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सूत्र-विभाग - ३२ पांच पदों की वन्दनाएँ [ १८७ इन पन्द्रह भेद या अन्य चौदह भेद से अनन्त सिद्ध हुए हैं। . जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, दुःख नहीं, दारिद्रय नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, चाकर नहीं, ठाकुर नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, वहाँ (एव)ज्योति में (अन्य ) ज्योति (ज्यो, एक क्षेत्र मे अनन्त सिद्ध) विराजमान है। सकल कार्य सिद्ध करके (अर्थात्) पाठ कम खपाकर (क्षय कर) मोक्ष पहुँचे हैं। १. अनन्त ज्ञान : ज्ञानावरणीय क्षय से उत्पन्न हुना २ अनन्त दर्शन : दर्शनावरणीय क्षय से उत्पन्न हुआ ३ अनन्त सुख : वेदनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ४. क्षायिक सम्यक्त्व : मोहनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ५. अटल अवगाहना : अायुष्यकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ६. प्रमूर्ति
: नामकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ७. अगुरुलबु : गोत्रकर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ ८. अनन्तवीर्य : अन्त राय कर्म के क्षय से उत्पन्न हुआ -ये अठ (आत्मिक) गुरण सहित हैं ।
सवैया सकल करम टाल, वश कर लियो काल, मुगति मे रह्या माल (आनद मे झूलना), आत्मा को तारी है। देखत सकल भाव, हुआ है जगत राव (राजा) सदा ही क्षायिक भाव, भये अविकारी हैं। अटल अचल रूप, आवे नही भव कूप, अनूप स्वरूप ऊप, ऐसे सिद्ध (पद) धारी है। कहत है तिलोक रिख, बताओ ए वास प्रभु, सदा ही उगते सूर, वदना हमारी है ॥२॥
ऐसे श्री सिद्ध भगवन् ! . . क्षमा करिये। हाथ जोड़ मान मोड़ . .. .. नमस्कार करता हूँ।