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________________ ४० । सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ पंच अइयारा पेयाला : (पाँच प्रधान अतिचार जारिणयव्या : जो जानने योग्य हैं, किन्तु न समायरियव्वा' : पाचरण करने योग्य नहीं है। तंजहा : वे इस प्रकार हैं-उनमे से) ते पालो : जो कोई अतिचार लगा हो तो __ आलोउ१. संका : श्री जिन-वचन मे शंका की हो, २. कंखा : पर-दर्शन की आकाक्षा की हो, ३. वितिगिच्छा . धर्म के फल में संदेह किया हो, (या त्याग-वृत्ति के कारण शरीर-वलपात्र आदि मलिन देख कर संत सतियो की घृणा की हो) ४, परपासंड-पसंसा : पर-पाखण्डी (अन्य मती) की प्रशंसा की हो, ५. परपासंड-संयवो पर-पाखण्डी का परिचय किया हो, प्रतिक्रमगा पाठ जो मे देवसिमो : मेरे' सम्यक्त्व-रूप रत्न पर (दिन । प्रइयारो को : सम्बन्धी) मिथ्यात्व-रूपी रज मैल __ लगा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कई । 'अरिहन्तो महदेवो' प्रश्नोत्तरी प्र० . तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानियो की सेवा क्यों करनी चाहिए? . उ० : इसलिए कि ये दोनो बोल १. नूतन ज्ञान-प्राप्ति, २प्राचीन सदेह-निवारण, ३ सत्यासत्य निर्णय, ४,अतिचार-शुद्धि
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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