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सुबोध जैन पाठमाला
प्र० प्रतिक्रमण किसे कहते है
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-भाग २
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उ० १. अब तक यदि ज्ञान - दर्शन - चारित्र को स्वीकार
न किया हो, तो उसका पश्चात्ताप करना । ज्ञान- दर्शन - चारित्र में लगे प्रतिचारो के प्रति 'मिच्छामि दुक्कड' देना
पश्चात्तापपूर्वक
३ प्रतिचारो से लौटकर आचार मे आना । प्रशुभ उदय भाव से क्षयोपशम आदि शुभ भावो मे आना ।
२. स्वीकृत हृदय से ( कहना । |
४ कर्मों के
प्र० प्रतिक्रमरण आवश्यक क्यो हैं ?
उ०
१. सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन ग्रहण करते समय श्रर्थात् सम्यक्त्व ग्रहण करते समय यदि पहले किये हुए पापो का पश्चात्ताप रूप प्रतिक्रमण नही किया जाता, तो पूर्व के पापो का ग्रनुमोदन आता रहता है और ली हुई सम्यक्त्व दृढ नही वन पाती । इसी प्रकार चारित्र ग्रहण करते समय यदि पूर्व के पापो का पश्चात्ताप - रूप प्रतिक्रमण नही किया जाता, तो पूर्व के पापो का अनुमोदन आता रहता है और लिया हुआ चारित्र दृढ नही बन पाता । श्रत प्रतिक्रमण श्रावश्यक है । २. जैसे मार्ग मे चलते हुए प्रनाभोग, प्रमाद आदि से प्राय पैर मे काँटे लग जाते है, उन्हे निकालना आवश्यक होता है । यदि उन्हे न निकाला जाय, तो वे गति मे मन्दता उत्पन्न कर देते है । कभी-कभी पैरो मे विष फैलाते हुए वे पैरो मे चलने की शक्ति सर्वथा नष्ट कर देते हैं। वैसे ही सम्यग्ज्ञानादि ग्रहण करने के पश्चात् अनाभोग, प्रमाद यादि से अतिचार रूप काँटे प्राय लग ही जाते है । उत्त अतिचारो को दूर न किया जाय, तो वे जीव को विराधक बनाकर मोक्ष पहुँचने की गति मे मन्दता उत्पन्न कर देते हैं । कभी-कभी तो वे प्रतिचार, सम्यक्त्व आदि