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सुवोध जैन पाठमाला-भाग २
३. पूइकम्मे (पूतिकर्म) : शुद्ध आहारादि मे सहर घर के अन्तर से भी'आधाकर्मी अशुद्ध आहारादि का अश मात्र भी मिला दिया हो, उसे लेना।
४. मीसजाए (मिश्रजात) : गृहस्थ के लिए और (साधु के लिए) सम्मिलित बनाया हुआ आहारादि लेना।
'आघाकर्म' आदि इन चारो आहार में साधु के लिए प्रारम्भ होता है, इसलिए ये चारो आहार आदि सदोष हैं।
५. ठवरणा (स्थापना): साधु के लिए रवखा हुआ (बालक, भिखारी आदि के मागने पर भी जो उन्हें न दिया जाय, वैसा) आहारादि लेना।
इस ‘स्थापित' आहार से वालक आदि को अन्तराय पडती है, इसलिए यह आहार सदोष है।
६. पाहुडिया (प्राभृतिका) : 'साधुओं को भी जीमनवार का आहारादि दान में दिया जा सके', इसलिए गृहस्थ ने जिस जीमनवार को समय से पहले या पीछे किया हो, उस जीमनवार का आहारादि लेना।
इस आहार की निष्पत्ति में साधु भी निमित्त बना, इसलिए यह आहार सदोप है।
७. पानोपर (प्रादुष्करण) : अयतना से कपाट आदि खोलकर या दीपक आदि जलाकर प्रकाश करके दिया जाता हुआ आहार आदि लेना।
अयतना तथा अग्निविराधना आदि के कारण यह आहार सदोष है।
८. कीय (क्रीत): साधु के लिए खरीदा हुमा आहार आदि लेना।