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सूत्र - विभाग - १ε 'अतिथि सविभाग व्रत निबन्ध [ ११५
-अन्त करता है - सग० । ३. वेश और गुरणयुक्त साधु श्रावक को दान देना उत्तम खेत मे अपना बीज बोना है- उत्तरा० ।
२. उद्देश्य : वेश और गुरणयुक्त साधु श्रावक को दान देकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा व अनुमोदना प्रकट करना, उनके धर्म पालन मे सहायक बनना तथा धर्मदान गुण को जीवनगत
बनाना ।
३. स्थान : पहले के ग्यारह व्रत कठिन हैं, क्योंकि उनको धारण करने मे स्वय को हिंसादि का त्याग करना होता है । परन्तु यह व्रत सरल है, क्योकि इसमे स्वय को कुछ भी त्याग नही करना पडता, केवल त्यागियो को दान ही देना पडता है | अतः सबसे सरल होने के नाते इस व्रत अन्त मे बारहवाँ स्थान दिया है ।
को सभी व्रतो के
४. कर्त्तव्य : साधुग्रो को कौनसी वस्तुएँ प्रावश्यक होती है ? वे शुद्ध ( सुझती ) कैसे रह सकती है ? साधुओ का योग कब कैसे मिल सकता है ? आदि बातो का ध्यान रखना । योग मिलने पर स्वागत करके निर्दोष वस्तुएँ स्वयं उलट भाव से देना | उन्हे चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, माता-पिता आदि के समान समझना | श्रावक-श्राविकाओं को भाई-बहन ज्यो समझना । चतुर्विध सघ के प्रति पूरा अनुराग रखना ।
५. भावना : सूक्तांदि पर विचार करना । 'धन्य हैं, वे जो ससार त्याग कर ग्रात्म-साधना कर रहे है । मैं धन्य हैं कि ससार-कीच मे फँसा हूँ । कम-से-कम मुझे उन्हें दान देने का स्वर्ण अवसर कब मिलेगा ? इसका मनोरथ करना ।