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१२२ ] सुबोध जन पाठमाला-भाग २ को नित्य मनोरथ करना चाहिए। इसलिए उसका यहाँ उल्लेख किया है। उससे यहाँ सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र के पश्चात् उपवास आदि सभी प्रकार के सम्यक्तप समझ लेने चाहिये। उपवासादि के प्रत्याख्यान-पाठ छठे 'प्रत्याख्यान आवश्यक' मे आयेगे।
प्र० : तप के अतिचार बताइए।
उ० : जो सलेखना के अतिचार हैं, प्रायः वे ही तप के अतिचार हैं-जैसे १. इस लोक के सुख की इच्छा करना २. परलोक के सुख की इच्छा करना ३. प्रशसा के लिए अधिक तप करना ४. अशाता देखकर (तप क्यो किया ? तप शीघ्र पूरा हो, आदि) चिन्ता करना ५. (आहारादि की या देव प्रदत्त) कामभोगो की इच्छा करना।
प्र० : तप के फल बताइए।
उ० १ इहलोक दृष्टि से बाह्य तप से शरीर के रोग तथा विकार नष्ट होते हैं, शरोर दृढ वनता है। आभ्यन्तरतप से लोगो मे प्रीति, आदर, विनय आदि होता है। आध्यात्म दृष्टि से आत्मा के कर्म रोग तथा कर्म विकार नष्ट होकर आत्मा सशक्त बनती है, लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, देव सेवा करते है, इत्यादि तप के कई फल हैं।
प्र० नित्य रात्रि को सलेखना कैसे करनी चाहिए?
उ० - उसकी विधि भी मारणान्तिक सलेखना के समान ही है। विशेष 'विहरामि' इस पाठ से आगे 'यदि उलूं, तब तक जीऊँ, तो मुझे अनशन पारना कल्पता है अन्यथा यावज्जीवन अनशन है।' इतना और कहना चाहिए। तथा प्रात: