________________
सूत्र-विभाग-३. 'इच्छामि ठाएमि' [ १५ १. अनाभोग (प्रत्याख्यान की स्मृति न रहना, 'ऐसा करने से व्रत मे दोष लगता है'- इसका ज्ञान न होना, मैने जो प्रत्याख्यान लिया है, 'उसमें इसका भी त्याग सम्मिलित है'इसका भान न होना आदि) से तथा २ सहसाकार (प्रत्याख्यान की रक्षा करने की भावना और प्रवृत्ति होते हुए भी अकस्मात् 'बलात्कार हो जाना आदि) से व्रत मे केवल मन्द अतिचार लगता है। इन दोनो से अनाचार नहीं होता।
शेष आतुरता (भूख-प्यास आदि से अत्यन्त पीडित हो जाने) से, २ आपत्ति (रोग आदि) से, ३. शंका (ऐसा करने से मेरे प्रत्याख्यान मे अतिचार लगेगा या नही-ऐसे सदेह) से, ४ भय (देवादि के भय) से तथा ५. विमर्श (किसी की परीक्षा के लिए अपने प्रत्याख्यान के प्रति गौरणता आ जाने से) प्रत्याख्यान मे कुछ दोष लगाना मध्यम अतिचार है और पूरा दोष लगा देना कभी तीन अतिचार होता है, तो कभी अनाचार भी हो जाता है।
- प्र० . अतिचारो का प्रायश्चित्त बताइये।
उ० मन्द अतिचार का प्रायश्चित्त 'हार्दिक पश्चात्ताप' 'मिच्छा मि दुक्कड' है। मध्यम और 'तीव्र अतिचारो का ‘प्रायश्चित्त नवकारसी (नमस्कार सहित) आदि है। "अनाचार के पश्चात् पुनः व्रत लेना पडता है ।