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________________ सूत्र-विभाग-३५ 'रात्रि-मोजन त्याग' निबन्ध [२१५ लम्बी या बार बार यात्राएँ असम्भव या कठिन होती हैं, वे रुकती हैं। ७. १० भोजन के काम में आने वाले द्रव्यो का काल से यावज्जीवन के लिए या प्रतिदिन के लिए परिमारण होता है। ८ दिन मे भोजन बनाने और करने की अनुकूलता होते हुए भी, रात्रि भोजन के व्यसन के कारण जो रात्रि में भोजन बनाया और किया जाता है, और इस प्रकार अनर्थ दण्ड लगाया जाता है, वह छूटता है। ६ जब घर का एक प्राणी रात्रि भोजन करता है, विशेषतया मुखिया प्राणी रात्रि भोजन करता है, तो धीरे धीरे अन्य प्राणो भी रात्रि भोजन की ओर झुकते हैं। इससे उसके स्वय के और अन्य के जीवन मे से सायकाल की सामायिक प्रतिक्रमण आदि की क्रियाएँ दूर होती हैं और कुछ भावना वाले जीवो को अन्तराय पडती है। ये दूषण दूर होते है। ११. रात्रि भोजन के व्यसन से उपवास, पौषध, सवर आदि मे पाने वाली असमर्थता नही आतो। १२ सायकाल मे भी साधुदान का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार रात्रि भोजन के त्याग से बारह ही 'व्रतो को लाभ पहुँचता है। लौकिक लाभ-वैद्यक ग्रन्थों मे बताया है कि १ रात्रि को पाचक ग्रन्थियाँ आदि सकुचित हो जाती हैं, अतः रात्रि भोजन से भोजन बराबर पचता नहीं है। २ बार बार रात्रि भोजन करने से अजीर्ण रोग हो जाता है। ३ रात्रि भोजन करने से . वीर्यपात होकर शक्ति घटती है। ४ सूर्य प्रकाश मे भोजन करने से जो पुष्टि मिलती है । रात्रि भोजन मे सूर्य प्रकाश नही मिलने से, वह पुष्टि नहीं मिलती। ५ रात्रि भोजन करते समय मक्खी आदि स्पष्ट और शीघ्र दिखाई नहीं देती और खाने मे अा जाती है। मनखी खाने मे आ जाने से वमन, कीडी से
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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