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सूत्र-विभाग-१४ 'उपभोग परिभोग व्रत' प्रश्नोत्तरी [ ८३ अग्नि से पकाना ही एक मात्र मार्ग नहीं है। गृहस्थ कई सचित्त वस्तुयो मे अन्य वस्तुएँ मिलाकर उन्हे अचित्त बनाते है, जैसे धोवन आदि । । 'कई सचित्त वस्तुएँ पीस कर उन्हें अचित्त बनाते है, जैसे जीरा आदि । । कई सचित्त वस्तुएँ सुखाकर प्रचित्त बनाते हैं, जैसे मोठे नीम के पत्ते आदि। ऐसा करने में अग्नि की हिंसा टल जाती है, अत. गणना की दृष्टि से भी हिंसा अधिक नहीं बढ़ती । ३. तीसरी बात यह है कि सचित के आहार प्रत्याख्यान लेने वाला पकाने के आरम्भ कर प्ररपाख्यान नहीं करता। अत. बिना पकाये भी उसे पकाने की क्रिया आती ही रहती है। इसलिए पकाने से उसे पकाने का सर्वथा नया पाप लगता हो-यह बात भी नही है। ४. चौथी बात यह है कि सचित्ताहार के त्यागी को स्वय पकाने का था अन्य मार्गों से सचित्त को अचित्त बनाने का प्रारम्भ करना ही पडे-~-यह अनिवार्य नहीं है। यदि वह चाहे. तो स्वय इनके प्रारम्भ कर दो करण तीन योग आदि से त्याग भी कर सकता है और साधु के समान प्राप्त अचित्त और पक्व पदार्थ का उपयोग कर सकता है। ५ पाँचवी बात यह है कि सचित्त को जानकर, ही सदा अचित्त बनाया नही जाता, कई बार वे स्वत:ही अचित्त बनते है, जैसे रोटी, सहज निष्पन्न धोवन, स्नानार्थ बना- शेष , बचा गरम जल आदि। यदि विवेक रक्खा जाय, तो सचित्त कर त्यागी नये प्रारम्भ का त्याग कर सहज-निष्पन्न, अचित्त और पक्व पदार्थों से काम चला सकता है। . . . .
प्र० : सचित्त त्याग के अन्य लाभ बताइए।
उ० : १. स्वाद विजय, २ जहाँ अचित्त बनाकर खाने की सुविधा न हो, वहाँ सतोष, ३. खरबूजा आदि अधिकाश पदार्थ, जिन्हे पकाकर नहीं खाये जाते, उनका सर्वथा त्याग,