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१०८ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ ३ जाति-स्मरण, ४ देव-दर्शन और ५ अवधिज्ञान तक हो सकता है।
२. उद्देश्य : १. श्रावक गृहस्थी को त्यागने मे असमर्थ होने के कारण 'गृहस्थ जीवन कैसे अधिक-से-अधिक निष्पाप बने ?' यह बताने के लिए पहले के आठ व्रतो का कथन किया है। पर 'गृहस्थ सामान्यतया प्रतिदिन एक मुहूर्त भर के लिए तो गृहस्थी का त्याग करके साधु के समान आराधना कर सकता है।' अत उस उद्देश्य-पूर्ति के लिए सामायिक व्रत का कथन किया है।
२ 'पहले के आठ व्रत प्राय यावज्जीवन आदि लम्बे समय के लिए धारण किये जाते हैं। अत श्रावक लम्बे समय को ध्यान मे रखकर सम्पूर्ण पापो की अपेक्षा तो बहुत कम पाप शेष रखता है, पर प्रतिदिन लगाने वाले पापो की अपेक्षा बहुत अधिक पाप शेष रखता है। वे सब ही पाप सामायिक के द्वारा तो मुहूर्त भर के लिए दो करण तीन योग से रुक जाते हैं, पर शेष दिन भर के लिए वे पाप खुले हो रहते है। 'उनमे से उस दिन की अपेक्षा जितना पाप करना है, उसे रख कर शेष का त्याग किया जाय।' इस उद्देश्य से दिशावकाशिक व्रत का कथन किया है।
३ प्रतिमास या प्रति वर्ष मे श्रावक कुछ दिन-रात ऐसे भी निकाल सकता है, जिस दिन-रात को वह ३० ही मुहूर्त (२४ ही घटे) पापो का सर्वथा त्याग कर दे। इसलिए ऐसे उन दिनो को पूर्ण धर्ममय बनाने के उद्देश्य से ग्यारहवे व्रत का कथन किया है।