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________________ २७६ ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ . २. क्षेत्र से सब क्षेत्र मे (अशुभ वचन योग रोके । शुभ वचन योग मे प्रवृत्ति करे ।) ३. काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय । योग में प्रवृत्ति करे, उस समय (अशुभ वचन योग रोके शुभ वचन योग मे प्रवृत्ति करे।) ४. भाव से -१ संरंभ २. समारंभ और ३ प्र वाले वचन योग को वर्ज (छोड़) कर राग-द्वेष रहित उपयोग सहित अनारंभी वचन योग की प्रवृत्ति करे । १. वचन का संरंभ 'मैं इसे परितापना' दूंगा मारूंगा।' ऐसा वाणी से सक्लिष्ट (अशुभ) शब्द बोलना। २. वचन का समारभ : किसी प्राणी को वाणी सक्लिष्ट (अशुभ) मत्र, जाप आदि के द्वारा परितापना देना ३. वचन का प्रारंभ : किसी प्राणो को वाणी संक्लिष्ट (अशुभ) मंत्र, जाप आदि के द्वारा मार देना। ४. वचन का अनारंभ : किसी प्राणी को परितापन पहुँचे तथा मृत्यु न हो, ऐसी वचन की विशुद्ध (शुभ) प्रर करना। तीसरी कायगुप्ति का स्वरूप कायगुप्ति : प्राणातिपात आदि पापो से बचने के नि अात्मा के उत्तम परिणामो से, काया की अशुभ प्रवृति रोकना ।।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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