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१५६ ] सुवोध जन पाठमाला-भाग २
प्र० : रात्रि मे जब कि, नीद गाढी आ रही हो, तव पसवाडा (करवट) बदलने आदि के समय यस्ता के लिए पूंजने आदि की क्रिया करना सरल कैसे हो?
___उ० मुख्य बात यह है कि, निद्रा को मर्यादित और अल्प कर देने पर पसवाडे को वदलने आदि के प्रसग ही कम हो जाते हैं। उसके पश्चात् 'जू. खटमल, मच्छर, सचित्त रज, सचित वायू प्रादि को भी मेरे ही समान जीवन प्रिय है।' जव निद्रा मे थोडी बाधा भी मुझे अप्रिय लगती है, तो उन्हे मरण कितना अप्रिय होगा? 'इन विचारो को निरन्तर भावना से बल देने पर, निद्रा मे भी सावधानी और यतना का विवेक सरल हो जाता है।
प्र० : अर्द्ध निद्रावस्था में जब कि, आत्मा स्ववश नहीं रहती, तब भोगादि अाकुलता-व्याकुलता के दुःस्वप्न पा जाये, तो उसमें प्रात्मा का दोष क्या? और उसका प्रतिक्रमण आवश्यक क्यो ?
उ० : जो जागृत अवस्था मे मन को, इन्द्रियों को तथा देह को वश मे रखते हैं, ज्ञान ध्यान में मन-वचन-काया के योगो को लगाते हैं, उत्तम साधु-श्रावकों की पर्युपासना करते हैं, शुभ योग प्रवृत्ति वालो का अनुमोदन करते हैं तथा आहार व निद्रा मर्यादित रखते हैं, उन्हे भोगादि आकुलता-व्याकुलता के स्वप्न नहीं आते। जिनमे उपर्युक्त बाते नही होती, उन्हे ही प्रायः दुःस्वप्न आते हैं। अतः दु स्वप्न आना आत्मा का ही दोष है, और इसलिए उन दोषो को मिटाने के लिए दु.स्वप्न प्रतिक्रमण भी आवश्यक है।