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सूत्र-विभाग-५. धर्म की आवश्यकता [ २५ इसमे शब्द मध्यम तथा यह पचांग मुकाकर की जाती है। . 'इच्छामि खमासमणो' दोनो से शब्द और क्रिया दोनो मे बढकर है। इसलिए उसे उत्कृष्ट वन्दना कहते है।
पाठ ५ पांचा
धर्म की आवश्यकता
अज्ञान से मिथ्यात्व उत्पन्न होता है। मिथ्यात्व से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। राग-द्वेष से आत्मा के साथ कर्म बन्ध होता है। कर्म से आत्मा के साथ देह-संयोग होता है और देह के जन्म-मरण से प्रात्मा को दुःख होता है। उस दुख को नाश करना धर्म का उद्देश्य है और उस दुख का नाश होकर आत्मा को अनंत और एकांत सुखमयं मोक्ष की प्राप्ति होना धर्म का फल है।
दुःख-विनाश के लिए आत्मा के साथ संयुक्त देह का आत्मा से वियोग होना आवश्यक है। देह-वियोग के लिए कर्म-बन्धन का छूटना आवश्यक है। कर्म-बन्धन छूटने के लिए राग-द्वेष का नष्ट होना आवश्यक है। राग-द्वेष के नाश के लिए मिथ्यात्व का दूर होना आवश्यक है और मिथ्यात्व को दूर करने के लिए अज्ञान को हटाना आवश्यक है।
इस कार्य को धर्म अपने चार भेद-१. सम्यग्ज्ञात, २. सम्यग्दर्शन, ३. सम्यक्चारित्र और ४ मम्यक्तप द्वारा पूर्ण करता है। सम्यग्ज्ञान अजान को हटाता है और सम्यग्दर्शन