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________________ २०२ ] सुवोध जैन, पाठमाला – भाग २ के दश लाख, खेचर के बारह लाख, उरः परिसर्प के दश लाख, भुज परिसर्प के नव लाख, नारक के पच्चीस लाख, देवता के छब्बीस लाख, मनुष्य के बारह लाख, ऐसे (१२+७+३+७+ २८;+७+८+६; + १२ ॥ +१०+१२+१०+२५+२६+ १२' = १,६७,५०,०००) एक करोड़ साढ़े सत्यानवें लाख, कुल्ल कोटि जीवों की विराधना की हो, तो दिन मवधी तस्सा मिच्छामि दुवकडं । चौथा आवश्यक सना 'प्रश्नोत्तरी' प्र० : यहाँ वन्दना किसे कहा है उ० : अरिहन्त ग्रादि गुणवान् जीवों के गुर्गों क स्मरण और स्तुति करते हुए नमस्कार करने को । - प्र० : वन्दना और क्षमापना में क्या अन्तर है 7 उ०- यहाँ विशेष कोई अन्तर नहीं है । क्योकि दोनों में क्षमायाचना का भाव ही मुख्य है । प्र० : तब दोनों को पृथक क्यो किया गया ? उ०- : इसलिए कि, वन्दना में प्राय वन्दना के शब्द अधिक हैं और क्षमापना के शब्द अल्प हैं तथा क्षमापना मे प्रायः क्षमापना के ही शब्द विशेष हैं । प्र० जब कि वन्दना में 'क्षमापना का ही भाव मुख्या है', तब उसमे 'क्षमापना के शब्द कम क्यों और वन्दना के शब्द अधिक क्यो ?' ·
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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