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सूत्र - विभाग -- २८. 'गोयरग्गचरियाए' का पाठ [ १५६
: भिखारी या साधु के लिए स्थापित भिक्षा ली हो,
ठवरणा- पाहुडियाए
सकिए सहसागारे
श्रसरणाए पारण- भोयरणाए
बीय-भोयगाए
हरिय- भोयरणाए पच्छा-कम्मियाए
पुरे - कम्मियाए
श्रदिट्ठ- हडाए
दग-संसट्ट-हडाए
रय-ससट्ट - हडाए
परिसारियाए
परिद्वावरियाए
प्रोसाहरण भिक्खाए
: निर्दोषता मे शकावाली भिक्षा ली हो, • सहसा अनेषरणीय भिक्षा ली हो,
: कल्प्य - प्रकल्प्य की गवेषरणा न की हो, : प्रारण ( स ) युक्त रसचलित भिक्षा लो हो,
: बीजयुक्त या : हरीयुक्त या
बीजमय भिक्षा ली हो, हरीमय भिक्षा ली हो,
: दाता पीछे नया आरम्भ (भोजन) करे, हाथ-पाँव धोवे, ऐसी भिक्षा ली हो,
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: पहले हाथ पात्र धोवे, ऐसी भिक्षा ली हो,
: दृष्टि न पहुँचे वहाँ से, अधेरे मे से या दूर से लाई हुई भिक्षा ली हो,
: सचित्त पानी सहित, भिक्षा ली हो या ऐसे हाथ पात्र से भिक्षा ली हो, : सचित्त रज सहित भिक्षा ली हो या ऐसे हाथ पात्र से भिक्षा ली हो,
: गिराते हुए लाई गई या दी जाती हुई भिक्षा ली हो,
: परठने योग्य, भिक्षा ली हो या, दाता शेप द्रव्य फेक दे, ऐसी भिक्षा ली हो, : वार-वार या दीनतापूर्वक भिक्षा माँगी हो, या उत्तम पदार्थ माँगे हो,