________________
तत्त्व-विभाग- पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २७७
कायगुप्ति के चार भेद-१. द्रव्य २. क्षेत्र ३. काल ४. भाव।
१. द्रव्य से-१. गमन ( = चलने मे) २. स्थान (=खडे रहने मे) ३. निषोदन (=बैठने मे) ४. त्वग्वर्तन (=पासा पलटने मे, सोने मे) ५. उल्लघन (= देहली आदि छोटी ऊँचाई नीचाई लांघने मे) ६. प्रलंघन (= खाड, शिला, लकडा आदि बडी ऊँचाई नीचाई लाघने मे) ७. सर्व इन्द्रिय काय योग योजन में (अधिक क्या कहे ? इत्यादि सभी प्रकार के इन्द्रिय और काया के व्यापार मे) अशुभ काययोग को रोके, शुभ काय योग को प्रवृत्ति करे।
२. क्षेत्र से - सब क्षेत्र मे (अशुभकाय योग रोके और शुभ काय योग मे प्रवृत्ति करे।
३. काल से-यावज्जीवन तक या जिस समय काय योग मे प्रवृत्ति करे, उस समय (अशुभ काय योग को रोके और शुभ काय योग की प्रवृत्ति करे।)
४. भाव से - उपयोग सहित प्रारभ, सरंभ और समारभ वाले काय योग को वर्ज (छोड़) कर (राग-द्वेष रहित तथा उपयोग सहित ) अनारभी काय योग की प्रवृत्ति करे।
१. काया का सरभ : किसी प्राणी को परिताप देने या मारने के लिए हाथ, शस्त्र आदि उठाना ।
२. काया का समारभ : किसी प्राणी को हाथ, शस्त्र आदि चलाकर परितापना देना।
३. काया का प्रारभ : किसी प्राणी को हाथ, शस्त्र आदि से मार देना।