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सूत्र-विभाग--१८. 'शिक्षाव्रत' निबन्ध [ १०६ ३. स्थान : पहले ८ आठ व्रतो मे जो व्रत मुख्य था, उसे पहले और जो व्रत गौरण था, उसे पीछे स्थान दिया था, पर इन तीनो मे जो व्रत गौरण है, उसे पहले और जो मुख्य है, उसे पीछे स्थान दिया है। इस कारण ८ व्रतो के पश्चात् अल्पकाल का होने से सामायिक को ह वा स्थान दिया है। सामायिक से अधिक काल का होने से दिशावकाशिक को १० वाँ स्थान दिया है तथा दिशावकाशिक से अधिक सवरयुक्त होने से पौपध को ११ वॉ स्थान दिया है।
४. फल : १. सामायिक से एकेन्द्रियादि जीवो को भी अभयदान मिलता है। सर्वजगज्जीव-मैत्री का पालन होता है। सामायिक के प्रभाव से पूर्व के पाठ व्रत अधिक निर्मल, अधिक बलवान् और अधिक विकसित बनते है। २ दिशावकाशिक पूर्व के पाठ व्रतो का सक्षेप रूप होने से उन आठ व्रतो से जो फल हैं, वे और भी अधिक रूप मे मिलते हैं। ३. 'पौषध' सामायिक व्रत का ही लम्बे काल का विशिष्ट रूप होने से उससे सामायिक के ही फल विशेष रूप मे मिलते हैं।
५. कर्त्तव्य : सामायिक और पौषध के काल तक जागृत अवस्था मे मन मे धर्म-विचार करना, आहार, काम-भोग, शरीर-सत्कार, घर-व्यापार आदि के विचार न करना। मुख से धर्म-कथा, शास्त्र-स्वाध्याय, स्तुति आदि करना, घर, व्यापार, स्त्री, भोजन, देश, राज्य आदि की विकथाएँ न करना । काया को उचित आसन से रखना और रात्रि को यतना से सोना। इस प्रकार तीन गुप्ति का पालन करना। यतना से चलना, विवेक से बोलना, यदि गौचरी की दया की हो, तो निर्दोष गौचरी करना और राग-द्वेष रहित परिमित आहार करना, यतना से उठाना-रखना, देख पूज कर परठना। इस प्रकार पांच