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________________ १८४ ] सुबोध जैन पाठमाला - भाग २ भूमि पर लगाये जाते हैं । फिर नमस्कार मंत्र पढकर निम्न वदनाएँ बोली जाती है । पाँच पदों की वन्दनाएँ पहले पद में श्री अरिहन्त भगवान् । ( ये एक काल मे) जघन्य (कम से कम ) ( महाविदेह क्षेत्र मे ) वीस, उत्कृष्ट (अधिकसे अधिक) (महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा) एक सौ साठ १६० तथा ( पन्द्रह कर्म भूमि की अपेक्षा) एक सौ सित्तर देवाधिदेव तीर्थंकर होते हैं । अभी वर्त्तमान काल में बीस बिहरमान ( विचरते हुए ) तीर्थकर महाविदेह क्षेत्र मे विचरते हैं । ( अरिहन्त भगवान ) एक हजार आठ १००८ लक्षण के धारक, चौंतीस प्रतिशय व पैतीस प्रतिशययुक्त वाणी से विराजमान, चौंसठ इन्द्रों के वन्दनीय, श्रट्ठारह दोष रहित, १. अनन्त ज्ञान २. ग्रनन्त दर्शन ३ ग्रनन्त चारित्र ४. श्रनन्त बलवीर्य ५. दिव्यध्वनि ६. भा-मण्डल ७. स्फटिक सिंहासन : केवलज्ञान - सम्पूर्ण ज्ञान केवलदर्शन-सम्पूर्णदर्शन : क्षायिक सम्कक्त्व व यथास्यात चारित्र : अनन्त शक्ति (ये चार गुण श्रात्मिक और ग्राम्यन्तर हैं, जो चार घाति कर्म क्षय होने से उत्पन्न होते हैं 1 ) : जो सभी को अपनी अपनी भाषा मे परिणमती है और ४ कोस तक सुनाई देती है : चारो ओर प्रकाश का घेराव : जिस पर विराजने से भगवान अवर दिखाई देते हैं | .
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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