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________________ ९०] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ ३ स्थान : सूक्ष्म पञ्चाश्रव १ एक तो अर्थ (प्रयोजन) से होता है और २. दूसरा अनर्थ (निष्प्रयोजन) होता है। अर्थ दो प्रकार का है~१ एक तो भोगोपभोग और २. दूसरा भोगोपभोग की प्राप्ति के लिए कर्म या व्यापार (या सेवा, नौकरी आदि)। मर्यादित क्षेत्र में जो अनर्थ से पञ्चाश्रव होता है, वह तो सर्वथा त्यागा जा सकता है, पर अर्थ से होने वाला पञ्चाधव सर्वथा त्यागा नहीं जा सकता। पर उसमे से जो मद्यपान, मासाहार आदि भोगोपभोग और जो असतिजन पोषणता प्रादि कर्म या व्यापार, स्थूल पञ्चाश्रव के अधिक निमित्त बनते हैं, उनका सर्वथा,त्याग किया जा सकता है तथा शेप का परिमारण किया जा सकता है। इनमें अनर्थ पञ्चाश्रव की अपेक्षा अर्थ पञ्चाश्रव का त्याग कठिन है, अत. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत को अनर्थदण्ड विरमण से पहले स्थान दिया है और दिग्बत की अपेक्षा इस व्रत से सूक्ष्म पञ्चाश्रव का त्याग कम होता है, अतः इसे गुणवतो मे दूसरा स्थान दिया है । ४. फल : मनुष्य के भोगोपभोग और कर्म एव व्यापार में आर्यता उत्पन्न होती है। अनार्य भोगोपभोगादि के तथा अमर्याद भोगोपभोगादि के संकल्प-विकल्प से मुक्ति होती है । आवश्यकताएँ घटती है। जीवन त्यागमय बनता है। धर्म के लिए अधिक समय वचता है। जन्मान्तर मे उक्त फल के साथ आत्मा आर्य भोगोपभोग से ममृद्ध तथा आर्य कर्म एवं आर्य व्यापारयुक्त कुल मे जन्म लेता है। वहाँ उसकी भोगोपभोगादि मे तथा व्यापारादि में अरुचि होती है। वह सतोषप्रधान होता है। अन्त मे वह मुक्त बनकर भोगोपभोग
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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