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सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
है, उसके उपरान्त प्रागे जाने का तथा दूसरों को भेजने का पचक्खाण, जाव प्रहोरतं पज्जुवासामि दावह तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मासा वयसा कायसा, जितनी भूमिका की मर्यादा रक्खी है, उसमे जो द्रव्यादिक की मर्यादा की है, उसके उपरांत उपभोग परिभोग निमित्त से भोग भोगने का पञ्चवखारण, जाव प्रहोरत्तं पज्जुवासामि, एगविहं तिविहेणं, न करोमि, मरणसा वयसा कायस ा + *
अतिचार पाठीं
ऐसे दश दिशाantशिक व्रत के पंच इयारा जाणिवा न समायेरिर्यव्वा तंजहा ते श्रालोउं -
१. श्रावणप्प
२. पेसवरप्पोगे
३ सद्दाणुवाए
दशवे दिशावकाशिक व्रत के विषय मे जो कोई प्रतिचार लगा हो, तो श्रालोउ
sece
: नियमत सीमा से बाहर की वस्तु मँगवाई हो
: ( नौकर आदि से ) भिजवाई हो
: (खाँसी आदि ) शब्द करके चेताया हो .
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+ तस्स मन्ते ४। दोनों स्थानों पर इतना पाठ और मिलाकर इस व्रत पाठ से दिशाक्काशिक व्रत लिया जाता है । विधि सामायिक लेने की विधि के समान हैं ।
शेष लेने की
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"श्रावक प्राय प्रतिदिन १४ नियम श्रादि से अहोरात्र दिशावकाशिक व्रत करता रहता है, अत: इसके लिए भावना पाठ नहीं बोला जाता । इस प्रतिचार तथा प्रतिक्रमरण पाठ से दिशावकाशिक व्रत पाला जाता है । शेष विधि सामायिक पालने की विधि के समान है । भिन्नता
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यह है कि सम्म काए बोलना चाहिए ।
1 आदि के पहले 'देशांवगासिय'