SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ ] सुबोध जैन पाठमाला - भाग २ उ० . रसवाले या प्रवाही पदार्थ, जिससे मद वढे व त्रस जीवो की हिंसा यादि हो, उनका क्रय-विक्रय करने को । जैसे मदिरा, मधु, घी, तेल, गुड, घासलेट, पेट्रोल आदि का क्रयविक्रय करना । प्र० . ६. विसवारिगज्जे (विषवाणिज्य ) किसे कहते हैं ? R. उ० : त्रस -स्थावर के घातक पदार्थों का व्यापार करने को । जैसे सख्यादि विष, खड्गादि शस्त्रास्त्र टिड्डी आदि को मारने वाले पाउडर ग्रादि का क्रय-विक्रय करना । , १ Я о १०. केसवाणिज्जे (केश वाणिज्य ) किसे कहते हैं ? उ० : त्रम जीवो का व्यापार करने को । जैसे चमरीगाय, हाथी, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल, आदि पशु, मयूर कबूतर आदि पक्षी, दासादि मनुष्य आदि का क्रय-विक्रय करना। प्र० : ११. जन्तपीलकम्मे ( यन्त्र-पीड़न कर्म ) किसे कहते हैं ? उ० वनस्पतिकायादि को यन्त्र मे पीलने का महारभी काम और जिन यन्त्रो को चलाते हुए त्रस जीव भी पिल जायेंऐसे काम को । जैसे कोल्हू, घानी, झीन आदि में गन्ना, तिल, रूई ग्रादि पीलना, पनचक्को चलाना, मिल चलाना आदि । प्र० : १२. निल्लंछकम्मे (निर्लाञ्छन कर्म ) किसे कहते हैं ? ir उ० : मनुष्य, पशु यादि को नपुंसक बनाने का, उनके गोपांग छेदने का, या डाम लगाने का काम करना ।
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy