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सूत्र-विभाग-७. 'अरिहतो महदेवो' प्रश्नोत्तरी । ४१ और ५ नव प्रेरणा आदि करके हमारे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को दृढ, शुद्ध और घन बनाते है।
प्र० . सम्यक्त्व-भ्रष्ट की और प्रत्यमती की संगति आदि क्यों छोड़नी चाहिए?
उ. इसलिए कि-'ये दोनों बोल सम्यग्ज्ञानादि की हानि को रोकते है, क्योकि जो स्वय सम्यक्त्वादि से भ्रष्ट होता है, उसकी सगति करने पर वह दूसरों को भी सम्यक्त्वादि से गिराता है और जिसकी मिथ्याष्टि होती है, उसकी सगति करने पर वह दूसरो को भी मिय्यादृष्टि बनाता है।
प्र० ' क्या इनका परिचय सबको छोडना चाहिए?
उ० • नही, जो ज्ञानादि में परिपक्व हो, वह सम्यकत्वादि मे लाने के लिए भ्रष्ट और मिथ्यात्वी को अपने परिचय मे लावे, तो कोई बाधा नहीं है।
प्र० : जिन-वचन में शंका क्या होती है और उसे कैसे दूर करनी चाहिये।
उ० • श्री जिन-वचन में कई स्थानो पर सूक्ष्म तत्वों का विवेचन हुआ है, कई स्थानो पर नय और निक्षेप के आधार पर चर्णन हुआ है। वह स्थूल बुद्धि से समझ में न आने के कारण शका हो जाती है कि-'ये वचन सत्य कैसे हो सकते हैं।' तब अरिहतो के केवल ज्ञान और वीतरागता का विचार करके तथा अपनो बुद्धि को सन्दता कर विचार करके ऐमी शका दूर करनी चाहिये।
'प्र० ' क्या जिज्ञासा-रूप शका अतिचार है ? उ० : नही। पर हों, उसका भी ज्ञानियो से शीघ्र