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________________ १८२ ] सूबोध जैन पाठमाला-भाग २ चार से गुणा करने पर दो सहस्र ५००४४%D२००० हुए। तथा साधु तीन करण व तीन योग से इनका असयम नही करते, अत. दो सहस्र को दो बार तीन-तीन गुणा करने पर अठ्ठारह सहस्र हुए २,०००४३-६,०००४३=१८,००० । । इन्ही को 'अट्ठारह सहस्र शीलांग रथ' कहते है। प्र० : नमस्कार मत्र मे नमो लोए सव्व साहरण' द्वारा लोक के सभी साधुओ को नमस्कार किया गया है। वहाँ रजोहरणादि जैन वेश और महाव्रतादि जैन गुण वाले साधु को नमस्कार और जैन वेश और जेन गुण रहित साधु को नमस्कार नहीं करना, ऐसा भेद नही किया है। फिर यहाँ ऐसा भेद क्यो किया है ? उ० : 'नमो लोए सव्व साहरण' मे रजोहरणादि जैनवेश और पाँच महाव्रतादि जैन गुण युक्त जैन साधूयो को तथा जैन वेश और जैनगुण रहित अजैन साधुप्रो को, सभी को नमस्कार किया गया है।' ऐसी श्रद्धा या प्ररूपणा सत्य नही है। 'नमो लोए सव्व साहूण' मे जो सभी साधु लिए है, वे रजोहरणादि जैन वेश और पॉच महाव्रत आदि जैन गुणधारी जितने भी साधु है, उन्ही सव साधुप्रो को लिया है। नमस्कार मत्र 'मत्र' है। मत्र मे भाव अधिक और शव्द अल्प होते है, अतः वहाँ शब्दो मे यह भेद नही किया हैं। परन्तु उन अल्प शब्दो मे भी भाव यही है कि 'जो जो भी जैन वेश व जैन गुरणयुक्त साधु है या कारणवश जैन वेश न भी हो, पर जैन गुरणयुक्त अवश्य हो, उन्ही सव साधुग्रो को नमस्कार हो।' अत. नमस्कार मत्र मे और इस पाठ मे कोई भेद नही है। प्र० : ऐसे कौन से कारण हैं, जब जैन गुरण युक्त साधु जैन वेश युक्त नहीं होता?
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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