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________________ ६४ ] सुबोध जैन पाठमाला--भाग २ अत व्यवहार-रक्षा के लिए इन्हे अनर्थ दण्ड समझ कर न देखना उपयुक्त है। पर यदि कोई देखना ही चाहे, तो उसे व्यवहार-रक्षा के लिए इनकी मर्यादा करके अनर्थ दण्ड मे आगार के रूप में रख लेना उचित है। प्र० हिंसप्पयाणे' किसे कहते है ? उ० : हिसा आदि पापो के साधन अस्त्र-शस्त्रादि या तत्सम्वन्धित साहित्य (जासूसी उपन्यास आदि) दूसरो को देना। प्र० . पाप कर्मोपदेश के दृष्टान्त दीजिए। उ० . जैसे किसी को कहना-'कदमूल, मद्य, मास आदि का सेवन करने से स्वास्थ्य और शक्ति बढती है (हिंसा), या न्यायालय मे इस प्रकार झूठ बोलने से तथा झूठी साक्षी देने से तुम सदोष होते हुए भी बच जायोगे (झूठ), या सरकारी पद पाये हो, तो कुछ बूंस आदि करके पैसा बनायो (चोरी), या जीवन को सुखमय व्यतीत करने के लिए दूसरा विवाह कर लो (मैथुन), या एक दुकान या एक मिल नई खोल लो (परिग्रह) इत्यादि। प्र. 'सजुत्ताहिगरणे' किसे कहते है ? उ० : पृथक्-पृथक् स्थानो पर पडे हुए शस्त्रो के अवयव, जैसे शिला और शिलापुत्र (लोढी), धनुष्य और तीर, बन्दूक और गोली-इनको मिला कर एक स्थान पर रखना, शस्त्रो का विशेष सग्रह रखना। ' प्र० : कन्ददि से कौन-कौनसे अनर्थदण्ड होते हैं ? उ०. कन्दर्प और कौत्कुच्य से अपध्यानाचरण और प्रमादाचरण होता है। मौखर्य से पापकर्मोपदेश हो सकता
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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