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________________ ४८ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ अनत प्राण मिलते है, उससे भी कहीं अधिक पुण्य कमाने पर एक सजीव को एक जिह्वा वचन आदि प्राण मिलता है। उस अनत पुण्य से प्राप्त प्रारण का वियोग होता है, इसलिए। प्र० : जान के पहचान के हिंसा करना किसे कहते है ? उ. . 'जहाँ पर या जिस पर मैं प्रहार कर रहा है, वहीं या वह बस जीव है।' यह जानते हुए हिंसा करना। प्र० सकल्प करके हिंसा करना किसे कहते हैं ? उ. जैसे 'मैं इस अन्य धनी राज्य को जीतूं, इस सवल मनुप्य को मारूं, इन सिंह, हरिण आदि का शिकार करू, सर्प, चूहे, मच्छर आदि का नाश करूँ, मछली, अडे आदि खाऊँ ।' ऐसा विचार करके हिंसा करना । प्र० : गरीर के भीतर मे पीडाकारी का उदाहरण दीजिए। उ० · जैसे कृमि नेहरू आदि। प्र० : श्रावक संकल्पी हिंसा का ही त्याग क्यों करता है ? उ० . क्योकि अन्य प्रारम्भ करते हुए श्रावक की मारने की बुद्धि न रहते हुए उसमे त्रस जीवो की हिंमा हो जाती है। जैसे पृथ्वीकाय खोदते हुए भूमिगत त्रस जीवों की हिंमा हो जाती है, वाहन पर चलते हुए वाहन से कीडी आदि मर जाती है। ऐसी प्रारम्भी बस-हिंसा का श्रावक त्याग करने में समर्थ नही होता । प्र० - सापराधी किसे कहते हैं ? उ० : जैसे आक्रमणकारी शत्रु, सिंह, सर्प आदि को
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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