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६२ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ देना। इसी प्रकार अल्प मूल्य वाली या वनावटी वस्तु को वहुमूल्य जैसी और वास्तविक जैसी बनाकर बेचना या ऊपर लेवल अच्छा लगाकर भीतर खोटी वस्तु रखकर वेचना ग्रादि ।
निबंध १ सूक्त : १. लोभाविले पाययइ प्रदत्तं, लोभी चोरी करता है। उत्तरा०। २. साधु-मुनि दॉत-शोधन के लिए तृण भी विना अाज्ञा नहीं उठाते।- दशव० । ३ पराया धन मिट्टी के समान समझो।
२. उद्देश्य : चोरी को हटाकर साहूकारी स्थापन करना।
३. स्थान : सामान्यतया झूठ बोलना अपेक्षाकृत विशेष राग-द्वेष से होता है। झूठ सव ही द्रव्यो के विषय मे अधिक स्थान मे जव कभी बोला जा सकता है और उसका परिणाम भी अधिक लोगो के लिए दुःखदायी होता है तथा सामान्यतया झूठ की अपेक्षा चोरी मन्द राग-द्वेष से होती है, झूठ के योग्य द्रव्य, क्षेत्र और काल बहुत कम होते हैं और चोरी अपेक्षाकृत कम लोगो के लिए दु.खप्रद बनती है। अतः झूठ के त्याग से चोरी का त्याग गौण है। इसलिए अदत्तादान विरमण को तीसरा स्थान दिया है।
४. फल : स्थूल अदत्तादान सम्बन्धी सकल्प-विकल्प से मुक्ति। लोग चोरी की आशको न करे, चोरी का आरोप न लगावें। व्यापार मे प्रतिष्ठा, नौकरी की सुलभता। भडार आदि मे प्रवेश, भण्डारी आदि पद की प्राप्ति ।
भवान्तर मे उक्त फल के साथ अचौर्यवृत्ति हो, असुरक्षित स्थान मे भी निजी सम्पत्ति की सुरक्षा हो, राजा की सम्पत्ति