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________________ सूत्र-विभाग-१५ 'अनर्थ दण्ड प्रत' प्रश्नोत्तरी [६३ ४. संजुत्ताहिगरणे : अधिकरण (हिंसा के साधन) जोड रक्खा हो, ५. उवभोग-परिभोग : उपभोग-परिभोग (के द्रव्य) अधिक प्राइरित्ते बढाया हो, जे मे देवसिप्रो : इन अतिचारो मे से मुझे जो कोई अइयारो को दिन सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कड । 'अनर्थ दण्ड व्रत' प्रश्नोत्तरी प्र० : 'अपध्यान' किसे कहते हैं ? उ० रौद्र ध्यान करना, बिना कारण प्रार्तध्यान करना तथा सकारण तीव्र पार्तध्यान करना । प्र० . 'पमायाचरिए' किसे कहते हैं ? उ० · जैसे घर, व्यापार, सेवा आदि के कार्य करते समय बिना प्रयोजन हिंसादि पाप न हो, सप्रयोजन विशेष न होइसका ध्यान न रखना। हिंसादि के साधन या निमित्तो को जहाँ-तहाँ, ज्यो-त्यो रख देना। घर, व्यापार, सेवा आदि से बचे हुए अधिकाश समय को इन्द्रियो के विषयो मे (सिनेमा, शतरज आदि मे) व्यय कर देना। प्र० : शिक्षा, अनुभव प्रादि देने वाले नाटक या सिनेमा प्रादि देखना भी अनर्थदण्ड है क्या ? __उ० : 'इन्हे देखना सदा सबके लिए अनर्थ दण्ड होता है।' ऐसा एकान्त तो नही है, पर नाटक, सिनेमा आदि अधिकतया विषय, कषाय, विकथा भादि के साधन होते हैं।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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