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तत्त्व-विभाग-'पांच समिति तीन गुप्ति का स्तोक' [ २५३ इनसे भिन्न पर्यटन, इन्द्रियपोषण आदि किसी भी प्रयोजन के लिए एक पैर भी ऊपर न उठावे ।
___ २ काल से रात्रि को वर्जकर दिन को चले। ईर्या समिति का काल तीर्थंकरो ने दिन का ही, इसलिए बताया है कि दिन मे प्रकाश के कारण जीवो को देखते हुए और उनकी रक्षा करते हुए चलना सम्भव है। रात्रि को अन्धकार के कारण जीवो का दीखना और उनकी रक्षा करना सम्भव नही, इसलिए तीर्थंकरो ने रात्रि को चलने का निषेध किया है। उच्चार-प्रश्रवण आदि परटुवना हो, शय्यातर (स्थानदाता) ने स्थान छोड देने के लिए कहा हो,या शीलभंग का भय, आदि हो, तो इन अत्यन्त आवश्यक प्रयोजनो से रात्रि मे भी मर्यादित गमन किया जा सकता है।
३. मार्ग से उत्पथ को छोड़कर सुपथ मे चले। ईर्या समिति का मार्ग तीर्थंकरो ने सुपथ ही इसलिए बताया है कि सुपथ मे पृथ्वीकाय (=मिट्टी) प्राय अचित्त (=निर्जीव) रहती है, वनरपतिकाय और त्रसकाय का प्राय अभाव रहता है, जिससे १. सयम विराधना नहीं होती तथा सुपथ मे काँटे, कॅकर, पत्थर नहीं होते, जिससे २ आत्मविराधना (अपने शरीर की विराधना) भी नही होती। उत्पथ मे १. सयम विराधना और २ आत्म विराधना दोनो की सम्भावना रहती है, अतः तीर्थकरो ने उत्पथ में चलने का निषेध किया है।
यतना से चार प्रकार की यतना से चले। १. द्रव्य यतना में-प्रांखो से छह काय के जीव तथा कांटे प्रादि अजीव पदार्थों को देखकर चले। २ क्षेत्र यतना में शरीर प्रमाण (या युग प्रमारण, धूसरा प्रमारण) अर्थात् चार हाथ प्रमारण आगे की भूमि देखता हुआ चले। ३. कालयतना में जब तक गमनागमन करे