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________________ तत्त्व-विभाग- श्राठवाँ बोल : 'पन्द्रह योग' [ 'PRE २. मोक्ष की ओर ले जाने वाले हित-साधक विचार करना । ३ निरवद्य ( = हिंसादि पाप रहित ) विचार करना । २. असत्य मनोयोग : १. जीवादि नव तत्त्वो के या जीवादि छह द्रव्यो के विषय मे असत्य ( = प्रयथार्थ, मिथ्या ) विचार करना । २ ससार बढाने वाले हित-विरोधी विचार करना । ३ सावद्य ( हिंसादि पाप सहित ) विचार करना । ४ क्रोधादि कषाय मे आकर विचार करना । ३ मिश्र ( सत्यामृषा ) मनोयोग : जिसमे सच झूठ दोनो हो, ऐसा मिश्र विचार करना । जैसे किसी वन मे आम के वृक्षो की अधिकता हो और उसमे जामुन, कबीठ आदि वृक्षो की अल्पता हो, तो उसके विषय मे 'यह आम का 'ही' वन है । ऐसा एकान्त विचार करना । उस वन मे आम के वृक्ष होने से यह विचार सत्य भी है और जामुनादि के भी वृक्ष होने से यह विचार असत्य भी है। यदि उदाहरण के लिए दिये गये 'विचारो में 'ही' नही होता तो, वह विचार सत्य मनोयोग मे माना जाता । ४. व्यवहार ( सत्यामृषा ) मनोयोग : जिस मे सच झूठ दोनो न हो या किसी विषय को सत्य या असत्य सिद्ध करने की भावना न हो, ऐसा विचार करना । जैसे-याचना, पृच्छना, आमन्त्रण आदि का विचार करना । वचन के चार योग १. सत्यवचन योग (सत्य भाषा) २. असत्यवचन योग (असत्य भाषा) ३. मिश्र वचन योग (मिश्र भाषा) श्रौर ४. व्यवहार वचन योग ( व्यवहार भाषा )
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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