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तत्त्व-विभाग-पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक [२७१ जीर्ण पात्रादि, ८. देह =निर्जीव शरीर, तथा ऐसे ही अन्य लोच किए हुए केशादि ।
२. क्षेत्र से-अनापात प्रादि दश बोल शुद्ध स्थण्डिल में (परिस्थापना भूमि में) उच्चारादि का परिस्थापन करे ।
स्थण्डिल के दश बोल की गाथाएँ
प्रणावाय' मसंलोए परस्सणुवघाइए। समे प्रभुसिरे वा व, प्रचिर काल' कयम्मिय । विच्छिन्ने दूरमोगाढे", रणासन्ने बिलवजिए। तसपारण'' बीय रहिए, उच्चाराइरिण वोसिरे ।
अनापात' असलोक, पर अनुपघातिक' । सम' अशुषिर तथा अचिर कालकृत मे । विस्तीर्ण दूरावगाढ, आसन्न-बिल वजित | प्रस प्राण'' बीज रहित, मे मलादि त्याग करे।
१. अरणावायमसंलोए (प्रनापात प्रसंलोक): जहां लोगो का माना जाना न होता हो, तथा लोगो की दृष्टि न पड़ती हो, वहाँ परिस्थापन करे।
२. परस्सणुवघाइए- (परानुपघातिक ) : जहाँ परिस्थापन करने से १. संयम का उपघात (छह काय विराधना) २. प्रात्मा का उपघात (शरीर विराधना) तथा ३ प्रवचन उपधात (शासन की निन्दा) न हो, वैसी भूमि मे वहां परिस्थापन करे।
३. समे (सम) : जहाँ ऊंची-नीची विषम भूमि न हो, वहाँ परिस्थापन करे।