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सुबोव जैन पाठमाला-भाग २
क्षणम्थायी, भौतिक तथा खजाल के समान अवास्तविक सुख रूप जानक र पुस्प पुण्य-फल मे गग नही करता। ४ पाप तत्व के जान से पाप को क्षणस्थायी तथा स्वकृत समझकर पुरुप वेद और दुख देनेवाले निमित्तो पर द्वेष नही करता। ५ अजान, मिथ्यात्व और रागद्वेप (अवत, प्रमाद, कषाय) को दुख का कारण समझ कर पुरुप इन से हटता है। ६ अाश्रव के ज्ञान से सबर के ज्ञान से सम्यक्त्वज्ञान और वैराग्य (व्रत अप्रमाद, अकपाय) को मोक्ष का कारण समझकर पुरुष ज्ञान, श्रद्धा व वैराग्य को अपनाता है। ७ निर्जरा के ज्ञान से आत्मा के साथ कर्म के सयोग को नष्ट करने के उपायो को जानकर पुरुष अनगन, पूर्व के पापो का पश्चात्ताप और स्वाध्यायादि कार्यों को अपनाता है। ८६ वध-मोक्ष के ज्ञान से अपनी वर्तमान वध दगा को जानकर पुरुप मोक्ष-प्राप्ति की ओर सन्मुख होता है। भवान्तर मे उस फल के साथ तीक्ष्ण बुद्धि, चिरस्मरण शक्ति, शीघ्र ग्रहगशीलता आदि प्राप्त होती है।
५. कत्तव्य . विनय, योगो की एकाग्रता, गुरु-चरण से ज्ञान-प्राप्ति, जान-प्राप्ति मे अनालस्य व अप्रमाद, जान-दान मे उदारता, काल और स्वाध्याय में नियमित स्वाध्याय, शुद्ध उच्चारण, ज्ञान का पुन पुन. यावर्तन, अनुप्रेक्षा आदि ।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना। 'मुझे कव केवल ज्ञान होगा ?' यह मनोरथ करना, ज्ञान की अपूर्णता का खेद करना, अज्ञान से अब तक चतुर्गति मे पाये हुए दु ख का विचार करना, ज्ञान के लिए सतत जागृत रहने वाले श्री गौतम गणधर आदि के चरित्र पर ध्यान देना।