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________________ सूत्र-विभाग-१३. 'दिशा व्रत' निबन्ध [७७ नही हुई, न ही भविष्य मे वैराग्य के बिना तृप्ति हो सकती है। -मंग। २. उद्देश्य : दिशा की मर्यादा करके स्थावर हिंसा आदि को भी घटाना। ३. स्थान : श्रावक अपनी शक्ति की कमी के कारण पाँच अणुव्रतो मे बडी हिंसा आदि बडे पॉच पाश्रवो का ही त्याग करता है। स्थावर हिंसा, सापराध तथा प्रारम्भी त्रस हिंसा, सूक्ष्म झूठ, सूक्ष्म चोरी, स्वस्त्रोगमन, विवाह, मर्यादित-परिग्रह पर ममता आदि छोटे आश्रवो का त्याग नही कर पाता, पर जितना सम्भव हो उतना उनका भी त्याग आवश्यक है। दिग्व्रत दिशा की मर्यादा करके उनका अधिकाश क्षेत्र मे त्याग करा देता है, अतः सूक्ष्म पञ्चाश्रव का त्याग कराने वाले तीन गुणवतो मे मुख्य होने के कारण दिग्व्रत को गुणवतो मे पहला स्थान दिया है तथा स्थूल पञ्चाश्रव त्याग की अपेक्षा सूक्ष्म पञ्चाश्रव. का त्याग गौरण होने से इसे पाँच अणुव्रतो के पश्चात् छठा स्थान दिया है। ४. फल : मर्यादित क्षेत्र से बाहर के पाँचो आश्रवो के सकल्प-विकल्प से मुक्ति। स्वजन, स्वदेश, स्वधर्म का वियोग न हो, यात्रा-दुर्घटना आदि न हो। परराष्ट्र को आक्रमण, हस्तक्षेप आदि का दु ख न हो। जन्मान्तर मे वह ऐसे स्थान और स्थिति में उत्पन्न हो कि उसे अन्यत्र कही भटकना न पडे । ' प्राप्त स्थान और स्थिति मे भी 'विरक्त रहे। अन्त में मोक्ष प्राप्त करके अचल उच्च स्थिति प्राप्त कर ले।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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