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सुवोध जैन पाठमाला – भाग २
१०. विराय ( विनय ) : ( श्रभ्युत्थान = बडो के आने पर उठकर खडा होना आदि दश प्रकार की ) विनय करता हुआ जीव करता है ।
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११. श्रावस्सए (आवश्यक) : उभय काल उपयोग सहित दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण करता हुआ जीव करता है ।
१२ सीलव्वए ( शील - व्रत) : लिए हुए ( महाव्रत या अणुव्रत रूप ) मूलगुरण प्रत्याख्यान तथा ( समिति गुप्ति या गुरणव्रत - शिक्षाव्रत अथवा नमस्कार सहित आदि रूप ) उत्तर गुण प्रत्याख्यान अतिचार रहित शुद्ध ( निर्मल) पालता हुआ जीव करता है ।
१३. खरग लव ( क्षरण लव) : थोडा भी प्रमाद न करता हुमा (अर्थात् प्रतिक्षण वैराग्यभाव रखता हुग्रा, धर्म-शुक्ल ध्यान ध्याता हुआ तथा प्रार्त रौद्र ध्यान वर्जना हुना) जोव करता है ।
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१४. तव (तप) : एकान्तर, मास-मास क्षमरण (तप) ग्रादि विकृष्ट (बड़ी ) तपश्चर्या करता हुआ जीव करता है ।
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१५. चियाए (त्याग) : (द्रव्य से गौचरी मे ग्राधाकर्मी यदि श्राये हुए अशुद्ध प्रहार यादि को परिवता हुआ तथा भाव से क्रोध आदि को त्यागता हुआ और ) द्रव्य से प्रासुक एपणीय ग्राहार आदि तथा 'भाव' से ज्ञान आदि सुपात्र को देता करता है । हुआ जीव
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१६ वेयावच्चे (वैयावृत्य ) : ( अरिहन्त वैयावृत्य श्रादि दश प्रकार की ) वैयावृत्य करता हुआ जीव करता है ।
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