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सूत्र - विभाग -- २१. 'समुच्चय का पाठ '
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कष्ट भोगने पडते हैं । परभव मे भी वह नरक निगोद आदि मे उत्पन्न होता है । वहाँ उसे नरक तिर्यञ्च दशा मे बहुत कष्ट उठाने पडते हैं । यदि कदाचित् वहाँ से मनुष्य बन भी जाय, तो हीन जाति कुल में जन्म लेता है । अशक्त, रोगी, हीनाग, नपुसक और कुरूप बनता है । वह मूर्ख, निर्धन, शासित और दुर्भागी रहता है । श्रत इन सप्त व्यसनो का त्याग करना प्रतीव लाभप्रद है ।
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प्र० : बिना व्रत लिए 'व्रत लेकर तोड़ना महापाप है' प्रतिचार लग ही जाता है, अत
भी पाप तो लगता ही है, पर और प्राय व्रत मे कोई न कोई व्रत लिया ही क्यो जाये ?
उ० : महापाप तब लगता है, जब वही का वही व्रत बार-बार लेकर उस व्रत के प्रति अनादर और प्रमाद रखकर उसे तोडा जाय । परन्तु जो व्रत लेकर व्रतके प्रति आदर रखता है तथा उसे पालने की सावधानी रखता है, परन्तु परिस्थितिवश कुछ प्रतिचार लग जाता है, उसे महापाप नही लगता । वरन् वह व्रत धारण न करने वाले से महालाभ मे रहता है । लिए हुए व्रत मे अतिचार न लगे, इसके लिए पाप का भय रखना उचित है, क्योकि इससे व्रत की सुरक्षा होती हैं । परन्तु प्रतिचार के भय से व्रत ही नही लेना बालकपन है । जैसे वस्त्र पहनने के पश्चात् उसमे मैल न लगे, इसके लिए सावधानी रखना उचित है, क्योकि इससे वस्त्र अधिक शुद्ध रहता है परन्तु मैल लग जाने के भय से वस्त्र धारण ही न करें, तो उसे कौन बुद्धिमान कहेगा ?