूंगा।' ऐसा वाणी से सक्लिष्ट (अशुभ) शब्द बोलना।
२. वचन का समारभ : किसी प्राणी को वाणी सक्लिष्ट (अशुभ) मत्र, जाप आदि के द्वारा परितापना देना
३. वचन का प्रारंभ : किसी प्राणो को वाणी संक्लिष्ट (अशुभ) मंत्र, जाप आदि के द्वारा मार देना।
४. वचन का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापन पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी वचन की विशुद्ध (शुभ) प्रर करना।
तीसरी कायगुप्ति का स्वरूप कायगुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के नि अात्मा के उत्तम परिणामो से, काया की अशुभ प्रवृति रोकना ।।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग- पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७७
कायगुप्ति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव।
१. द्रव्य से-१. गमन ( = चलने मे) २. स्थान (=खडे रहने मे) ३. निषोदन (=बैठने मे) ४. त्वग्वर्तन (=पासा पलटने मे, सोने मे) ५. उल्लघन (= देहली आदि छोटी ऊँचाई नीचाई लांघने मे) ६. प्रलंघन (= खाड, शिला, लकडा आदि बडी ऊँचाई नीचाई लाघने मे) ७. सर्व इन्द्रिय काय योग योजन में (अधिक क्या कहे ? इत्यादि सभी प्रकार के इन्द्रिय और काया के व्यापार मे) अशुभ काययोग को रोके, शुभ काय योग को प्रवृत्ति करे।
२. क्षेत्र से - सब क्षेत्र मे (अशुभकाय योग रोके और शुभ काय योग मे प्रवृत्ति करे।
३. काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय काय योग मे प्रवृत्ति करे, उस समय (अशुभ काय योग को रोके और शुभ काय योग की प्रवृत्ति करे।)
४. भाव से - उपयोग सहित प्रारभ, सरंभ और समारभ वाले काय योग को वर्ज (छोड़) कर (राग-द्वेष रहित तथा उपयोग सहित ) अनारभी काय योग की प्रवृत्ति करे।
१. काया का सरभ : किसी प्राणी को परिताप देने या मारने के लिए हाथ, शस्त्र आदि उठाना ।
२. काया का समारभ : किसी प्राणी को हाथ, शस्त्र आदि चलाकर परितापना देना।
३. काया का प्रारभ : किसी प्राणी को हाथ, शस्त्र आदि से मार देना।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० ]
सुवोध जैन पाठमाला – भाग २
१०. विराय ( विनय ) : ( श्रभ्युत्थान = बडो के आने पर उठकर खडा होना आदि दश प्रकार की ) विनय करता हुआ जीव करता है ।
4000
·
११. श्रावस्सए (आवश्यक) : उभय काल उपयोग सहित दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण करता हुआ जीव करता है ।
१२ सीलव्वए ( शील - व्रत) : लिए हुए ( महाव्रत या अणुव्रत रूप ) मूलगुरण प्रत्याख्यान तथा ( समिति गुप्ति या गुरणव्रत - शिक्षाव्रत अथवा नमस्कार सहित आदि रूप ) उत्तर गुण प्रत्याख्यान अतिचार रहित शुद्ध ( निर्मल) पालता हुआ जीव करता है ।
१३. खरग लव ( क्षरण लव) : थोडा भी प्रमाद न करता हुमा (अर्थात् प्रतिक्षण वैराग्यभाव रखता हुग्रा, धर्म-शुक्ल ध्यान ध्याता हुआ तथा प्रार्त रौद्र ध्यान वर्जना हुना) जोव करता है ।
-
...
१४. तव (तप) : एकान्तर, मास-मास क्षमरण (तप) ग्रादि विकृष्ट (बड़ी ) तपश्चर्या करता हुआ जीव करता है ।
....
१५. चियाए (त्याग) : (द्रव्य से गौचरी मे ग्राधाकर्मी यदि श्राये हुए अशुद्ध प्रहार यादि को परिवता हुआ तथा भाव से क्रोध आदि को त्यागता हुआ और ) द्रव्य से प्रासुक एपणीय ग्राहार आदि तथा 'भाव' से ज्ञान आदि सुपात्र को देता करता है । हुआ जीव
***** ...
१६ वेयावच्चे (वैयावृत्य ) : ( अरिहन्त वैयावृत्य श्रादि दश प्रकार की ) वैयावृत्य करता हुआ जीव करता है ।
*******
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व-विभाग-तीर्थङ्कर नाम गौत्र उपार्जन के २० बोल [ २८१
१७. समाहि : छह काय जीवो को अभयदान देकर समाधि उत्पन्न करता हुआ जीव " " " करता है।
१८. प्रपुत्व नारण गहणे (अपूर्व ज्ञानग्रहण) : नित्य नया-नया सूत्रज्ञान कण्ठस्थ करता हुआ तथा अर्थज्ञान धारण करता हुआ जीव ".." करता है।
१९. सुयभत्ती (श्रुतभक्ति): जिनवाणी की (१. हृदय से श्रद्धा आदि बहुमान, २'वचन से गुणकीर्तन तथा, ३ काया से नमस्कार आदि) भक्ति करता हुआ जीव करता है ।
२०. पवयण पभावरण्या (प्रवचन प्रभावना) : धर्मकथा वाद आदि से प्रवचन प्रभावना (ग्राम नगर आदि मे मिथ्यात्व की उत्थापना और सम्यक्त्व की स्थापना) करता हुआ जीव ........" करता है।
॥ इति २ तत्व विभाग समाप्त ॥
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
४. काया का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापना न पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी काया की विशुद्ध (शुभ) प्रवृत्ति करना।
पूर्वोक्त आठ प्रवचन माताओ की जो मुनि पूर्णतया सम्यक् पालना करता है, वह ससार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।
अर्थ, भावार्थ और प्रासंगिक जानकारी सहित ॥ इति पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक समाप्त ॥
'तीर्थङ्कर नाम गोत्र उपार्जन के २० बोल'
अरहंत-सिद्धर-पवयग,-गुरु-थेर-बहुस्सुए तवस्सीसु । वच्छल्लया य तेसि, अभिवख-गारगोवोगे य ॥१॥ दंसरग-विरगए'-प्रावस्सए११ य सीलव्वए निरइयारो। खरण-लव-तव'४-चियाए१५, वेयावच्चे ६ समाहि१७ य ॥२॥ प्रपुव-नारण-गहणे'८, सुयभीत्ती'६पवयणे पभावरण्या२० । एएहि कारणेहि, तित्थयरत्त लहइ जीवो ॥३॥
ज्ञाता धर्मकथा ८ वा अध्ययन । १. अरिहत वच्छल्लया (अरिहन्त वत्सलता) : अरिहन्त भगवान् का (१. हृदय से, श्रद्धा आदि वहुमान २. वचन से) गुणकीर्तन (तया ३ काया से नमस्कार आदि भक्ति) करता हुआ जीव करोडो भवो के सचित कर्म वृन्द (राशि) को क्षय करता है तथा यदि उत्कृष्ट रसायन (भाव) आवे, तो तीर्थकर नाम गोन का उपार्जन करता है।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
का
तत्त्व-विभाग- तीर्थंकर नाम गोत्र उपार्जन के २० बोल [ २७६
२. सिद्ध वच्छल्लया (सिद्ध वत्सलता) : सिद्ध भगवान करता है ।
... .. 00
३. पवयरण वच्छल्लया ( प्रवचन वत्सलता ) : प्रवचन का ( अर्थात् जैन धर्म या चतुविध सघ का ) करता है ।
४. गुरु वच्छल्लया ( गुरु वत्सलता ) : गुरुजी का ( अर्थात् प्राचार्य श्री जी का तथा उपाध्याय श्री जी का )
करता है ।
....... poe
५ थेरवच्छल्लया ( स्थविर वत्सलता ) : ( २० वर्ष से अधिक चारित्र पर्याय वाले) स्थविर मुनिराजो का " ........ करता है।
६. बहुस्सुय वच्छल्लया ( बहुश्रुत वत्सलता ) : ( श्राचाराग निशीथ आदि के सूत्र अर्थ तथा दोनो के ज्ञाता ) बहुश्रुत मुनिराजो का करता है ।
•
७. तवस्सी वच्छल्लया (तपस्वी वत्सलता ) : (एकान्तर, मास मास क्षमरण ( तप ) आदि विकृष्ट (बडी ) तपश्चर्या करने वाले ) तपस्वी मुनिराजो का '''' 'करता है ।
www
८. भिक्खरणारणोवोगे ( श्रभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ) : सीखे हुए पुराने ज्ञान की बार-वार पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा करता हुआ ( पूछता, फेरता और सोचता हुआ) जीव करता है ।
.....
... or
& दसरण (दर्शन) : सम्यक्त्व को प्रतिचार रहित शुद्ध ( निर्मल) पालता हुआ जीव करता है ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २
१०. विरणय (विनय): (अभ्युत्थान =बडो के आने पर उठकर खड़ा होना आदि दश प्रकार की) विनय करता हुआ जीव ...... " करता है।
११. प्रावस्सए (आवश्यक): उभय काल उपयोग सहित दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण करता हुआ जीव ........" करता है।
१२ सीलव्वए (शील-व्रत) : लिए हुए (महाव्रत या अणुव्रत रूप) मूलगुण प्रत्याख्यान तथा (समिति-गुप्ति या गुणवत-शिक्षाबत अथवा नमस्कार सहित आदि रूप) उत्तग्गुण प्रत्याख्यान अतिचार रहित शुद्ध (निर्मल) पालता हुआ जीव करता है।
१३. खरण लव (क्षरण लव): थोडा भी प्रमाद न करता हुअा (अर्थात् प्रतिक्षण वैराग्यभाव रखता हुआ, धर्म-शुक्ल ध्यान ध्याता हुआ तथा पार्त-रौद्र ध्यान वर्जना हुआ) जीव । करता है।
१४. तव (तप) : एकान्तर, मास-मासक्षमण (तप) आदि विकृष्ट (बडी) तपश्चर्या करता हुआ जीव ........."करता है।
१५. चियाए (त्याग) : (द्रव्य से गौचरी मे प्राधाकर्मी अादि आये हुए अशुद्ध आहार आदि को परिवता हुया तथा भाव से क्रोध आदि को त्यागता हुया और) द्रव्य से प्रासुक एपणीय आहार आदि तथा 'भाव'सें जान आदि सुपात्र को देता हुया जीव ........." करता है।
१६. वेयावच्चे (वयावृत्य): (अरिहन्त वैयावृत्य आदि दश प्रकार की) वैयावृत्य करता हुआ जीव ........." करता है ।
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________ तत्त्व-विभाग-तीर्थङ्कर नाम गौत्र उपार्जन के 20 बोल [ 281 17. समाहि : छह काय जीवो को अभयदान देकर समाधि उत्पन्न करता हुआ जीव .. .. ."" करता है। 18. अपुव्व नारण गहरणे (अपूर्व ज्ञानग्रहण) * नित्य नया-नया सूत्रज्ञान कण्ठस्थ करता हुआ तथा अर्थज्ञान धारण करता हुआ जीव "..." करता है। 16. सुयभुत्ती (श्रुतभक्ति): जिनवाणी की (1 हृदय से श्रद्धा आदि बहुमान, 2. वचन से गुरगकीर्तन तथा, 3 काया से नमस्कार आदि) भक्ति करता हुआ जीव .....करता है। 20. पवयण पभावरणयां (प्रवचन प्रभावना): धर्मकथा वाद आदि से प्रवचन प्रभावना (ग्राम नगर आदि मे मिथ्यात्व की उत्थापना और सम्यक्त्व की स्थापना) करता हुआ जीव ......." करता है। // इति 2 तत्व विभाग समाप्त //