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. सूत्र-विभाग-३१ 'नमो चउवीसाए' प्रश्नोत्तरी [ १८१ चरित्ता
: चारित्रवान् है ते सव्वे
: (ऐसे वेश-गुण युक्त) उन सभी को सिरसा मरगसा : शिर (काया) से, मन से और 'मत्थएणवदामि' : वचन से 'मत्थएण वदामि' कहते ।
हए तीनो योगो से वन्दना करता हूँ।
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'नमो चउन्वीसाए' प्रश्नोत्तरी
प्र० : श्रद्धा आदि को दृष्टान्त से समझाइए।
उ० · जैसे किसी विश्वसनीय पुरुष के इस कथन पर कि 'यह वैद्य 'सर्वश्रेष्ठ' है।' वैद्य को सर्वश्रेष्ठ मानना 'श्रद्धा' है। उस वैद्य के द्वारा सभी रोगियो को पूर्ण नीरोग होते देखकर वैद्य की सर्वश्रेष्ठता का निश्चय होना 'प्रतीति' है। स्वय नीरोग बनने के लिए उसकी औषधि लेने की भावना होना 'रुचि' है। उसकी औषधि को हाथ मे लेना और मुंह मे रखना 'स्पर्शना' है। उसकी औषधि को पेट मे उतारना 'पालना' है। पथ्य का पालन करना तथा नीरोग न होने तक औषध लेते रहना 'अनुपालना' है।
प्र० • अट्ठारह सहस्र शीलांग रथ क्या है ?
उ० : क्षमा आदि दश श्रमण धर्म (यति धर्म) है। इनके पालक साधु पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अजीव, इन दश का असयम नही करते, अत. दश को दश से गुणने पर सौ १०४१०=१०० हुए। वे पाँच इन्द्रियो को वश करके इनका असयम नही करते, अतः सौ को पांच से गुणा करने पर पांच सौ १००४५-५०० हुए। तथा वे चार सज्ञा का निरोध करके इनका असयम नही करते, अतः पाँच सौ को