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सूत्र-विभाग-२४. 'चौदह सम्मूच्छिम' का पाठ [ १३६ होती है ?' यह समझना कठिन है, पर इसे समझना अत्यन्त आवश्यक भी है। क्योकि मिथ्यात्व अट्ठारह ही पापो मे सबसे बडा व भयकर पाप है। यदि इस मेरु पर्वत के समान अकेले पाप के सामने हिंसादि १७ ही पाप मिलाकर रख दिये जायँ, तो भी वे इसके तुल्य नहीं हो सकते, राई-वत् ही रहते हैं। अत इसे स्पष्ट समझाने के लिए पहले 'जीव को अजीवश्रद्धे' इत्यादि मिथ्यात्व के दश भेद किये हैं, फिर आभिग्रहिक आदि -पॉच भेद किये हैं, फिर लौकिक आदि तीन, पुनः न्यूनादि तीन
और पुन प्रक्रिया, अज्ञान ये दो और पुनः अविनय, आशातना ये दो भेद क्येि हैं। इस प्रकार सब भेद २५ किये हैं।
पाठ २४ चौबीसा
२१. 'चौदह सम्मच्छिम' का पाठ
१ उच्चारेसु वा २. पासवरणेसु वा ३. खेलेसु वा ४ सिंघारणेसु वा ५. वंतेसु वा ६. पित्तेसु वा ७. सोरिएएसु वा ८. पुइएसु वा ६. सुक्केसु वा
: (मनुष्य के) उच्चार (विष्ठा) में : प्रश्रवण (मूत्र) में : खेल (मुख के खेकार) में | : सिंघारण (नाक के सेडे) में : वमन (सामान्य उल्टी) में : पित्त (की विशिष्ट उल्टो) में : शोणित (सामान्य रक्त, लोही) में : पू (सडे हुए लोही) मे • शुक (रज-वीर्य) मे