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________________ १३८ । सुवोध जैन पाठमाला-भाग २ प्र० . देखा यह जाता है कि 'मिथ्यात्व प्रतिपादन से कुछ लोगो मे राग-द्वेष तीव्र बनते हैं। उ० : जिनमें ऐसा हुया है, उनको मिथ्यात्व प्रतिपादन का वास्तविक उद्देश्य बता कर उन्हे अशुद्ध देवादि के प्रति सहिष्णु बनाना चाहिए व वैर-विरोध व असत्य निन्दा आदि से बचाना चाहिए। अच्छे-से-अच्छे पदार्थ का दुरुपयोग हो सकता है, उसका सुधार ही एक मात्र उपाय है। दुरुपयोग के भय से अच्छे पदार्थ छोडे नहीं जा सकते या उनके प्रतिपादन को त्यागा नहीं जा सकता। प्र० : मिथ्यात्व प्रतिपादन के द्वारा राग-द्वेष को नई मोड मिले बिना सीधे हो राग-द्वेष को नष्ट करने का अन्य उपाय नहीं है क्या? उ० : नहीं, क्योकि जीव अनादि काल से राग-द्वेषग्रस्त रहा है, अत. सीधे ही उसका राग-द्वेष नष्ट होना संभव नहीं। प्र० : व्यवहार मे सत्य के प्रति राम और असत्य के विमुखता होने को राग-द्वेष की सज्ञा दी जा सकती है क्या? उ. नहीं,जैसे सोना और पीतल, केतकी और कणिकार, सूर्य और पतगिये मे यदि लोगो का स्वर्ण, केतकी और सूर्य के प्रति अनुराम तथा पीतल... कणिकार और पतगिये. के प्रति विमुखता हो, तो उसे व्यवहार मे राग-द्वेष न कह कर गुणज्ञता ही कही जाती है। प्र० · मिथ्यात्व कितने है ? उ० : वैसे तो मिथ्यात्व एक ही है और वह है 'मिध्या श्रद्धा, परन्तु 'मिथ्या श्रद्धा किन बातो पर और किस प्रकार
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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