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सुबोध जैन पाठमाला - भाग २
किसी अपेक्षा गौण हो जाता है । अतएव भी इनके त्याग को पीछे स्थान दिया है. !
इन तीनो मे प्राणो पर राग सबसे अधिक, उससे कम स्त्री पर और उससे कम धनादि पर होता है । प्रत प्राणो के राग का त्याग सबसे ही मुख्य है । पर प्रारण मोक्ष-आराधना भी उपयोगी हैं, अत. व्यावहारिक दृष्टि से उनका त्याग सम्भव नही । अत उसके पश्चात् शेष दोनो रागो मे स्त्री- राग का त्याग मुख्य होने से धनादि के राग के त्याग से पहले 'मैथुन विरमरण' को चौथा स्थान दिया गया है ।
४. फल : स्थूल मैथुन सम्बन्धी सकल्प-विकल्प से मुक्ति । स्वदार मे अधिक प्रासक्ति की मन्दता । शरीर नोरोग, हृदय बलवान, इन्द्रियाँ सतेज, बुद्धि तीक्ष्ण और चित्त स्वस्थ | अल्पायु न हो, दुराचार की आशका व ग्रारोप न हो । भवान्तर मे उक्त फल के साथ नपुसक या स्त्री न बने, नपुसक न बनाया जाये, स्त्री-प्राप्ति में कठिनता, स्त्री- वियोग या स्त्री- मृत्यु न हो, स्वत ब्रह्मचर्य पालन की भावना हो ।
५. कर्त्तव्य : अन्य स्त्री की आवश्यक कथा न करना, शब्द न सुनना, रूप न देखना, परिचय न करना, साथ मे गमन, भोजन, गान आदि न करना । अश्लील साहित्य, चित्र, नाटकादि से परे रहना । रात्रि भोजन, गरिष्ट भोजन आदि से बचना ।
६. भावना : सूक्तादि पर विचार करना । पूर्ण 'ब्रह्मचारी कब बनूंगा ?" यह मनोरथ करना । ब्रह्मचर्य की अपूर्णता पर खेद करना । भोग्य स्त्री- देह की अशुचिता का, अनित्यता का और स्त्री की स्वार्थपरता का चिन्तन करना । ब्रह्मचयं के
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