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सुबोध जैन पाठमाला भाग २ उ० : अशुद्धि आदि मे स्वाध्याय करने से - ज्ञान के प्रति अनादर होता है, लोकनिन्दा होती है। विषम समय मे स्वाध्याय से देवकोपादि हानि होती है। अत ये अतिचार भी हेय हैं।
प्र० : 'स्वाध्याय करूँगा' इत्यादि व्रत-प्रत्याख्यान लिए बिना 'काल मे स्वाध्याय न किया हो' आदि अतिचार लगते ही नही, तब उनका प्रतिक्रमण क्यों किया जाय ?
उ० : प्रतिक्रमण केवल अतिचार-शुद्धि के लिए ही नहीं, वरन् अतिचारो के ज्ञान, उनके सम्बन्ध मे शुद्ध श्रद्धा, उन्हे टालने की भावना आदि के लिए भी किया जाता है-यह प्रवेश प्रश्नोत्तरी मे विस्तार से बताया जा चुका है। मुख्य रूप से यह पुन दुहराया जाता है कि जैसे 'मैं चोरी नहीं करूंगा' -इस व्रत को लेने पर, जैसे चोरी करने से पाप लगता है, वैसे ही चोरी का व्रत न लेने वाले को भी.चोरी करने पर पाप लगता ही है-भले ही वह व्रत के अतिचार रूप से न लगे। वह पाप से मुक्त नहीं रहता। अतः जैसे व्रत-धारी और अव्रती दोनो को चोरी के पाप का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, वैसे ही स्वाध्याय आदि का नियम न लेने वाले को भी कालस्वाध्याय आदि न करने का प्रतिक्रमण करना ही चाहिये। क्योकि उसे भी काल-स्वाध्याय न करने आदि का पाप लगता ही है। यह उत्तर उन सभी अंतिचारो के लिए समझना चाहिए, जिनके सम्बन्ध मे उपर्युक्त प्रश्न उठता हो ।
प्रत्याख्यान
मैं नित्य ......... सूत्र......" अर्थ ...." स्तोक (थोकडा) कंठस्थ करूँगा तथा..... "सूत्र ......, अर्थ .... " स्तोक