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________________ सूत्र-विभाग-२३ 'पच्चीस मिथ्यात्व' का पाठ [ १३३ दुम्भासिय-दुचितिय..जो दुष्ट भाषण, दुष्ट चिन्तन और दुचिट्ठियस्स, : दुष्ट काय प्रवृत्ति से लगे है, प्रालोयन्तो- : आलोचना करता हुआपडिक्कमामि । : उनसे प्रतिक्रमण करता हूँ।' तस्स- धम्मस्स' का पाठ तस्स धम्मस्स : उसः (जैन) धर्म की केवलि-पण्णत्तस्स' : जो केवली प्ररूपित है, प्रभुटिनोमि : उठ कर खडा होता हूँ प्राराहरगाए, : आराधना करके लिए। विरोमि : विरत होता (हटता) हूँ विराहणाए : विराधना (करने) से। तिविहेण पडिक्कतो' : अब तक हुई विराधना का मन-वचन काया से प्रतिक्रमण करता हुग्राः वदामि वन्दना करता हूँ जिण चउव्वीस : चौबीस तीर्थकरो को। पाठ २३ तेईसवां २. 'पच्चीस मिध्यान्व' का पाठ १. जोव को अजीव श्रद्धेः तो मिथ्यात्व : जीव तत्व न माना हो, या, जड से उत्पन्न माना हो, या स्थावर जीव न माने हो, : विश्व को भगवद्रूप माना हो, सूर्यादि' २. अजीव को जीव
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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