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________________ सूत्र-विभाग–११ 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत' निबन्ध [.६७ विवाह हो रहा हो, उसके साथ स्वय विवाह कर लेना आदि । प्र० : कामभोग की तीव्र प्रभिलाषा मे और क्या .सम्मिलित हैं ? उ० : विशेष कामभोग की भावना से बाजीकरण, वीर्यवर्धन करना आदि। निबंध १. सूक्त: १ तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं, सब प्रकार के तपो मे ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। -सूत्र । २. एक. ब्रह्मचर्य का आराधन करने से सभी गुणो का पाराधन हो जाता है।-प्रश्न । ३ अब्रह्मचर्य को जीता हुआ समुद्र पार कर चुका, केवल नदी शेष है- उत्तरा०। ४. इन्द्र, चक्रवर्ती, 'वासुदेव, राजा, युगलिक आदि सभी काम-भोग से अतृप्त ही मरते है।-प्रश्नः । २. उद्देश्य : अब्रह्मचर्य के खुजली के समान विकृत और तुच्छ सुख से हटाकर आत्मा को ब्रह्मचर्य के नीरोगता के समान श्रेष्ठ अविकार सुख की प्राप्ति कराना। ३. स्थान :१ हिंसा, २ झूठ और ३. चोरी-ये तीनो ही पाप १ प्राणो के प्रति राग, २. स्त्री के प्रति राग और ३. धन आदि के प्रति राग के कारण होते हैं और जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है और रागद्वेष ही त्याज्य है। , उनमे भी राग का त्याग मुख्य है, पर राग पाप है-यह समझ मे आना कठिन होता है, अत. शास्त्रकारो ने राग के त्याग-रूप व्रत को तीनो के पश्चात् स्थान दिया है। दूसरी बात: यह भी है कि हिंसा, झूठ और चोरी के त्याग के पश्चात् इन तीनो का- राग वहुतारा मे प्रायः मन्द पड़, जाता है। इसलिए भी इनका त्याग
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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