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सुबोध जैन पाठमाला
साधु 'भिक्षु' अवश्य है, पर 'दीन' नही ।
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करके आहार लेना दोष है ।
-भाग २
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श्रत दीनता
६. तिगिच्छे ( चिकित्सा ) चिकित्सा करके आहार आदि लेना ।
चिकित्सा करने से भी ९ भिक्षुकपन मे कमी आती है २ जीव विराधना सभव है तथा ३. नीरोग न होने पर गृहस्थ को शेष सभव है, अतः यह आहार सदोष है ।
७ कोहे (क्रोध) : क्रोध करके गृहस्थ को शाप आदि का भय दिखला कर आहार लेना ।
८. मारणे (मान) : मान करके गृहस्थ को अपनी लब्धि आदि दिखला कर, आहार आदि लेना ।
६. माया : कपट करके अन्य रूप वेश आदि दिखलाकर आहार आदि लेना ।
१० लोहे (लोभ) : लोभ करके मर्यादा से अधिक तथा श्रेष्ठ आहार आदि लेना ।
कषाय करके श्राहार लेने के कारण, ये चारो प्रहार सदोष हैं ।
११. पुव्विं पच्छा - संथव ( पूर्व पश्चात् संस्तव) : अधिक प्रहार प्राप्ति के लिए दाता को दान से पहले या पीछे भाट के
समान प्रशसा करना ।
इससे भिक्षुकपन मे कभी श्राने से, यह ग्राहार सदोष है ।