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२३२ 1 सुवोध जैन पाठमाला भाग २
११. उपशान्त-मोहनीय गुरग-स्थान : दवे हुए मोहनीय कर्म वाली साधु अवस्था।
१२ क्षीण-मोहनीय गुरण-स्थान : नष्ट हुए मोहनीय कर्म वाली साधु अवस्था।
१३ सयोगी केवली गुण-स्थान : मन वचन काया के योग भी है तथा केवल ज्ञान भी है-ऐसा घातिकर्म रहित तथा अघाति कर्म सहित साधु अवस्था ।
१४. अयोगी केवली गुण-स्थान : मन वचन काया के योगो को रोक दिये है-ऐसी केवल ज्ञान बाली, घाति कर्म रहित तथा अघाति कर्म सहित साघु अवस्था ।
एक समय मे एक जीव को एक ही गुण स्थान होता है। एकेन्द्रिय को मात्र मिथ्यात्व गुण स्थान ही होता है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था मे पूर्वमव से साय प्राया हुमा सास्वादान गुरणस्थान भी हो सकता है। नारक ,तथा देवों को पहले के चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यच्च पचेन्द्रियों को पहले के पाँच गुणस्थान होते हैं। मनुष्यों मे सभी -गुरणस्थान हो , सक्ते हैं। अभी इस युग मे मात्र सात गुणस्थान हो सकते हैं। १४ वें गुरणस्थान फे पश्चात् जीव मोक्ष में चला जाता है।
बारहवाँ बोल : 'पांच इन्द्रियों के २३ विषय और
. २४० विकार विषय : जिसको इन्द्रिय जाने । १. श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द के तीन भेद : १. जीव शब्द : जीव के मुह से निकला हुया शब्द ।