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८८] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ भी महा प्रारम्भी काम हैं, वे सब कर्मादान मे समझने चाहिएँ।।
प्र० जो कुम्हार, सुतार, किसान आदि अङ्गारकर्म प्रादि करते है, क्या वे कर्मादानो की अपेक्षा सातवाँ व्रत नहीं अपना सकते ?
उ० पन्द्रह कर्मादानो मे जो असतिजन-पोषणता आदि अत्यन्त ही निन्दनीय कर्म हैं और स्पष्ट ही त्रसादि जीवो की बडी हिंसा के व वेश्या-मैथुन आदि महापाप के कारण है, उन्हें यथासम्भव छोड ही देना चाहिए। शेप जिनमे पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवो की हिसा हो, उनका परिमारण कर लेना चाहिए। परिमारण करने वाले कुम्हार, किसान आदि कर्मादानो की अपेक्षा भी सातवे व्रतधारी ही माने जाते हैं।
विशेष धन कमाने की भावना छोडकर मुख्य रूप से कुटुम्ब निर्वाह आदि की भावना से अत्यन्त अल्प खेती आदि करने वाले श्रावक कर्मादानी होते हुए भी महारम्भी नही समझे जाते।
प्र० : पाँचवाँ, छठा और सातवां व्रत प्राय एक करण तीन योग से क्यों लिये जाते हैं ?
उ० : क्योकि श्रावक अपने पास मर्यादा उपरान्त परिग्रह हो जाने पर, जैसे वह उसे धर्म-पुण्य मे व्यय करता है, वैसे ही वह अपनी पुत्री आदि को भी देने का ममत्व त्याग नही पाता।
इसी प्रकार जिसका अब कोई स्वामी नही रह गया हो, ऐसा कही गडा हुआ परिग्रह मिल जाय, तो भी वह उसे अपने स्वजनो को देने का ममत्व त्याग नहीं पाता।