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सूत्र विभाग - १४. 'उपभोग - परिभोग व्रत' निबन्ध
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अथवा अपने पुत्रादि, जिन्हे परिग्रह बाँटकर पृथक् कर दिया हो, उनके परिग्रह - वृद्धि में परामर्श देने का उसे प्रसग श्रा जाता है ।
इसी प्रकार छठे सातवे व्रत की भी स्थिति है । जैसे श्रावक अपनी की हुई दिशा की मर्यादा के उपरांत स्वयं तो नही जाता, पर कई बार उसे अपने पुत्र आदि को विद्या, व्यापार, विवाह आदि के लिए भेजने का प्रसंग प्रा जाता है ।
ऐसे ही उपभोग परिभोग वस्तुओं की या कर्मादानों की जितनी मर्यादा की है, उसके उपरांत तो वह स्वयं भोगोपभोग या कर्म नही करता, परन्तु उसे अपने पुत्रादि को भोगने के लिए या करने के लिए कहने का अवसर श्रा जाता है ।
इसलिए श्रावक पाँचवे, छठे और सातवे व्रत का प्रायः "मैं नही करूँगा' । इतना ही व्रत ले पाता है, परन्तु 'मैं नहीं कराऊँगा - यो भी व्रत नहीं ले पाता । विशिष्ट श्रावक हन व्रतों का दो करण तीन योग आदि से भी प्रत्याख्यान कर सकते हैं ।
'उपभोग - परिभोग व्रत' निबंध
पर अब
१. सूक्त : इस विश्व के प्रत्येक परमाणु को श्रात्मा शुभ-अशुभ सभी प्रकारो से श्रनत बार भोग चुका तक भोग से तृप्ति नहीं हुई, न ही भविष्य मे वैराग्य के बिना तृप्ति हो सकती है । २. भोगी ससार में परिभ्रमण करता है, श्रभोगी मुक्त हो जाता है ।
२. उद्देश्य : उपभोग- परिभोग की तृष्णा मर्यादित और मन्द करना तथा कर्म - व्यापार मे महा आरम्भ घटाना ।