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तत्त्व-विभाग- पाँच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [२५७ प्रथम प्रहर का चौथे प्रहर तक रख कर भोगने का निषेध किया है। ४ भाव से-मण्डल के (=परिभोग के) ५. पाँच दोष वर्जकर, राग द्वेष रहित तथा उपयोग सहित अशनादि
भोगे।
पाहार के सैंतालीस ४७ दोष और उनको परिभाषाएँ
उद्गम के १६ सोलह दोष की मूल गाथाएँ पाहाकम्मु-देसिय२, पूइकम्मे य मीसजाए य। उवरणार पाहुडियाए, पामोअर' कोय' पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए१० अभिहडे', उब्भिन्ने१२ मालोहडे'3 इ य । अच्छिज्जे १४ अनिसि? १५, अझोयरए१६ य सोलसमे ॥२॥ आधाकर्म' प्रौद्देशिकर, पूतिकर्म मिश्रजात च । स्थापना' प्राभृत्तिका, प्रादुष्करण", क्रीत प्रामृत्य ॥१॥ परिवर्तित' अभिहत'', उद्भिन्न २ मालापहृत च । प्राच्छिद्य४ अनिसृष्ट५ अध्यवपूरक १६ सोलहवाँ ।।२।।
उद्गम दोष : साधु आहार आदि ग्रहण करे, उससे पहले ही, मुख्यतया गृहस्थ की ओर से साधु के लिए अग्रहार बनाने देने में लगने वाले दोष ।
१. श्राहाकम्म (प्राधाकर्म) • जो आहार ग्रादि ले रहा है, उस साधु द्वारा अपने लिए बनाया हुअा अाहार आदि लेना (और भोगना)।
२. उद्देसिय (ौशिक) : अन्य साधु के लिए बनाया हुमा आहारादि लेना।