SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ । सुवोध जैन पाठमाला-माग २ अपूर्णता का खेद करना। 'परिग्रह की प्राप्ति में व्यापारादि का कष्ट, रक्षा मे चोरादि की चिन्ता का कष्ट और व्यय में वियोग का कष्ट है।' यो उसके सदा दुःख का चिन्तन करना, परिग्रह मे गृद्ध, दुर्योधन, कोणिक आदि का तथा परिग्रह त्यागी भरत चक्रवर्ती, धन्ना मुनि, अहनक आदि के जीवन चरित पर ध्यान देना। . . पाठ १३ तेरहवाँ ११. 'दिशा व्रत' व्रत पाठ छठा दिशिवत १. उद दिशि का स्था परिमारण, २. अहोदिशि का यथा परिमारण, ३ तिरियदिशि का यथा परिमारण। इस प्रकार जो परिणाम किया है, उसके उपरान्त स्वेच्छा काया से प्रागे जाकर पाँच पाश्रव सेक्न का पञ्चक्खाएं (करता हूँ): जावज्जीवाए। एगविह तिविहेणं, न करेमि, मरपसा वयसा कायसा। अतिचार पाठ ऐसे छठे दिशि व्रत के पंच छठे दिशिवत के विषय में अइयारा जारिणयव्वा न समाय जो कोई अतिचार लगा हो, रियव्वा तंजहा ते पालो-तो पोलोउ~ कोई 'दुविहं तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मसा वयसा कायसा" बोलते हैं।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy